हे राम,
जीवन एक कटु यथार्थ है
और तुम एक महाकाव्य!
तुम्हारे बस की नहीं
उस अविवेक पर विजय
जिसके दस-बीस नहीं
अब लाखों सर लाखों हाथ हैं,
और विभीषण भी अब
न जाने किसके साथ है!
इससे बड़ा क्या हो सकता है
हमारा दुर्भाग्य
कि एक विवादित स्थल में सिमट कर
रह गया तुम्हारा साम्राज्य
अयोध्या इस समय तुम्हारी अयोध्या नहीं
योद्धाओं की लंका है,
‘मानस’ तुम्हारा ‘चरित’ नहीं
चुनाव का डंका है!
हे राम, कहां यह समय
कहां तुम्हारा त्रेता युग,
कहां तुम मर्यादा पुरुषोत्तम
कहां यह नेता-युग!
सविनय निवेदन है प्रभु कि लौट जाओ
किसी पुरान-किसी धर्मग्रंथ में
सकुशल सपत्नीक….
अबके जंगल वो जंगल नहीं
जिनमें घूमा करते थे वाल्मीक!
मिथकीय चेतना से संपन्न और ‘आत्मजयी’ कहलाने वाले मानवतावादी कवि स्मृतिशेष कुंवर नारायण (जिन्हें समन्वय व विद्रोह का कवि भी कहा जाता है और जो सात साल पहले नब्बे वर्ष की अवस्था में आज के ही दिन इस संसार को अलविदा कह गए) ने प्रभु राम को संबोधित ‘अयोध्या, 1992’ शीर्षक यह कविता, जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है, 1992 में अयोध्या में घटित हुई अनिष्टों की लंबी श्रृंखला से क्षुब्ध होकर रची थी, जो बाद में उनकी प्रतिनिधि कविता की तरह चर्चित हुई.
इस कविता के सिलसिले में एक दिलचस्प तथ्य यह भी है कि उनमें और उनके द्वारा इसमें संबोधित ‘प्रभु राम’ में एक बड़ा साझा है: दोनों का जनपद भी एक है और जन्मभूमि भी-अयोध्या.
अलबत्ता, प्रभु राम से इतर कुंवर नारायण का जन्म अयोध्या के उस हिस्से में हुआ था, जिसे तब फैजाबाद कहा जाता था और आज की तारीख में यह देखकर उनके सहृदय पाठकों का हृदय बिंधकर रह जाता है कि जैसे फैजाबाद अब फैजाबाद नहीं रह गया, वैसे ही उसमें कुंवर नारायण की स्मृतियां भी नहीं बचीं.
कोई पूछे कि क्यों नहीं बचीं, क्या इसलिए कि अयोध्या में पिछले वर्षों में उनकी जैसी अविवेक पर विजय की आकांक्षी शख्सियतों को बेगानी करार देकर उनके स्मृतिसंहार के लिए नित नये उपक्रम होते रहे हैं? तो किसी ओर से कोई जवाब नहीं मिलता.
अलबत्ता, संकेतों में कहा जाता है 1927 में कुंवर नारायण का जन्म हुआ तो देश अंग्रेजों से मुक्ति की लड़ाई लड़ रहा था और 2017 में वे दुनिया से गए तो देश की बुद्धि और चेतना को कुंठित करने और किसी नेता की डिब्बी में, तो किसी संगठन के ध्वज में, चंद नारों या कानून की दफाओं में कैद करने के ऐसे प्रयास चल रहे थे (अभी भी चल ही रहे हैं) कि उन्हें अपने प्रभु राम से यह तक कहना पड़ा था कि कहां तुम्हारा त्रेता युग और कहां यह नेता युग! और इस युग में तुम्हारे वंश की नहीं अविवेक पर विजय!!
निस्संदेह, 1927 में फैजाबाद के मोतीबाग मुहल्ले में पिता विष्णुनारायण अग्रवाल के दूसरे बेटे के तौर पर उनका जन्म हुआ तो उसकी सामाजिक चेतना उरूज पर थी. कुंवर नारायण के जन्म के महज तीन महीने बाद 19 दिसंबर, 1927 को देश की गोरी सरकार ने ऐतिहासिक काकोरी ट्रेन एक्शन में मुकदमे के लंबे नाटक के बाद क्रांतिकारी अशफाक उल्लाह खां को ‘जिन्दान-ए-फैजाबाद’ से ही ‘सू-ए-अदम’ भेजा था! इसके दो साल बाद 1929 में महात्मा गांधी ने अपने हरिजन फंड के लिए धन जुटाने के सिलसिले में कुंवर नारायण के मुहल्ले मोतीबाग में ही सभा की थी.
उन दिनों कुंवर नारायण का अपना घर भी कांग्रेस के समाजवादियों की गतिविधियों और जमावड़ों का केंद्र हुआ करता था. आचार्य जेबी. कृपलानी, उनकी जीवनसंगिनी सुचेता कृपलानी, आचार्य नरेंद्रदेव और डॉ. राममनोहर लोहिया जैसे नेता वहां आते, ठहरते और विचार-विमर्श किया करते थे.
कुंवर नारायण के पिता थे तो महाजन और जरूरतमंदों को सूद-ब्याज पर रुपये दिया करते थे, लेकिन देश और समाज के सरोकारों से जुड़ाव के चलते उन्होंने अपने घर का नाम ‘सुचेता सदन’ रख दिया था. आजादी के बाद सुचेता कृपलानी उत्तर प्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री भी बनी थीं. जाहिर है कि अपने पिता के कारण कुंवर नारायण को किशोरावस्था से ही समाजवादी नेताओं का सान्निध्य मिलने लगा था, जिसका प्रभाव उनकी साहित्य सर्जना पर भी पड़ा. वे इस प्रभाव को ईमानदारीपूर्वक स्वीकार भी करते थे.
लेकिन कई तरह की दूषित चेतनाओं से पीड़ित आज के फैजाबाद (जो अब अयोध्या है) ने ‘अपने’ कुंवर नारायण के निधन के सात सालों में ही उनके प्रति अजीबोगरीब बेगानापन ओढ़ लिया है. इस कदर कि उसे उनसे जान-पहचान कुबूल करना या उनकी स्मृति में दो पल उदास होना भी गवारा नहीं. क्या आश्चर्य कि कई सहृदयों को यह स्थिति प्रभु राम के साम्राज्य के एक विवादित स्थल में सिमट जाने के दुर्भाग्य जैसी ही दिखाई देती है.
बहरहाल, जिस घर में कुंवर नारायण का जन्म हुआ था, बताते हैं कि तब से अब तक उसकी कम से कम दो बार खरीद-बिक्री हो चुकी है. इसलिए वहां तो उनकी स्मृतियों से जुड़ा कुछ होने या दिखने का सवाल ही नहीं है, लेकिन खुद को इस अंचल या शहर के संस्कृतिकर्मी या साहित्यकार कहने वाले महाशयों में भी कुंवर नारायण के इस शहर का होने को लेकर कोई गौरवबोध नहीं दिखता.
इनमें जो उनके रहते बेहद गर्व और दर्प से उन्हें अपना अभिभावक बताया करते थे, उन्हें भी उनकी स्मृतियों की रक्षा की चिंता नहीं सताती.
घर का जोगी
अवध में पुरानी कहावत है- घर का जोगी जोगना, आन गांव का सिद्ध. लेकिन विडंबना यह कि कुंवर नारायण का ‘घर’ उनको ‘घर के जोगी’ जितनी भी तरजीह नहीं देता. उनकी साहित्य सेवा के मद्देजर उनके बारे में कहा जाता है कि वे अनुपस्थित रहकर हमारे बीच ज्यादा उपस्थित रहेंगे, लेकिन अपने जीवन के इक्यावन साल हिंदी साहित्य को देने, व्यापक मान्यता पाने और अनेक पुरस्कारों से विभूषित होने के बावजूद अपनी जन्मभूमि में उनकी किंचित भी ‘उपस्थिति’ नहीं दिखाई देती.
यह बात इस अर्थ में कहीं ज्यादा दंशित करती है कि बगल का बस्ती जिला ‘कुंआनो के कवि’ सर्वेश्वरदयाल सक्सेना को अपनी माटी की उपज के रूप में निरंतर याद रखता है और वहां उनकी जयंती व पुण्यतिथि पर लेखक संगठनों व साहित्यिक संस्थाओं की ओर से आयोजनों की झड़ी-सी लग जाती है. सर्वेश्वर के विपरीत कुंवर नारायण इतने अभागे हैं कि जीते जी तो अपनी जन्मस्थली से संवाद नहीं ही रख पाए, जीवन के उस पार चले जाने के बाद भी उसमें उनके प्रति अपनत्व का कोई भाव नहीं है. न वे ‘कुंआनो के कवि’ की तरह ‘सरयू के कवि’ हो पाए, न ही अयोध्या या फैजाबाद के.
जहां तक उनके फैजाबादवासी परिजनों की बात है, उनसे तो उनके तार उनके इस संसार में रहते ही टूट गए थे. उनके निधन के बाद इन पंक्तियों का लेखक मोतीबाग में उन्हें अपने बड़े ताऊ का छोटा बेटा बताने वाले बयासी वर्षीय नरेश चंद्र से मिला तो वार्ता के क्रम में उन्होंने कहा था कि ‘अब तो कुंवर नब्बे से ऊपर के हो गए होंगे. मुझसे सात आठ साल बड़े थे.’
लेखक ने उन्हें बताया कि वे तो अब इस दुनिया में रहे ही नहीं, तो कहने लगे-‘कुछ साल पहले तक कभी-कभी मुझसे मिलने-जुलने आया करते थे… ताऊ जी का व्यापार तो उनके बड़े बेटे कृष्ण नारायण ही संभालते थे. बाद में उनके न रहने पर कृष्ण नारायण ने ही परिवार को एकजुट रखा और संभाला. कुंवर नारायण तो बाहर निकले तो बाहर के ही होकर रह गए.’
टूटन की टीस
नरेश चंद्र के बताए इस कड़वे सच का दूसरा पहलू यह है कि उन दिनों तक पूरी तरह लाइलाज क्षय रोग से असमय ही पहले मां, फिर चाचा और फिर बहन को खोकर कुंवर नारायण ने फैजाबाद छोड़ा तो अरसे तक लौटने का कोई कारण ही नहीं तलाश सके.
अनंतर, उनके परिवार ने यहां स्थित अपनी ज्यादातर परिसंपत्तियां बेच डालीं और लखनऊ में नया व्यवसाय आरंभ कर लिया. कुंवर नारायण ने वहीं विज्ञान के विद्यार्थी के रूप में इंटरमीडियेट की परीक्षा पास करने के बाद साहित्य में अपनी गहन अभिरुचि के कारण आगे का रास्ता बदल लिया और 1951 में लखनऊ विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में एमए किया.
दूसरे पहलू पर जाएं तो अपने निधन से कुछ वर्ष पूर्व तक वे अयोध्या के विमला देवी फाउंडेशन के, जिसके वे संस्थापक सदस्य थे, वार्षिक समारोहों में शिरकत करने आया करते थे. इसके बावजूद उनके प्रति बेगानगी का आलम यह है कि उनकी जन्मभूमि में उनके पिता विष्णु नारायण के नाम की तो एक गली है भी, उनसे जुड़ा कुछ नहीं है.
प्रसंगवश, उनकी काव्ययात्रा ‘चक्रव्यूह’ से शुरू हुई थी, जिसमें उन्होंने अपने पाठकों में लगातार एक नई तरह की समझ पैदा की. कहते हैं कि उनके रचनात्मक जीवन की शुरुआत में लखनऊ शहर का विशेष योगदान रहा, लेकिन 15 नवंबर, 2017 को 90 वर्ष की अवस्था में उन्होंने दिल्ली के सीआर पार्क स्थित घर में अंतिम सांस ली तो पत्नी भारती गोयनका और बेटा अपूर्व ही उनके साथ थे.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)