नई दिल्ली: इस साल 26 अगस्त को महाराष्ट्र के सिंधुदुर्ग में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के द्वारा पिछले ही वर्ष उद्घाटित की गई शिवाजी की मूर्ति धराशायी हो गई और मूर्ति के टूटने के सिर्फ चार दिन बाद इसको लेकर प्रधानमंत्री ने चुनावी रैली में माफी मांग ली. यह एक ऐसी खबर थी जिस पर भारतीय राष्ट्र की बदलती हुई प्रकृति पर कुछ देर ठहरकर विचार किए जाने की आवश्यकता है.
जिस प्रकार से अब तक राजनीतिक विषयों पर कड़ा रुख अख्तियार करते हुए केंद्र सरकार मध्य-मार्गीय नीति से कतराती रही है, महाराष्ट्र में मात्र एक मूर्ति के धराशायी हो जाने से प्रधानमंत्री का भरी सभा में माफी मांगना कोई सामान्य बात नहीं है.
भाजपा की केंद्र सरकार के दौर में संस्कृति मंत्रालय की तरफ से अपने कुल बजट का एक बहुत बड़ा हिस्सा विशालकाय मूर्तियों के निर्माण पर खर्च किया जाना और बाद में दक्षिणपंथी ताकतों के द्वारा इन मूर्तियों के सहारे राष्ट्रीय संवेदनाओं को ध्रुवीकृत करना भारतीय राजनीति का वह पन्ना है जिसे शब्दशः पढ़ा जाना चाहिए, ख़ासकर महाराष्ट्र विधानसभा के संदर्भ में इसकी सारगर्भित पड़ताल होनी चाहिए.
इस मूर्ति राजनीति को समझने के लिये आतिका सिंह के साथ यह साक्षात्कार प्रस्तुत है. आतिका अमेरिका के स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में आर्ट हिस्ट्री में पीएचडी कर रही पहली भारतीय दलित महिला हैं. उनके शोध का विषय भारत में मूर्तियों के इर्द-गिर्द होने वाली राजनीति है.
बीते दिनों सिंधुदुर्ग में शिवाजी की मूर्ति के टूटने और उसके लिए प्रधानमंत्री के त्वरित माफी मांगने को कैसे देखती हैं?
मैं शिवाजी पर आऊं, उससे पहले मैं डॉक्टर भीमराव आंबेडकर की मूर्तियों के विषय में कुछ बताना चाहती हूं. मेरे शोध के मुताबिक डॉक्टर भीमराव आंबेडकर की मूर्तियों को पूरे देश में जातिवादी कारणों से तोड़ा जाता रहा है, जिस पर कोई विशेष राजनीतिक प्रतिक्रिया नहीं होती है, लेकिन महाराष्ट्र में भारी बरसात के चलते शिवाजी की मूर्ति टूटने पर हमें प्रधानमंत्री की प्रतिक्रिया देखने को मिली. डॉक्टर आंबेडकर की मूर्तियां तोड़े जाने और शिवाजी की मात्र एक मूर्ति के टूटने के ऊपर व्यक्त की गई प्रतिक्रियाओं के बीच यह जो ज़मीन-आसमान का अंतर है उसका कारण हिंदू जाति व्यवस्था है.
शिवाजी को महाराष्ट्र की हाशिये की जातियों के साथ-साथ सवर्ण जातियों का भी नायक माना जाता है इसलिए उनके अपमान पर महाराष्ट्र में समाज का प्रत्येक वर्ग अपनी-अपनी प्रतिक्रिया दे रहा है.
शिवाजी हाशिये की जातियों के साथ-साथ सवर्ण जातियों के भी नायक है, इस पर थोड़ा और बताएं.
देखिए, आधुनिक भारत के निर्माण के शुरुआती दिनों से ही महाराष्ट्र की अपनी क्षेत्रीय पहचान का केंद्र बिंदु मूर्तियां, दुर्ग, समाधियां आदि रही हैं. शायद आपको ये जानकर हैरानी होगी कि महाराष्ट्र के रायगढ़ में स्थित शिवाजी की समाधि की खस्ता हालत को मुद्दा बनाकर 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ महाराष्ट्र में राष्ट्रीय आंदोलन की शुरुआत हुई थी. 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में बाल गंगाधर तिलक महाराष्ट्र में उभरते हुए राष्ट्रीय आंदोलन के सबसे बड़े नेता थे. जब जेम्स डगलस नाम के एक अंग्रेज ने वर्ष 1882 में ‘बुक ऑफ बॉम्बे’ के शीर्षक से एक किताब लिखी जिसमे उसने महाराष्ट्र के रायगढ़ में स्थित शिवाजी की समाधि की खस्ता हालत का बखान किया तो तिलक ने इस बात को बहुत बड़ा राजनीतिक मुद्दा बना दिया था.
1885 आते-आते ब्रिटिश हुकूमत ने प्रति वर्ष कुल चार रुपये के खर्चे पर शिवाजी की समाधि का जीर्णोद्धार कराने का फैसला तो ले लिया लेकिन आने वाले समय में शिवाजी की समाधि का रंग-रोगन कराने के अपने ऐलान को ब्रिटिश अमली जामा नहीं पहना पाए. इसी बीच 1886 आते-आते तिलक ने महाराष्ट्र में शिवाजी उत्सव का आयोजन कराना शुरू कर दिया. इस उत्सव से होते हुए ब्रिटिश सरकार के खिलाफ महाराष्ट्र की जनता को गोलबंद करने के उद्देश्य से तिलक ने बरस दर बरस ये स्थापित करने की कोशिश की कि शिवाजी की वर्तमान समाधि और उनसे जुड़े अन्य स्थलों की खस्ता हालत किसी और कारण से नहीं बल्कि ब्रिटिश सरकार की गलत नीतियों के कारण है.
तो कुल जमा बात ये है कि शिवाजी की मूर्ति का सिंधुदुर्ग में सरकार के द्वारा सही तरीके से निर्माण न कराए जाने के कारण ढह जाना मराठी मानस के लिए कोई सामान्य बात नहीं है. क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी जानते है कि जैसे 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से महाराष्ट्र के लोग शिवाजी से संबंधित सांस्कृतिक प्रतीकों के सहारे सत्ताधारी दलों के खिलाफ गोलबंद होते रहे हैं, ठीक वैसे ही वो सरकारी गलतियों के चलते शिवाजी की मूर्ति टूटने आदि से महाराष्ट्र की सत्ताधारी पार्टी- भाजपा के खिलाफ भी गोलबंद हो सकते हैं. इसलिए सिंधुदुर्ग में शिवाजी की मूर्ति के धराशायी होते ही मोदी ने भरी सभा में माफी मांग ली.
महाराष्ट्र में कोई सवर्ण या किसी मध्यम जाति से आने वाला व्यक्ति शिवाजी की मूर्ति के टूटने पर जिस तरह विचलित होता है, क्या ठीक वैसी ही भावनाएं शिवाजी की मूर्ति को खंड-खंड देखने पर महाराष्ट्र के दलित समुदाय के भीतर भी उभरती हैं?
महाराष्ट्र के समाज में शिवाजी की छवि का मात्र एक संस्करण मौजूद नहीं है, जिसे बाल गंगाधर तिलक ने वर्ष 1885 के आसपास से प्रचारित करना शुरू किया था. तिलक के द्वारा शिवाजी के ब्राह्मणवादी चरित्र को मराठी समाज के भीतर प्रस्तावित करने के बहुत पहले ज्योतिराव फुले ने महाराष्ट्र के दलित आंदोलन को स्थापित करने के लिए शिवाजी के प्रतीक का बहुत सार्थक रूप से प्रयोग किया था.
इस पूरे विषय को समझने के लिए हमें कम से कम 1818 तक जाना होगा. वर्ष 1818 में फैलते हुए ब्रिटिश कंपनी राज ने महाराष्ट्र के चितपावन ब्राह्मणों के द्वारा चलाई जाने वाली पेशवाओं की सत्ता को धूल चटाकर बाजीराव को महाराष्ट्र की गद्दी से उतारते हुए प्रताप सिंह भोसले को मराठा साम्राज्य का राजा बना दिया.
लेकिन भोसले के द्वारा मराठा साम्राज्य की गद्दी संभालते ही महाराष्ट्र के चितपावन ब्राह्मणों ने भोसले की जाति पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए पूरे महाराष्ट्र में बहस छेड़ दी कि शिवाजी की मराठा गद्दी का वारिस सिर्फ एक क्षत्रिय को बनाया जा सकता है और चूंकि प्रताप सिंह भोसले जाति से शूद्र हैं उनको मराठा साम्राज्य का उत्तराधिकारी बनाना उचित नहीं है. चितपावन ब्राह्मणों द्वारा छेड़ी गई इसी बहस का एक सिरा पकड़ते हुए बाद में ज्योतिराव फुले ने महाराष्ट्र में भोसले और उनके पूर्वज शिवाजी को ‘मराठा शूद्र सम्राट’ के रूप में स्थापित करने का काम किया.
चूंकि महाराष्ट्र के दलितों और पिछड़ी जाति के लोगों के मानस पर अभी भी फुले के आंदोलन की गहरी छाप मौजूद है, ऐसे में सिंधुदुर्ग में शिवाजी की मूर्ति टूटने पर महाराष्ट्र के दलित समुदाय को बेशक बुरा लग सकता है लेकिन महाराष्ट्र के दलितों के लिए शिवाजी ‘मराठा शूद्र सम्राट’ है न कि बाल गंगाधर द्वारा प्रचारित किए गए ‘चितपावन मराठा नरेश’.
देश में आंबेडकर की मूर्तियों को तोड़े या खंडित किए जाने पर वैसी राजनीतिक प्रतिक्रिया क्यों नहीं दिखाई देती जैसी प्रक्रिया शिवाजी की मूर्ति के टूटने पर दिखाई दी?
सामान्य तौर पर शहरों में स्थित आंबेडकर की विशाल और सुंदर मूर्तियों की बजाय ग्रामीण क्षेत्रों में छोटी-छोटी मूर्तियों को तोड़ा जाता है जिस पर गांव के स्तर पर बहुत बार खूब लड़ाई-झगड़ा भी होता है. 1997 में मुबंई के घाटकोपर स्थित रमाबाई नगर में डॉक्टर आंबेडकर की मूर्ति के साथ छेड़खानी किए जाने के कारण दंगे भी भड़क गए थे.
हां, लेकिन इसके साथ ये भी सच है कि यदि शिवाजी की मूर्ति के साथ छेड़छाड़ की जाएगी तो पैदा होने वाला विवाद शायद आंबेडकर की मूर्तियों को तोड़े जाने से उत्पन्न हुए विवाद की अपेक्षा कहीं ज्यादा बड़ा होगा.
मैंने पहले भी कहा कि पूरे महाराष्ट्र की भिन्न जातियों या संप्रदायों के बीच शिवाजी की कोई एक छवि मौजूद नहीं है. एक तरफ कुनवी, महार, माली जैसी तथाकथित रूप से अछूत जातियां शिवाजी को अपनी जाति का राजा मानती है तो दूसरी तरफ महाराष्ट्र के ब्राह्मणों को लगता है कि शिवाजी जाति से सवर्ण थे. चूंकि पूरे महाराष्ट्र के हर समुदाय में शिवाजी की कोई न कोई सकारात्मक छवि मौजूद है, वर्तमान में महाराष्ट्र का कोई भी राजनीतिक दल इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि शिवाजी की मूर्ति के टूटने पर प्रत्येक महाराष्ट्रवासी की भावनाएं समान रूप से आहत हुई. इसलिए चुनाव के ठीक पहले प्रत्येक दल इस मुद्दे को हवा देकर वोट बटोरने की कोशिश कर रहा था.
शिवाजी की तुलना में अब तक भारतीय राजनीति में डॉक्टर आंबेडकर को मात्र अछूत जातियों का मसीहा बताकर प्रचारित किया गया है. अब तक भारतीय जनमानस में आंबेडकर को लेकर ये बात अच्छे से रेखांकित नहीं की गई है कि कैसे अनुसूचित जातियों की लड़ाई लड़ने के साथ-साथ आंबेडकर पिछड़ी, ओबीसी जातियों के लिए प्रथम बैकवर्ड कमीशन गठित करने के मुद्दे पर नेहरू के सामने अड़ गए थे. या फिर कैसे दलितों का उद्धार करने के अतिरिक्त हिंदू कोड बिल के माध्यम से आंबेडकर ने समाज में महिलाओं की भागीदारी भी सुनिश्चित की थी.
जिस दिन शिवाजी की तरह आंबेडकर भी जनमानस में दलित एवं पिछड़ी जातियों के सामूहिक नेता के रूप में स्थापित हो जाएंगे उनकी मूर्तियों के तोड़े जाने पर भी हमें तीखी राजनीतिक प्रतिक्रिया देखने को मिलने लगेगी.
(लेखक जेएनयू में समाजशास्त्र के विद्यार्थी रहे हैं और स्वतंत्र पत्रकार के रूप में सक्रिय हैं.)
(*कार्तिक त्रिपाठी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में विजुअल आर्ट के क्षेत्र में शोध कर रहे हैं.)