नई दिल्ली: चुनाव की दहलीज़ पर खड़े महाराष्ट्र में सियासी तपिश चरम पर है. पिछले पांच साल में महाराष्ट्र को कई राजनीतिक झंझावात झेलने पड़े हैं. राज्य के दो प्रमुख दल विभाजित हो चुके हैं. नए नाम और निशान के साथ पुराने नेता मैदान में हैं. सत्ता की होड़ में विचारधाराओं का भेद मिट चुका है.
इसके बीच चुनाव से ठीक पहले उद्योगपति गौतम अडानी का चुनावी समर में प्रवेश हो चुका है. कद्दावर नेता बयान दे रहे हैं कि किस तरह कुछ बरस पहले महाराष्ट्र के राजनीतिक गणित को सुलझाने के लिए दिल्ली में अडानी के घर बैठक हुई थी, जिसमें गृहमंत्री अमित शाह भी शामिल थे.
महाराष्ट्र के मतदाताओं को राज्य की उलझ चुकी राजनीति को समझते हुए 20 नवंबर को मतदान करना है. परिणाम 23 नवंबर को घोषित होंगे.
कौन किसके साथ?
महाराष्ट्र में विधानसभा की 288 सीटें हैं, इनमें से 16 अनुसूचित जाति और 8 अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं. शेष 264 सीटें अनारक्षित हैं.
राज्य में मुख्य मुकाबला भारतीय जनता पार्टी, शिवसेना (शिंदे गुट) और अजित पवार द्वारा गठित महायुति गठबंधन और महा विकास अघाड़ी (एमवीए) के बीच है, जिसमें उद्धव ठाकरे की शिवसेना (यूबीटी), कांग्रेस और एनसीपी (शरद पवार गुट) शामिल हैं.
अजित पवार के नेतृत्व वाली एनसीपी का भाजपा के साथ जाना, चुनावी गणित को जटिल बना रहा है.
कौन कितनी सीटों पर लड़ रहा है?
सबसे ज्यादा सीटों पर भाजपा (152) और कांग्रेस (101) ने उम्मीदवार उतारे हैं. मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे की अगुआई वाली शिवसेना 80 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. महायुति के तीसरे प्रमुख घटक उपमुख्यमंत्री अजीत पवार की अगुआई वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) 52 सीटों पर मैदान में हैं.
एमवीए की बात करें तो उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना-यूबीटी 96 सीटों पर चुनाव लड़ रही है और शरद पवार के नेतृत्व वाली एनसीपी-एसपी 87 सीटों पर मुकाबला कर रही है.
महायुति और एमवीए दोनों ने अपने छोटे सहयोगियों के लिए चार-चार सीटें छोड़ी हैं.
एमवीए ने समाजवादी पार्टी के लिए दो सीटें (भिवंडी ईस्ट और मानखुर्द-शिवाजीनगर) और सीपीएम के लिए दो सीटें (दहानू और कलवन) छोड़ी है. सीपीएम के लिए छोड़ी गई दोनों सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं.
शिवसेना की परीक्षा
संयुक्त शिवसेना ने अपनी पार्टी के 58 साल के इतिहास में कई बड़े नेताओं को दल छोड़कर जाते देखा है, लेकिन 2022 में एकनाथ शिंदे का विद्रोह सबसे घातक साबित हुआ.
शिंदे न केवल 40 विधायकों और 13 सांसदों के साथ गए, बल्कि उनके गुट ने शिवसेना नाम का उपयोग करने के लिए चुनाव आयोग की मंजूरी भी हासिल कर ली और उन्हें पार्टी का चुनाव चिह्न धनुष-बाण भी मिल गया.
इस चुनाव के परिणाम से शायद ‘असली शिवसेना’ की परिभाषा भी स्पष्ट हो जाए, क्योंकि दोनों (एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली शिवसेना और उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना) ही प्रामाणिक होने का दावा करते हैं.
क्या हैं मुद्दे?
मराठा आरक्षण, गांवों की बेहाल अर्थव्यवस्था, कृषि संकट, शहरी विकास आदि महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के प्रमुख मुद्दे माने जा हैं.
इसके अलावा लोकनीति-सीएसडीएस द्वारा किए गए एक चुनाव-पूर्व सर्वेक्षण से पता चला कि महाराष्ट्र में हर चार में से एक मतदाता के लिए नौकरी सबसे बड़ी चिंता थी.
इसे भांपते हुए दोनों गठबंधनों ने युवाओं को रोजगार देने का वादा किया है. महायुति ने जहां 25 लाख नौकरियां देने का सपना दिखाया है. वहीं महा विकास अघाड़ी ने 100 दिनों के भीतर महाराष्ट्र सरकार में 250,000 रिक्त पड़े पदों को भरने और पांच साल में 12.5 लाख नौकरियां सृजित करने का वादा किया है.
मराठा आरक्षण
इस चुनाव का एक प्रमुख मुकाबला मराठवाड़ा क्षेत्र में देखने को मिल सकता है. मराठवाड़ा में मराठों की महत्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति है. उनकी मांग है कि उन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में शामिल किया जाए ताकि आरक्षण का लाभ मिल सके.
मराठवाड़ा की 46 विधानसभा सीटों में से भाजपा 20 पर चुनाव लड़ रही है, जबकि शिंदे के नेतृत्व वाली शिवसेना 16 सीटों पर चुनाव लड़ रही है. इस क्षेत्र में मुस्लिम आबादी भी अच्छी खासी है, जो कुल मतदाताओं का लगभग 15 प्रतिशत है.
विपक्षी गठबंधन एमवीए ने वादा किया है कि अगर वे सत्ता में आते हैं तो जाति आधारित जनगणना कराएंगे और आरक्षण पर 50 प्रतिशत की सीमा हटा देंगे. इससे मराठा आरक्षण का रास्ता खुल सकता है. इस तरह एमवीए विभिन्न हाशियाग्रस्त समुदायों के बीच अपनी पकड़ बनाना चाह रहा है.
जबकि सीएम शिंदे ने मराठा आरक्षण के मुद्दे को ‘राजनीतिक हथियार’ के रूप में इस्तेमाल करने के लिए विपक्ष की आलोचना की है. उनका कहना है कि उनकी सरकार ने मराठा आरक्षण देने का प्रयास किया, जबकि विपक्षी दलों ने सिर्फ वादा किया है.
हालांकि, इस चुनाव में किसी भी पार्टी ने स्पष्ट रूप से मराठा आरक्षण लागू करने का वादा नहीं किया है.
मराठा आरक्षण आंदोलन का चेहरा बन चुके मनोज जरांगे-पाटिल ने घोषणा की है कि जो पार्टी आरक्षण का वादा नहीं करेगी उसे सत्ता में नहीं आने देंगे. ‘पार्टियों को मराठा आरक्षण का वादा करना होगा. अगर वे मतदान के दिन तक ऐसा नहीं करते हैं, तो हम उन्हें सत्ता में नहीं आने देंगे,’ वे कहते हैं.
मनोज जरांगे-पाटिल मूल रूप से बीड के रहने वाले हैं, लेकिन उनका कर्म क्षेत्र जालना जिला रहा है. मराठा समुदाय के लिए आरक्षण की मांग पाटिल ने 2014 से ही शुरू कर दी थी, तब भी उन्होंने अपनी की मांग को लेकर कई भूख हड़तालें और मार्च किए हैं. लेकिन उनके ज़्यादातर विरोध प्रदर्शनों को जालना जिले से आगे कोई खास समर्थन नहीं मिला. लेकिन 2023 के आंदोलन और उस दौरान भड़की हिंसा ने पाटिल को न सिर्फ राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिला दी, बल्कि मराठा आरक्षण के संघर्ष के प्रतीक भी बना दिया.
कृषि संकट
महाराष्ट्र की ग्रामीण अर्थव्यवस्था कई वर्षों से चरमरा रही है. किसानों के आत्महत्याओं की खबरें आती रहती हैं. कई इलाकों में लंबे समय से विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं. ऐसे में विपक्ष नए वादों के साथ किसानों को अपनी तरफ़ लाने की कोशिश कर रहा है.
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने राज्य के सोया किसानों के लिए 7,000 रुपये प्रति क्विंटल एमएसपी का वादा किया है. गांधी ने प्याज का उचित मूल्य निर्धारित करने के लिए एक समिति बनाने का भी वादा किया है.
इससे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोयाबीन के लिए 6,000 रुपये प्रति क्विंटल एमएसपी की घोषणा की थी.
सांप्रदायिक राजनीति और प्रतिनिधित्व तलाशता मुस्लिम
‘एक हैं तो सेफ हैं’, ‘बटेंगे तो कटेंगे’ जैसे जुमलों के साथ सत्ताधारी भाजपा महाराष्ट्र में स्पष्ट रूप से सांप्रदायिक राजनीति कर रही है. इन जुमलों से भाजपा मुसलमानों का भय दिखाकर हिंदू वोट जुटाने की कोशिश कर रही है.
17 नवंबर को महाराष्ट्र में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा था, ‘जब मैं कहता हूं कि ‘बंटोगे तो कटोगे’ तो खरगे जी को बुरा लगने लगता है.’
योगी आदित्यनाथ ने इसके साथ रजाकार का भी उल्लेख किया. ‘निजाम का रजाकार वही कट्टरपंथी मुस्लिम हैं, जो आज भी कहीं गणपति महोत्सव पर, तो कहीं राम नवमी की शोभा यात्रा पर, हमारे आस्था और सम्मान के प्रतिक विशालगढ़ जैसे किलों पर कब्जा कर के भारत को अपमानित करने का कार्य कर रहे हैं.’
जबकि मुसलमानों की राजनीतिक स्थिति इन भड़काऊ नारों के विपरीत है. बीते लोकसभा चुनाव में भाजपा और इसके सहयोगियों ने एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया था. हालात कांग्रेस और उसके गठबंधन सहयोगियों ने भी किसी मुस्लिम नेता को मैदान में नहीं उतारा था.
साल 2011 की जनगणना के मुताबिक़, राज्य में मुसलमानों की आबादी 11.5 फीसदी है. पिछले चुनाव में सिर्फ 10 मुस्लिम विधायक चुने गए थे, यानी कुल विधायकों में मुस्लिम विधायकों का प्रतिशत मात्र 3.47 था.
एक रिपोर्ट के मुताबिक, इस विधानसभा चुनाव में कुल उम्मीदवारों में अल्पसंख्यक उम्मीदवारों की संख्या मात्र 10 प्रतिशत है यानी कुल 4,136 उम्मीदवारों में से सिर्फ 420 अल्पसंख्यक हैं, जिनमें से आधे निर्दलीय खड़े हो रहे हैं.
कुल 420 मुस्लिम उम्मीदवारों में से 218 निर्दलीय हैं. कांग्रेस ने नौ मुस्लिम उम्मीदवार उतारे हैं जबकि भाजपा ने एक भी मुस्लिम को टिकट नहीं दिया है. भाजपा के सहयोगी एनसीपी (अजित पवार) ने पांच मुसलमानों को टिकट दिया है. प्रमुख दलों में मुस्लिमों को सबसे अधिक टिकट (16) असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम ने दिया है. करीब डेढ़ सौ मुसलमान उम्मीदवार छोटी पार्टियों ने खड़े किए हैं. यानी प्रमुख दलों के भीतर मुसलमान की भागेदारी नगण्य है.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तैयारी
इंडियन एक्सप्रेस ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि किस तरह संघ इस चुनाव में भाजपा के लिए सार्वजनिक सम्मेलन आदि न कर घर-घर अभियान चला रहा है.
‘जमीन पर आरएसएस की मौजूदगी स्पष्ट नहीं है. न तो पोस्टर हैं और न ही स्वयंसेवकों का समूह अपना पारंपरिक ‘गणवेश’ पहने भाजपा के लिए प्रचार कर रहा है. लेकिन, भाजपा और संघ के अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि स्वयंसेवक राज्य भर में घर-घर जाकर मतदाताओं को सत्तारूढ़ महायुति गठबंधन का समर्थन करने के लिए मना रहे हैं.’
चुनाव में अडानी की एंट्री
इसी बीच, सोमवार (18 नवंबर) को राहुल गांधी ने कहा राज्य में मुकाबला करोड़पतियों और गरीबों के बीच है. ‘एक करोड़पति को 1 लाख करोड़ चाहिए. हमें लगता है कि महाराष्ट्र के युवाओं और गरीबों को मदद की ज़रूरत है.’
राहुल गांधी ने प्रेस कॉन्फ़्रेंस में धारावी के नक्शे के साथ गौतम अडानी और नरेंद्र मोदी की तस्वीर दिखाते हुए कहा, ‘मोदी जब कहते हैं, एक हैं तो सेफ हैं, तो उनका यही मतलब होता है.’
Safe कौन है?
अडानी1 लाख करोड़ रुपए की धारावी की ज़मीन किसे मिली?
अडानी कोUnsafe कौन है?
महाराष्ट्र की आम जनता, महिलाएं, किसान, युवा और बहुजनमहंगाई, बेरोज़गारी, क़र्ज़ का बोझ और तरह-तरह की तकलीफ़ आम लोग एवं किसान झेल रहे हैं और मोदी सरकार एवं महाराष्ट्र की महायुति सरकार… pic.twitter.com/bRLYBGYUd2
— Rahul Gandhi (@RahulGandhi) November 18, 2024
कांग्रेस का आरोप है कि भाजपा अडानी समूह के लाभ के लिए धारावी में बड़े पैमाने पर ज़मीन हड़प रही है. राहुल गांधी का यह भी आरोप है कि भाजपा ने अडानी की मदद करने के लिए महाराष्ट्र में कांग्रेस की सरकार गिराई थी.
कुछ दिन पहले द न्यूज मिनट और न्यूज़लॉन्ड्री को दिए इंटरव्यू में अजित पवार ने कहा था, ‘उस बात को पांच साल हो गए. सबको मालूम है कि कहां मीटिंग हुई. दिल्ली में किस उद्योगपति के घर में मीटिंग हुई थी. उस मीटिंग में अमित शाह थे, गौतम अडानी थे, प्रफुल्ल पटेल थे, देवेंद्र फडणवीस, अजित पवार थे, पवार साहब (शरद पवार) थे.’
अजित पवार के मुताबिक़, यह बैठक 2019 के विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के बाद हुई थी, जिसका मकसद भाजपा को समर्थन देने की संभावनाओं पर विचार करना था.
अजित पवार के इंटरव्यू के बाद कांग्रेस के मीडिया विभाग के अध्यक्ष पवन खेड़ा ने एक्स पर लिखा था, ‘जब आप सोचते हैं कि मोदी और अडानी के बीच इस गठजोड़ के बारे में इससे ज़्यादा चौंकाने वाली कोई बात नहीं हो सकती तो बेशर्मी का एक नया उदाहरण सामने आता है. एक व्यापारी को आधिकारिक तौर पर सरकारों को गिराने के लिए बातचीत का हिस्सा बनने की अनुमति कैसे दी जा सकती है?’
जब अजित ने देखा कि उनके बयान से राजनीतिक बवंडर खड़ा हो गया है और हर मंच से अडानी का नाम उछाला जाने लगा तो वह यह कह अपने बयान से पलट गए कि ‘मैंने कहा था कि वह (गौतम अडानी) वहां नहीं थे. …एक राज्य की सरकार बनाने में उद्योगपति का क्या काम. कभी-कभी हम इतने व्यस्त होते हैं और गलती से मैंने एक बयान दे दिया…’
हालांकि, अजित के पलटने से पहले ही शरद पवार ने अडानी के यहां हुई बैठक की पुष्टि कर दी थी.
द न्यूज मिनट और न्यूज़लॉन्ड्री से ही बातचीत में शरद पवार ने कहा है कि दावत अडानी के दिल्ली स्थित आवास पर हुई थी. शरद पवार ने बताया कि उनके अलावा अजित पवार, अमित शाह और गौतम अडानी मौजूद थे लेकिन अडानी ने राजनीतिक चर्चा में भाग नहीं लिया था.
इस मामले में भाजपा की तरफ से देवेंद्र फडणवीस का बयान आया है, उन्होंने आज तक से बातचीत में कहा है, ‘देखिए, बैठक हुई थी. शरद पवार, अजित पवार, (केंद्रीय गृह मंत्री) अमित शाह और मैं वहां थे. लेकिन गौतम अडानी वहां नहीं थे.’
सिर्फ सत्ता की लड़ाई नहीं
महाराष्ट्र चुनाव 2024 केवल सत्ता की लड़ाई नहीं है, बल्कि यह राज्य के राजनीतिक भविष्य की दिशा तय करेगा. महाराष्ट्र देश का अत्यंत प्रमुख राज्य है. बंबई देश की वित्तीय राजधानी है. बुरी तरह से विभाजित राजनीति किस समाज का प्रतिनिधित्व करेगी और उसे क्या दिशा देगी, इसकी कल्पना की जा सकती है.