कुछ बरस पहले की बात है. मेरे पास किसी ‘वर्ल्ड ब्राह्मण काउंसिल’ से ईमेल आने लगे. साल भूल रहा हूं लेकिन महीना दिसंबर का था. किन्हीं शुक्लाजी का फोन आया. वे जनवरी के शुरू में दिल्ली में ‘रन फॉर वेदाज़’ करना चाहते थे: वेदों के लिए दौड़ो. मैंने जानना चाहा कि इस दौड़ का मक़सद क्या है. उन्होंने बतलाया कि वेदों को लेकर तरह तरह की भ्रांतियां हैं और लोगों को उनके बारे में जानने नहीं दिया जा रहा है. यह दौड़ वेदों के प्रति जागरूकता पैदा करने का एक प्रयास है. मैंने पूछा कि कौन वेदों के बारे में ग़लतफ़हमी फैला रहा है या उसे जानने के रास्ते में रोड़े अटका रहा है. मेरे बहुत कोंचने पर उन्होंने कहा: रोमिला थापर.
सुनकर मैं चकित हुआ. पूछा कि वे ऐसा कैसे कर सकती हैं? वे तो अंग्रेज़ी में लिखती हैं जिसे समझना उन सभी के बस की बात भी नहीं जो अंग्रेज़ी जानते हैं. उनके पास ऐसी ताक़त नहीं कि वे साधारण लोगों को वेद पढ़ने से मना कर सकें. वे घूम-घूमकर वेदों के बारे में दुष्प्रचार करते हुए सभाएं नहीं करतीं. लेकिन शुक्लाजी को इसे लेकर कोई दुविधा नहीं थी कि रोमिला थापर ही वेदों को लेकर सामान्यजन में उदासीनता या विरक्ति के लिए जवाबदेह हैं.
पिछले साल रोमिला थापर की एक किताब के बांग्ला अनुवाद के लोकार्पण के मौक़े पर कोलकाता की एक गोष्ठी में किसी ने बतलाया कि पिछले विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के प्रचार अभियान में रोमिला थापर का नाम भी आया. एक तुकबंदी चलाई गई जिसका आशय यह था कि उन्होंने तुम्हें नहीं जानने दिया अपना आरसी मजूमदार, पढ़ाया सिर्फ़ रोमिला थापर. हमने रोमिलाजी को बधाई दी कि उनके नाम पर, भले ही उनका विरोध करते हुए, एक इतनी बड़ी पार्टी वोट मांग रही है. चुनाव में इतिहासकार या इतिहास लेखन एक मुद्दा बने, यह अपने आप में बड़ी चीज़ है.
एक साल पहले इंडिया इंटरनेशनल सेंटर ने रोमिला थापर का एक व्याख्यान रखा गया. मालूम हुआ कि पूरे देश से उसके आयोजन के ख़िलाफ़ 1,000 से ज़्यादा ख़त भेजे गए. आयोजकों को सुरक्षा का इंतज़ाम करना पड़ा. एक बार रोमिलाजी ने ही अफ़सोस ज़ाहिर किया था कि मुंबई में उनके व्याख्यान के वक्त हॉल के बाहर पुलिस लगानी पड़ी थी.
कुछ वर्ष पहले एक अंग्रेज़ी अख़बार की एक स्तंभकार ने लिखा था कि भारत के लोगों को रोमिला थापर जैसी इतिहासकारों ने सच नहीं जानने दिया है. उनकी नाराज़गी यह थी कि रोमिला थापर ने महमूद गजनवी के बारे में यह नहीं लिखा कि उसने सोमनाथ का मंदिर तोड़ा था. यह साफ़ है कि उन्होंने रोमिला थापर की किताब ‘सोमनाथ’ भी नहीं पढ़ी थी लेकिन वे रोमिला से नाराज़ होने का अधिकार रखती हैं.
इन क़िस्सों से मालूम होता है कि रोमिला थापर लोकप्रिय हैं. हालांकि वे शायद ऐसी लोकप्रियता नहीं चाहती होंगी. वे संभवतः यह भी नहीं चाहती होंगी कि वे लोकप्रिय हों. उनकी इच्छा शायद यही होगी कि उन्होंने जो लिखा है वह अधिक जाना जाए.
लेकिन यह तो स्पष्ट है कि उन्हें पढ़ा नहीं जाता. उनकी छवि ऐसी इतिहासकार की बनाई गई है जो हिंदू विरोधी हैं और जिन्होंने इतिहास को विकृत किया है. अगर हज़ारों लोग इसमें विश्वास करते हैं तो इसलिए नहीं कि उन्होंने रोमिला थापर को पढ़कर यह राय बनाई है. बल्कि इसलिए कि उनके भीतर एक क्रोध उत्पन्न किया गया है कि हिंदुओं को उनका असली इतिहास जानने नहीं दिया गया. तो रोमिला को प्रतिकूल लोकप्रियता मिली है. उनकी किताबों को नहीं. रोमिला थापर लोकप्रिय हैं, उनका लिखा इतिहास नहीं.
1977 के समय सबसे लोकप्रिय नाम रामशरण शर्मा का था. प्राचीन इतिहास पर उनकी किताब की प्रतियां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग जला रहे थे. जलाने के लिए उस किताब को पढ़ना ज़रूरी न था. रामशरण शर्मा लोकप्रिय थे लेकिन उनका लिखा इतिहास नहीं. उसी तरह डीएन झा लोकप्रिय हैं लेकिन उनकी किताबें कितनी पढ़ी जाती हैं, यह कहना मुश्किल है.
यह भी ध्यान देने की बात है कि ये सभी अकादमिक इतिहासकार हैं. इन्होंने जो भी लिखा है वह शुष्क अकादमिक भाषा में लिखा है. फिर भी ये नाम लाखों लोग जानते हैं.
इनसे अलग नाम है गोविंद पानसारे का. वे कोई पेशेवर इतिहासकार न थे. लेकिन उनकी मराठी में लिखी किताब ‘शिवाजी कौन थे’ अत्यंत लोकप्रिय थी. इस लोकप्रियता की क़ीमत उन्हें अपनी जान देकर चुकानी पड़ी. लेकिन क्या उन्हें जिन लोगों ने मारा उन्होंने उनकी किताब पढ़ी थी?
यह सब कुछ ध्यान में आया जब अंग्रेज़ी के अख़बारों और मंचों पर इतिहास लेखन को लेकर थोड़ी हलचल देखी. वह पैदा हुई इतिहासकार विलियम डेलरिंपल के एक वक्तव्य से. ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के साथ इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि अगर भारत में भ्रामक इतिहास लोकप्रिय है तो इसके लिए पेशेवर इतिहासकार भी कुछ ज़िम्मेदार हैं क्योंकि उन्होंने आसान ज़बान में दिलचस्प तरीक़े से इतिहास नहीं लिखा. या किसी ने लोकप्रिय भाषा में प्रामाणिक इतिहास नहीं लिखा. चूंकि वह इतिहास लोक या जन भाषा में मौजूद नहीं था, इतिहास का वॉट्सऐप संस्करण लोकप्रिय हो गया.
जब वॉट्सऐप नहीं था तब भी इतिहास की वही समझ लोकप्रिय थी जो वॉट्सऐप के माध्यम से प्रसारित की जा रही है. वह समझ किस प्रकार बन रही थी? क्या पढ़कर या सुनकर बन रही थी? क्या आज वह समझ इतिहास की किताब पढ़कर बन रही है? या प्रामाणिक इतिहास लिखनेवालों ने लोकप्रिय भाषा में नहीं लिखा इस वजह से? कौन लोग थे जो लोकप्रिय इतिहास लिख रहे थे जिसे लोगों ने अपना लिया?
अगर इन प्रश्नों पर विचार करें तो हमें समझ में आता है कि मसला प्रामाणिक इतिहासकारों के लोकप्रिय भाषा में लिखने या न लिखने का उतना नहीं है. मसला अपने इतिहास के चुनाव का है और उससे भी अधिक इतिहास बोध का है. लोग शायद प्रामाणिक इतिहास नहीं चाहते हैं. वे वह इतिहास चाहते हैं जो उन्हें अच्छा लगे. उनके अनुकूल हो. इतिहास का अच्छा लगना, न लगना वर्तमान के प्रति उनके रवैये पर निर्भर है.
पीछे की बात छोड़ भी दें, तो पिछले 30 साल से ख़ुद विलियम डेलरिंपल लोकप्रिय इतिहास लिख रहे हैं. लेकिन इन्हीं 30 वर्षों में जिन विषयों या व्यक्तित्वों पर वे लिख रहे हैं या उन जैसे और लोकप्रिय इतिहासकार लिख रहे हैं उनके बारे में क्या उनकी व्याख्या लोकप्रिय है या वह व्याख्या जिसे वे वॉट्सऐप इतिहास की व्याख्या कहते हैं?
जब हम भारत में लोकप्रियता की बात करेंगे तो वह अनिवार्यतः हिंदू संख्या पर निर्भर होगी. इसलिए हम अभी हिंदुओं के भीतर की ऐतिहासिक समझ की बात करेंगे. हिंदुओं के बीच इतिहास कैसे पहुंचता रहा है? इतिहास की स्कूली पाठ्यपुस्तकों के ज़रिये? या किसी और माध्यम से?
लोकगीतों, लोकगाथाओं को न भूलें. फिल्में इतिहास निर्माण और शिक्षा की प्रभावी माध्यम हैं. वी धारावाहिक को भी जोड़ लें. उनमें भी इतिहास रचा जा रहा है. कहानी, उपन्यास भी इतिहास के माध्यम हैं. हिंदी में ही तक़रीबन सभी महत्त्वपूर्ण लेखक किसी न किसी तरह इतिहास लिख रहे थे. यही बात मराठी, बांग्ला, कन्नड़ और दूसरी भाषाओं के बारे में कही जा सकती है. ऐतिहासिक उपन्यास एक अलग धारा ही है जो पाठकों में सबसे अधिक लोकप्रिय मालूम पड़ती है.
समाज इन माध्यमों से इतिहास का ज्ञान या समझ ग्रहण करता है. ये हमारे पूर्वाग्रहों से प्रेरित होते हैं या उनका निर्माण करते हैं. सुभद्रा कुमारी चौहान की ‘झांसी की रानी’ किसी भी इतिहासकार की झांसी की रानी से अधिक ताकतवर हैं. उसी तरह अमृतलाल नागर के तुलसीदास ही हिंदीवालों की चेतना में बसे हुए हैं. वृंदावनलाल वर्मा को तो उनके ऐतिहासिक उपन्यासों के चलते जाना जाता है. जयशंकर प्रसाद के चंद्रगुप्त और स्कंदगुप्त ने कई पीढ़ियों की इतिहास चेतना का निर्माण किया है. संस्कृत की कक्षाओं में भी इतिहास की शिक्षा दी जाती है.
इतिहास मात्र व्यक्तियों का तो नहीं. भाषाओं और संस्कृतियों का भी है. हिंदी का इतिहास क्या है या उर्दू का? संस्कृत का?
इनके अलावा इतिहास शिक्षा का एक बड़ा माध्यम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाएं, उसके बौद्धिक सत्र और विद्या भारती, सरस्वती शिशु मंदिर के हज़ारों स्कूल हैं. मात्र वहां की किताबें नहीं, उन संस्थानों में होने वाले कार्यक्रम, भाषण: सबके माध्यम से इतिहास की शिक्षा दी जाती है. आर्य समाज की संस्थाओं और आरएसएस की सैकड़ों संस्थाओं के माध्यम से जो इतिहास पिछले 100 साल से प्रसारित किया जा रहा है, उसे माननेवाले किसी भी दूसरे इतिहास को सुनने को भी तैयार होंगे, इसमें शक है.
सरकारी स्कूलों में जो इतिहास पढ़ाया जाता रहा है, वह प्रायः ग़ैर सांप्रदायिक रहा है. फिर क्यों इन स्कूलों में पढ़ने और पढ़ानेवाले भी प्रायः सांप्रदायिक इतिहास को स्वीकार करते हैं?
मैंने स्कूली अध्यापकों के साथ बातचीत में जानना चाहा कि महात्मा गांधी के बारे में उन्होंने कैसे जाना. गांधी के बारे में इन सबकी कोई न कोई राय थी. लेकिन अधिकतर के पास उसके लिए कोई आधार न था. बहुत कम ने गांधी फिल्म भी देखी थी. लेकिन गांधी के बारे में उनकी राय पक्की थी. या नेहरू अथवा पटेल या सुभाष बोस के बारे में भी उनकी निश्चित राय है. उसके लिए किसी किताब की ज़रूरत नहीं.
इसका कारण बहुत स्पष्ट है. अपने बारे में और आज के बारे में हमारी अपनी समझ हमारी इतिहास की समझ बनाती है. चूंकि हिंदुओं में मुसलमानों के प्रति पूर्वाग्रह है, वे इसे अतीत के ज़रिये वैध साबित करना चाहते हैं. हिंदू सबसे श्रेष्ठ हैं तो अतीत के उदाहरणों से भी इसे साबित किया जाना ज़रूरी होगा.
भारत हिंदुओं का है इसलिए भारत को ही हिंदुओं की उद्गम भूमि होना ज़रूरी है. मुसलमान चतुर, क्रूर होते हैं तो इतिहास भी इसे साबित करेगा. हिंदुओं में कोई भेदभाव नहीं था, वह मुसलमानों की साज़िश का नतीजा है तो इतिहास से इसे साबित किया जाएगा.
हमारे अपने आग्रह हमारा इतिहास भी बनाते हैं. उन्हें चुनौती देने देनेवाले इतिहास को, वह कितना ही लोकप्रिय क्यों न हो, स्वीकार करना बहुत कठिन है. बल्कि वह प्रतिक्रिया पैदा करता है.
पिछले दस सालों से हमें लगने लगा है कि हमने चूंकि इतिहास का ज्ञान प्रसार नहीं किया, मिथ्या इतिहास ने उसकी जगह ले ली है. लेकिन हम भूल जाते हैं कि जवाहरलाल नेहरू की ‘भारत की खोज’,‘मेरी कहानी’, ‘विश्व इतिहास की झलक’ जैसी किताबों ने कम से कम 3 पीढ़ियों की इतिहास की समझ विकसित की. हिंदीवालों ने रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की किताब ‘संस्कृति के चार अध्याय’ के माध्यम से इतिहास को समझा. इनका अनुवाद कई भाषाओं में हुआ. ये किताबें वास्तव में बहुत लोकप्रिय थीं.
जब टेलीविज़न आया तो ‘भारत की खोज’ और भारत में विज्ञान के इतिहास पर आधारित ‘भारत की छाप’ जैसे धारावाहिक बहुत लोकप्रिय हुए. पेशेवर इतिहासकार इनमें कई कमियां देखते हैं और वे सही हैं. लेकिन उन कमियों के बावजूद ये किताबें हमें ऐसा इतिहास दे रही थीं जिसके आधार पर सौहार्दपूर्ण वर्तमान की इमारत खड़ी की जा सकती थी. फिर आज इतिहास की ये लोकप्रिय किताबें क्यों कारगर नहीं रह गई हैं?
हम दूर के इतिहास को छोड़ दें, क़रीब के इतिहास की कौन-सी समझ लोकप्रिय है? प्राचीन और मध्यकालीन इतिहास हो सकता है रूखा लिखा गया हो, स्वाधीनता आंदोलन, गांधी, नेहरू, भगत सिंह आदि की कहानियां तो लिखी ही गई हैं? लेकिन इनमें से कौन-सी कहानी अधिक लोकप्रिय है?
इसलिए समस्या आसान और दिलचस्प इतिहास के अभाव की नहीं है.
जब हम यह कह रहे हैं तो इससे इनकार नहीं कर रहे कि इतिहास दिलचस्प तरीक़े से लिखा जाना चाहिए. लेकिन इतिहास की हिंदुत्ववादी व्याख्या के लोकप्रिय होने का कारण यह नहीं है कि दिलचस्प तरीक़े से इतिहास नहीं लिखा गया है. उसका कारण कुछ और है.
हिंदुत्ववादी राजनीति के उभार और प्रभुत्व ने उस इतिहास को अलोकप्रिय कर दिया है जो कल तक लोकप्रिय था. इसलिए इतिहास की समस्या का समाधान इतिहास के द्वारा नहीं राजनीति से ही दिया जा सकता है.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)