शती के अवसर पर मूर्धन्‍यों की स्मृति

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: 2024 मूर्धन्य चित्रकारों सूज़ा, रामकुमार, वासुदेव गायतोंडे और केजी सुब्रमण्यन का जन्मशती वर्ष हैं. उन्हें याद करना, उनके प्रति आलोचनात्म्क कृतज्ञता व्यक्त करना हमारी कलात्मक-नैतिक ज़िम्मेदारी है.

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वासुदेव गायतोंडे की एक कृति. (साभार: The Museum of Modern Art)

जब पिछले सप्ताह रज़ा फाउंडेशन ने चार मूर्धन्य चित्रकारों- सूज़ा, रामकुमार, वासुदेव गायतोंडे और केजी सुब्रमण्यन की संयुक्त प्रदर्शनी ‘द फोर’ उनकी जन्मशतियों पर आयोजित की, तो बहुतों को याद आया कि यह वर्ष इन चारों की जन्मशती का वर्ष है. विस्मृति की व्याप्ति सिर्फ़ साहित्य में नहीं है, वह कलाओं में भी फैल गई है. नितांत समसामयिकता का आग्रह इतना प्रबल हो गया है कि हमें याद ही नहीं आता कि आज साहित्य और कलाओं में हम जो कुछ भी कह सकने की स्वतंत्रता का उपयोग धड़ल्ले से निडर और निस्संकोच होकर करते हैं वह हमने अपने संघर्ष और प्रयत्न से नहीं पाई, उन आधुनिकों का ज़्यादातर अर्जन है जिन्हें हम याद तक करने की फुर्सत नहीं निकाल पाते.

ये चारों कलाकार उसी बिरादरी के हैं. इनमें से कम से कम दो तो दिल्ली के ही थे- राम कुमार और गायतोंडे और दोनों यहीं दिवंगत हुए.

हम जिस आधुनिक भारत में रह रहे हैं उसे गढ़ने में साहित्य और कलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. उसके संघर्ष, उसकी उत्सुकताएं और बेचैनियां, उसकी उम्मीदें और विफलताएं, उसकी जिज्ञासाएं और दिग्भ्रम, उसकी प्रश्नाकुलता और अनिश्चय, उसके सपने और मोहभंग आदि सबसे टिकाऊ और स्मरणीय ढंग से उन्हीं में चरितार्थ और दर्ज हैं.

इन चारों का भी ज़्यादातर जीवन और सृजनकाल आर्थिक और अन्य कठिनाइयों में गुज़रा. वे अपनी कला पर, फिर भी, एक तरह की दीवानगी में अडिग रहे. उन्हें याद करना, उनके प्रति आलोचनात्मक कृतज्ञता व्यक्त करना हमारी कलात्मक-नैतिक ज़िम्मेदारी है. यह खेद के साथ नोट करना पड़ता है कि सूज़ा और सुब्रमण्यन की तो प्रदर्शनियां आयोजित हुई हैं पर रामकुमार और गायतोंडे की नहीं.

सूज़ा के पास एक क़िस्म का बीहड़ कलाबोध था और उन्होंने ख़ासकर भारतीय मध्यवर्ग की बहुत पिछड़ी नैतिकता को सबसे ज़्यादा चुनौती दी. वे बेहद वाचाल-मुखर थे, विवादास्पद लेकिन निर्भीक. रामकुमार सबसे शांत और ज़्यादातर ख़ामोश. उन्होंने लैंडस्केप को अपना स्थायी विषय बनाया और उसके जितने रंगरूप उन्होंने खोजे और उसमें जो अर्थछवियां चित्रित कीं, वे बेमिसाल हैं. हिंदी कथाकार होते हुए भी वे अल्पभाषी थे.

गायतोंडे अंततः मौन, शून्य और अनुपस्थिति के चित्रकार बने- एक ऐसा चित्रकार जो अपनी कला को इतना निर्गुण कर देना चाहता रहा कि वह कुछ न कहे. कुछ नहीं कहना उनका सर्जनात्मक लक्ष्य ही बन गया. सुब्रमण्यन कलाकार-शिक्षक थे. उन्होंने कई तरह की सामग्रियों से कला निष्पन्न की. वे कुछ कहते ज़रूर हैं, पर बड़बोले नहीं हैं. शांति निकेतन की मौन साधना की प्रथा का सर्जनात्मक साक्ष्‍य.

शती के अवसर इन मूर्धन्‍यों का पुनर्मूल्यांकन करते हुए कोई पुस्तकें भी अब तक नहीं प्रकाशित नहीं हुई हैं.

क्लासिक का भारतीय भूगोल

भारत में आम तौर पर जब हम क्लासिक्स की चर्चा करते हैं तो हमारा ध्यान प्राचीन संस्कृत गौरव ग्रंथों पर केंद्रित रहता है. इस समय विस्मृति पोसने-बढ़ाने का जो सुनियोजित राजनीतिक अभियान चल रहा है, उसने इस संकीर्णता को और पुष्ट और सक्रिय कर दिया है. ऐसे में लगभग दस वर्ष पहले स्थापित मूर्ति क्लासिक लाइब्रेरी ऑफ इंडिया ने बहुत प्रभावशील ढंग से यह याद दिलाने का काम किया है कि हमने संस्कृत के बाद विकसित कई भाषाओं में क्लासिक रचे हैं.

इस सीरीज़ के अंतर्गत अब तक पचास पुस्तकें निकली हैं जो अधिकतर पश्चिमी विशेषज्ञों द्वारा किए गए अंग्रेज़ी में अनुवाद हैं. ऐसा करते हुए उसने संस्कृति की विशाल संपदा और उपस्थिति को हाशिये पर नहीं किया है: उससे भी अपेक्षाकृत अल्पज्ञात या विस्मृत ग्रंथों का अनुवाद इस सीरीज़ में शामिल है.

कवि-कलाविद् रणजीत होस्कोटे ने इन गौरवग्रंथों में से दस चुनकर उनसे कुछ अंश चुनकर एक संचयन तैयार किया है जिसे हार्वर्ड विश्वविद्यालय ने इसी सीरीज़ के अंतर्गत ‘टेन इंडियन क्लासिक्स’ के नाम से प्रकाशित किया है. संचयन में पालि, संस्कृत, कन्नड़, तेलुगु, पंजाबी, हिंदी, फ़ारसी, और उर्दू के ग्रंथ शामिल हैं: थेरीगाथा, मारवि, राघवांक, अल्लासनी पेदण्णा, गुरु नानक, सूरदास, तुलसीदास, अबुल फ़ज़ल, बुल्लेशाह और मीर तक़ी मीर. ढाई अनुवादक भारतीय हैं– वनमाला विश्वनाथ, वेलचेरू नारायण राव और शमसुर रहमान फ़ारूकी. ढाई इसलिए कि राव के साथ एक विदेशी अनुवादक भी हैं.

होस्कोटे ने अपनी भूमिका में यह स्पष्ट किया है कि भारतीय क्लासिक ग्रीक लैटिन क्लासिक से भिन्न हैं क्योंकि उनमें से अधिकांश आज भी सामूहिक सजीव परंपरा का हिस्सा हैं- उनमें से कई नृत्य, संगीत, कथावाचन, रंगमंच आदि में अब भी सजीव हैं. राज्य, राजनीति, शिक्षा-व्यवस्था इस शास्त्रीयता को भुलाने की कितनी ही कोशिश करे वह हमारे सामूहिक लोकजीवन में उपस्थित है. कई बार हमें इस उपस्थिति का आभास तक नहीं होता.

बुल्ले शाह अपने सूफ़ियाना अंदाज़ में एक उलटबांसी-सी रचते हैं जिसका अंग्रेज़ी से एक झटपटिया अनुवाद यों होगा:

क्यों पीली रेवड़ी पतासे से लड़ रही है?
तिल-लड्डू ने जलेबी पर वार कर दिया है,
कन्द चीनी से डर कर भाग गया है और
मिसरी से झगड़ रहा है. कौवे ने बाज को मारना शुरू किया है
और गधे के गाल लाल हो रहे हैं.

करोड़पति इंसाफ़ चाह रहे हैं और उन्होंने नमक पर समन जारी किए हैं.
गुलगुले ने योजना बनाकर पापड़ को घायल कर दिया है.
भेड़ों ने शेरों पर हमला कर दिया है
और उन्हें मार दिया है, भेडियों की हालत ख़राब है.
गुड़ और लड्डू नाराज़ हो गए हैं और उन्होंने
पेड़ों के खि़लाफ़ शिकायत दर्ज करायी है. चना दाल ने
बरफ़ी से कहा है ‘तू मेरी दासी है’. ख़रगोश शेरों पर हमलाकर
नाचते हुए जश्न मना रहे हैं.

बल्ले शाह अब क्या कहें? हर कोई झगड़ रहा है…

गुम लेखन

फ्रांज़ काफ़्का की बहुत सारी रचनाओं के बारे में यह सही है कि वे आधी-अधूरी हैं. उनके लिखे हुए और अब तक गुम आधे अधूरे हिस्से मिले हैं और पहली बार अंग्रेज़ी अनुवाद में ‘द लास्ट राइटिंग्ज़’ के नाम से हाल ही प्रकाशित हुए हैं. उसमें शामिल एक हिस्सा है:

‘तुम कभी पानी नहीं खींचते
इस कुएं की गहराई से?’

‘क्या पानी? कौन सा कुआं?
‘कौन पूछ रहा है?’

ख़ामोशी
‘क्या ख़ामोशी?’

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)