नई दिल्ली: उत्तर प्रदेश विधानमंडल में 186 पदों पर हुई भर्ती में गड़बड़ी के मामले को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने चौंकाने वाला घोटाला करार देते हुए सीबीआई से इसकी जांच की बात कही है. कोर्ट ने इसे लेकर ईमानदारी की कमी और भाई-भतीजावाद के गंभीर सवाल भी उठाए हैं.
इंडियन एक्सप्रेस की पड़ताल के मुताबिक, उत्तर प्रदेश विधानसभा और विधान परिषद में प्रशासनिक पदों पर होने वाली नियुक्तियों के लिए साल 2020-21 में दो राउंड की परीक्षा आयोजित गई थी. इस परीक्षा के लिए करीब 2.5 लाख लोगों ने आवेदन किया था. हैरानी की बात यह है कि इस परीक्षा के बाद नियुक्त हुए हर 5 में से 1 उम्मीदवार वीवीआईपी अधिकारी या नेता के रिश्तेदार हैं.
खबर की मानें, तो ये वही अधिकारी हैं, जिनकी निगरानी में परीक्षा आयोजित की गई थी.
मालूम हो कि इस परीक्षा में सफल होने वाले उम्मीदवारों में तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष के जनसंपर्क अधिकारी और उनके भाई शामिल हैं. इसके अलावा एक मंत्री का भतीजा, एक विधानसभा परिषद सचिवालय प्रभारी का बेटा, विधानसभा सचिवालय प्रभारी के चार रिश्तेदार, एक संसदीय कार्य विभाग का बेटा और बेटी, एक उप लोकायुक्त के बेटे, दो मुख्यमंत्रियों के पूर्व स्पेशल ड्यूटी के बेटे को नियुक्ति दी गई है.
इतना ही नहीं, इन नियुक्तियों में कम से कम पांच ऐसे लोग भी शामिल हैं, जो दो निजी फर्मों, टीआर डाटा प्रोसेसिंग और राभव लिमिटेड के मालिकों के रिश्तेदार हैं, जिन्होंने कोरोना की पहली लहर के दौरान परीक्षा दी थी. इन सभी उम्मीदवारों को तीन साल पहले यूपी विधानमंडल का प्रशासन करने वाले दो सचिवालयों में नियुक्त किया गया था.
तीन असफल उम्मीदवार हाईकोर्ट पहुंचे थे
इस संबंध में 18 सितंबर 2023 को एक आदेश में, तीन असफल उम्मीदवार, सुशील कुमार, अजय त्रिपाठी और अमरीश कुमार ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की थी. इसकी सुनवाई करते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट की दो जजों की बेंच ने इसे चौंकाने वाली नियुक्ति करार देते हुए कहा कि इसमें कुछ भर्तियां गैर कानूनी तरीके से हुई हैं, जिसके चलते इसकी विश्वसनीयता ही कम हो गई है.
हालांकि, विधान परिषद की अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई जांच पर रोक लगा दी और अगली सुनवाई 6 जनवरी, 2025 को निर्धारित की गई है. ये नियुक्तियां कम से कम 15 समीक्षा अधिकारियों (आरओ), 27 सहायक आरओ और जूनियर पदों से संबंधित हैं.
मालूम हो कि आरओ एक राजपत्रित पद के बराबर है, जिसका वेतन बैंड 47,600 रुपये से 1,51,100 रुपये है और एआरओ का वेतन मैट्रिक्स 44,900 रुपये से 1,42,400 रुपये है.
इंडियन एक्सप्रेस ने इस पूरे मामले के रिकॉर्ड की जांच की और उन लोगों से बात की जो दोनों सचिवालयों के लिए चुने गए 38 उम्मीदवारों का पता लगाने में शामिल थे. इनके अधिकारियों और राजनेताओं से संबंध थे. हालांकि, ज्यादातर ने या तो मामले में अपनी भूमिका से इनकार किया है, या तो मामला कोर्ट में होने की बात कही है.
एचएन दीक्षित, जो भर्ती के समय यूपी विधानसभा अध्यक्ष थे, उनके जनसंपर्क अधिकारी को विशेष कार्यकारी अधिकारी (प्रकाशन), विधान परिषद में नियुक्ति मिली है. उन्होंने कहा कि वह मेरे साथ थे और बाद में परिषद (सचिवालय) में नियुक्त हुए. इसमें मेरी कोई भूमिका नहीं थी. पीआरओ के भाई का भी विधानसभा में समीक्षा अधिकारी (आरओ) के रूप में चयन हुआ. दीक्षित का कहना है कि वे इस बारे में कुछ नहीं जानते हैं.
उनकी निगरानी में आयोजित भर्ती के बारे में पूछे जाने पर, पूर्व भारतीय जनता पार्टी विधायक और 2017-2022 तक विधानसभा अध्यक्ष रहे दीक्षित ने कहा कि यह उनकी ओर से स्वीकृत एजेंसी द्वारा किया गया था, लेकिन उनकी भूमिका सीमित थी और मामला अब अदालत में है और उनके किसी भी करीबी रिश्तेदार को किसी भी पद पर नियुक्त नहीं किया गया है.
इसमें दूसरा नाम उत्तर प्रदेश के संसदीय कार्य विभाग के प्रमुख सचिव जय प्रकाश सिंह के बेटे और बेटी का है. इन्हें आरओ, विधानसभा का पद मिला है. जय प्रकाश सिंह ने कहा कि उनका चयन उनकी योग्यता के आधार पर हुआ है और वे इससे ज़्यादा कुछ नहीं कहना चाहता.
प्रमुख सचिव प्रदीप दुबे के चार रिश्तेदार भी इस सूची में शामिल हैं, इसको लेकर उनका कहना है कि यह मामला अब सुप्रीम कोर्ट में है, मेरे लिए इस पर चर्चा करना उचित नहीं होगा.
विधानपरिषद के प्रमुख सचिव राजेश सिंह के बेटे को आरओ विधानसभा के तौर पर नियुक्ति मिली है. उनका कहना था, कि वो इस मामले में कुछ नहीं कहना चाहते हैं.
पूर्व मंत्री महेंद्र सिंह के भतीजे को सहायक समीक्षा अधिकारी (एआरओ), विधान परिषद के पद पर नियुक्त किया गया है. सिंह भाजपा की राज्य सरकार में 2017 से 2019 तक राज्य मंत्री और 2019 से 2022 तक कैबिनेट मंत्री रहे थे. वह टिप्पणी करने के लिए उपलब्ध नहीं थे. उनके परिवार के एक सदस्य ने कहा कि उनका चयन प्रक्रिया से कोई लेना-देना नहीं था.
उप-लोकायुक्त और पूर्व प्रमुख सचिव दिनेश कुमार सिंह के बेटे की आरओ के पद पर नियुक्त को लेकर दिनेश सिंह ने कहा कि इस नियुक्ति (विधानसभा सचिवालय में) में उनकी कोई भूमिका नहीं है. वह अब न्यायिक अधिकारी हैं.
मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और योगी आदित्यनाथ के पूर्व ओएसडी अजय कुमार सिंह, जो अब सेवानिवृत्त हो गए हैं के बेटे को समीक्षा अधिकारी (आरओ), विधानसभा के पद पर नियुक्त किया गया है. सिंह ने टिप्पणी के अनुरोधों का जवाब नहीं दिया.
धर्मेंद्र सिंह के बेटे और भाई, जो पूर्व मंत्री और सपा नेता शिवपाल यादव के साथ काम कर चुके हैं को परिषद के एपीएस (अपर निजी सचिव) और एआरओ के पद पर नियुक्त किया गया है. सिंह ने इसे लेकर कहा कि उन्होंने परीक्षा पास की थी.
पूर्व सीएम अखिलेश यादव के करीबी जैनेंद्र सिंह यादव उर्फ नीटू के भतीजे को भी आरओ, विधानसभा के पद पर नियुक्त किया गया है. जैनेंद्र ने टिप्पणी के अनुरोधों का जवाब नहीं दिया.
चयनित लोगों में दो भर्ती फर्मों के मालिकों के रिश्तेदार शामिल हैं
रभव के मालिक राम प्रवेश यादव की पत्नी को आरओ, काउंसिल का पद मिला है. यादव के पिता पूर्व आईएएस अधिकारी शंभू सिंह यादव के भाई हैं, जो हाल ही में उप लोकायुक्त के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं. इस मामले में शंभू सिंह यादव ने कहा कि उन्हें कुछ नहीं पता.
टीएसआर डाटा प्रोसेसिंग के निदेशक राम बीर सिंह के भतीजे, भतीजी और बहनोई को एआरओ, विधानसभा के पद पर नियुक्त किया गया है.
टीएसआर डाटा प्रोसेसिंग के निदेशक सत्यपाल सिंह के भाई को एआरओ, विधानसभा के पद पर नियुक्ति मिली है.
राम बीयर, सत्य पाल और राम प्रवेश यादव ने बार-बार अनुरोधों का जवाब नहीं दिया. अखबार ने उनकी टिप्पणी मांगने के लिए प्रश्नावली ईमेल की थी.
‘काफ़ी चौंकाने वाला घोटाला’
इस भर्ती को लेकर 2021 से इलाहाबाद उच्च न्यायालय में कई याचिकाएं दाखिल की गई हैं. पिछले साल 18 सितंबर 2023 को अदालत ने दो याचिकाओं को जोड़ते हुए, मामले को जनहित याचिका में बदल दिया और सीबीआई जांच का आदेश दिया. इस प्रक्रिया में दो न्यायाधीशों की पीठ ने बाहरी एजेंसियों को शामिल करने को लेकर आलोचना की थी. अदालत के रिकॉर्ड से पता चलता है कि दोनों निजी फर्मों के मालिकों को पहले एक अन्य भर्ती में कथित हेराफेरी के आरोप में जेल भेजा गया था, और मामला अभी भी लंबित होने के कारण वे जमानत पर हैं.
3 अक्टूबर, 2023 को उच्च न्यायालय ने विधान परिषद द्वारा दायर समीक्षा आवेदन को खारिज कर दिया. न्यायालय ने कहा कि इस अदालत ने मूल अभिलेखों का अवलोकन करके आरोपों के सार पर अपनी प्रथम दृष्टया संतुष्टि दर्ज कर ली है, और अब आगे जाने की आवश्यकता नहीं है. खासकर तब जब न्यायालय ने तथ्यों के देखकर पाया है कि यह किसी भर्ती घोटाले से कम नहीं है, जिसमें सैकड़ों भर्तियां अवैध और गैरकानूनी तरीके से एक बाहरी एजेंसी द्वारा की गई हैं, जिसकी विश्वसनीयता कम हो गई है.
सुनवाई के दौरान उच्च न्यायालय ने तीखी टिप्पणियां की थीं. अदालत ने मुख्य रूप से नियमों में संशोधन का जिक्र किया, जिसके चलते ये कथित ‘घोटाला’ हो सका. इससे पहले सचिवालयों के लिए भर्ती 2016 तक यूपी लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित की जाती थी, लेकिन विधानसभा ने नियम में संशोधन किया और उन्हें अपने दम पर संचालित करने का निर्णय लिया. 2019 में परिषद ने भी इसे अपनाया. पूर्व एसपी एमएलसी रमेश यादव, जो नियमों में संशोधन के समय परिषद के अध्यक्ष थे, से टिप्पणी के लिए संपर्क नहीं किया जा सका क्योंकि उनका स्वास्थ्य अच्छा नहीं था.
इसे लेकर उच्च न्यायालय ने कहा था, ‘..यह जानकर आश्चर्य हुआ कि परीक्षा एजेंसी को बाहर करके नियमों में संशोधन क्यों किया गया…चयन समिति के निर्धारित नियमों को दरकिनार कर एक बाहरी एजेंसी के लिए निर्णय…काफ़ी चौंकाने वाला है.’
इसमें आगे कहा गया, ‘बाहरी एजेंसियों की पहचान करने की प्रक्रिया में संदेह सामने आया… हमें कुछ अस्पष्ट विवरण मिले, जो प्रथम दृष्टया, वर्तमान मामले में बाहरी एजेंसी की पहचान के संबंध में एक निष्पक्ष एजेंसी द्वारा प्रारंभिक जांच के लिए न्यायालय को संतुष्ट करते हैं. सार्वजनिक सेवा में भर्ती के मामले में, हमारे दृढ़ विचार में, निष्पक्षता की पहचान से समझौता नहीं किया जा सकता है.’
इस बीच, सीबीआई ने प्रारंभिक जांच (पीई) दर्ज की और 13 अक्टूबर, 2023 को सुप्रीम कोर्ट द्वारा रोक जारी होने तक भर्ती से संबंधित कुछ रिकॉर्ड अपने कब्जे में ले लिए.
उच्च न्यायालय के रिकॉर्ड में भर्ती के समय का विवरण भी दिया गया है:
यूपी परिषद सचिवालय: 17 और 27 सितंबर, 2020 को 99 पद विज्ञापित. 22 नवंबर, 2020 को प्रारंभिक परीक्षा – और स्थानीय विवाद के कारण 29 नवंबर को गोरखपुर के लिए पुन: परीक्षा. मुख्य परीक्षा 27 और 30 दिसंबर, 2020 को. परिणाम: 11 मार्च, 2021.
यूपी विधानसभा सचिवालय: दिसंबर 2020 में 87 पद विज्ञापित. 24 जनवरी 2021 को प्रारंभिक परीक्षा. 27 फरवरी 2021 को मुख्य परीक्षा और 14 मार्च 2021 को टाइपिंग टेस्ट. परिणाम: 26 मार्च 2021.
इन परीक्षाओं के लिए आवेदन करने वाले कुल उम्मीदवारों की संख्या के बारे में कोई डेटा उपलब्ध नहीं है. कई अधिकारियों ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि यह संख्या लगभग 2.5 लाख थी. कोर्ट के रिकॉर्ड से पता चलता है कि विधानसभा में भर्ती का ठेका ब्रॉडकास्टिंग इंजीनियरिंग एंड कंसल्टेंसी सर्विसेज (BECIL) को दिया गया था, जो केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के तहत एक केंद्रीय सार्वजनिक क्षेत्र का उपक्रम है.
बेसिल ने टीएसआर डेटा प्रोसेसिंग को काम पर रखा था. बेसिल के वरिष्ठ प्रबंधक अविनाश खन्ना ने कहा कि हमने विधानसभा सचिवालय के साथ एक अनुबंध पर हस्ताक्षर किए और हमने इसे आगे सब-लेट कर दिया. हम इस समय इस बारे में और कुछ नहीं कह सकते क्योंकि मामला कोर्ट में विचाराधीन है.
सूत्रों ने पुष्टि की कि परिषद ने राभव को भर्ती प्रक्रिया संचालित करने का कार्य सौंपा था, हालांकि सचिवालय ने परीक्षा प्रक्रिया की गोपनीयता का हवाला देते हुए अदालत में फर्म का नाम उजागर नहीं किया. विधानसभा सचिवालय के लिए चयनित उम्मीदवारों की कथित सूची हाईकोर्ट में एक अन्य याचिकाकर्ता विपिन कुमार सिंह ने पेश की थी. उन्होंने अनिर्दिष्ट माध्यमों से प्राप्त ओएमआर उत्तर पुस्तिकाओं और टाइपिंग शीट का हवाला देते हुए आरोप लगाया कि योग्यता अंकों में हेराफेरी की गई थी.
सिंह ने उच्च न्यायालय को बताया था, ‘परिणाम कभी भी बड़े पैमाने पर जनता के लिए घोषित नहीं किए गए थे. न तो परिणामों की तारीख का खुलासा किया गया और न ही अंतिम रूप से चयनित उम्मीदवारों की सूची का खुलासा किया गया.
विधानसभा सचिवालय ने उच्च न्यायालय को बताया कि अंतिम परिणाम उत्तरदाताओं की आधिकारिक वेबसाइट uplegiaassemblyrecruitment.in पर अपलोड कर दिया गया था… सहायक समीक्षा अधिकारी के पद के लिए अंतिम सूची विधान सभा सचिवालय के कार्यालय के नोटिस बोर्ड पर चिपका दी गई थी.
हालांकि, जब अखबार ने वेबसाइट की जांच की, तो नतीजे वहां नहीं मिले.