नई दिल्ली: राजस्थान हाईकोर्ट की जोधपुर पीठ ने सरकारी अधिकारियों के ख़िलाफ़ अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल करने के चार आरोपियों को यह कहते हुए ‘एससी-एसटी एक्ट’ से मुक्त कर दिया कि ‘भंगी’, ‘नीच’, ‘भिखारी’, ‘मंगनी’ जैसे शब्द जाति के नाम नहीं हैं.
बार एंड बेंच की रिपोर्ट के मुताबिक़, ‘जस्टिस बीरेंद्र कुमार ने कहा कि इस्तेमाल किए गए शब्दों में न तो कोई जातिगत संदर्भ था और न ही ऐसा कुछ था जिससे यह संकेत मिलता हो कि लोक सेवक को उसकी जाति के आधार पर अपमानित करना चाहते थे.’
क्या है पूरा मामला?
यह मामला जनवरी 2011 की घटना से जुड़ा है. जैसलमेर के एक इलाके में हरीश चंद्र और कुछ अन्य अधिकारी सार्वजनिक भूमि पर संभावित अतिक्रमण का आकलन करने गए थे. निरीक्षण के दौरान अचल सिंह और कुछ अन्य लोगों ने कथित तौर पर अधिकारियों का काम बाधित किया और उनके साथ मौखिक रूप से दुर्व्यवहार किया यानी गालियां दी.
हिंदुस्तान टाइम्स के मुताबिक़, अधिकारियों ने पुलिस में घटना की शिकायत की और धारा 353 (लोक सेवक को कर्तव्य से विरत करने के लिए आपराधिक बल का प्रयोग), 332 (लोक सेवक को विरत करने के लिए चोट पहुंचाना) और एससी/एसटी अधिनियम, 1989 की धारा 3(1)(एक्स) के तहत आपराधिक मामला दर्ज किया गया.
हालांकि, शुरुआती जांच में पुलिस को एससी/एसटी अधिनियम के आरोपों के लिए अपर्याप्त सबूत नहीं मिले और इसी आधार पर चार्जशीट दायर की गई. लेकिन अधिकारियों ने इसके ख़िलाफ़ याचिका दायर कर दी और एससी/एसटी अधिनियम के तहत मामला चलने लगा.
अंचल सिंह और अन्य इसे ही हाईकोर्ट में चुनौती दी थी, जिसमें हालिया फैसला आया है और सभी चार आरोपियों को एससी/एसटी अधिनियम के तहत लगे आरोपों से बरी कर दिया है.
कोर्ट ने क्या कहा?
जस्टिस बीरेंद्र कुमार की बेंच अचल सिंह और अन्य की अपील पर सुनवाई कर रही थी. अपीलकर्ताओं की तरह से अधिवक्ता लीलाधर खत्री ने बहस की. वहीं राजस्थान सरकार और हरीश चंद्र की तरफ़ से सरकारी वकील सुरेंद्र बिश्नोई पेश हुए.
लीलाधर खत्री ने तर्क दिया कि कथित बयान किसी जाति से संबंधित नहीं थे और अपीलकर्ताओं को अधिकारियों की जातिगत पृष्ठभूमि के बारे में जानकारी नहीं थी. उन्होंने दावा किया कि विवाद जाति-आधारित भेदभाव से नहीं बल्कि अधिकारियों द्वारा किए गए मापों की सटीकता पर अपीलकर्ताओं की आपत्तियों से उपजा था.
जस्टिस बीरेंद्र कुमार ने इस तर्क से सहमत हुए. साथ ही कहा कि इस दावे का समर्थन करने के लिए कोई स्वतंत्र गवाह मौजूद नहीं था कि कथित घटना सार्वजनिक रूप से हुई थी.
जस्टिस बीरेंद्र ने अपने फैसले में लिखा, ‘प्रथमदृष्टया आरोप है कि याचिकाकर्ताओं ने प्रतिवादी द्वारा सार्वजनिक कर्तव्य के आधिकारिक निर्वहन में बाधा डाली और इसलिए याचिकाकर्ताओं के उस कृत्य के लिए आपराधिक मुकदमा चलाया जाएगा.’
द वायर हिंदी से बातचीत में सरकारी वकील सुरेंद्र बिश्नोई ने कहा, ‘मैंने जस्टिस बीरेंद्र कुमार को बताया कि राजस्थान में ‘भंगी’ शब्द जातिसूचक है. पूरा कोर्ट इस बात से सहमत था. लेकिन जज साहब नहीं माने. दरअसल, जज साहब बिहार के हैं.’
सरकारी वकील ने द वायर हिंदी से कहा, ‘मेरी राय में यह फैसला ठीक नहीं है. इसके खिलाफ़ अपील किया जाना चाहिए. मैं अपील करूंगा.’
वकील मानते हैं कि जिन शब्दों का इस्तेमाल हुआ है, वह जातिसूचक है और उसका इस्तेमाल लोगों को अपमानित करने के लिए भी किया जाता है.
बता दें कि इस मामले में 17 अक्टूबर को ही फैसला सुरक्षित रख लिया गया था, जिसे सुनाया 12 नवंबर को गया.