झारखंडियत के सामने भाजपा की सांप्रदायिकता व विभाजनकारी राजनीति फेल

इंडिया गठबंधन ने झारखंड की 81 सीटों की विधानसभा में कुल 56 सीटें जीती हैं. यह परिणाम महज़ एक पार्टी की हार और दूसरी की जीत तक सीमित नहीं है. यह जनादेश देश में बढ़ती तानाशाही, हिंदुत्व की राजनीति और जन अधिकारों को कमज़ोर करने वाले कॉर्पोरेट नीतियों के विरुद्ध एक संदेश है.

जीत के बाद हेमंत सोरेन और उनकी पत्नी कल्पना सोरेन. (फोटो साभार: एक्स/@JMMKalpanaSoren)

अधिकांश एग्जिट पोल आंकड़ों को गलत साबित करते हुए झारखंड विधानसभा चुनाव में झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) के नेतृत्व में इंडिया गठबंधन ने बड़ी जीत दर्ज की है. मुख्यधारा मीडिया, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के बयानों और इनसे जुड़े डिजिटल प्रचार तंत्र पर निर्भर रहने वालों के लिए यह नतीजा चौंकाने वाला हो सकता है, लेकिन इंडिया गठबंधन की जीत की सुगबुगाहट स्पष्ट थी. क्षेत्रीय पार्टी के नेतृत्व में गठबंधन ने स्थानीय मुद्दों पर अभियान चलाया जिसका असर ज़मीनी स्तर पर दिख रहा था.

इंडिया गठबंधन ने झारखंड की 81 सीटों की विधानसभा में कुल 56 सीटें जीती हैं (झामुमो – 34, कांग्रेस – 16, राष्ट्रीय जनता दल (राजद) – 4, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा (माले) लिबरेशन – 2)). दूसरी ओर, भाजपा ने 21 व उसकी सहयोगियों ने 3 (ऑल झारखण्ड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) पार्टी – 1, जनता दल (यूनाइटेड) (जदयू) – 1, लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा(रप)) – 1) सीटें जीती. 2019 की तुलना में झामुमो-कांग्रेस-राजद गठबंधन ने 9 सीटें ज़्यादा जीती और भाजपा-आजसू गठबंधन ने 7 सीटें कम. झामुमो 2019 के पहले हमेशा 17-18 सीटों तक ही सीमित रहती थी. इस बार इंडिया को कुल 44.23% वोट मिले और एनडीए को 38.14%.

यह परिणाम महज़ एक पार्टी की हार और दूसरी की जीत नहीं है. यह जनादेश देश में बढ़ती तानाशाही, हिंदुत्व की राजनीति और जन अधिकारों को कमज़ोर करने वाले कॉर्पोरेट नीतियों के विरुद्ध एक संदेश है.

भाजपा के चुनावी अभियान में एक प्रमुख मुद्दा था संथाल परगना में बांग्लादेशी घुसपैठियों के घुसने व बसने का आरोप. बांग्लादेशी घुसपैठिए के नाम पर भाजपा ने राज्य में मुसलमानों के विरुद्ध आदिवासियों और हिन्दू समुदाय के धार्मिक ध्रुवीकरण की व्यापक कोशिश की. नरेंद्र मोदी, अमित शाह, योगी आदित्यनाथ, हिमंत बिस्वा सरमा समेत अनेक भाजपा नेताओं ने सांप्रदायिक भाषण दिए. चुनाव आयोग मूकदर्शक बना रहा. आदिवासियों व अन्य झारखंडी समुदायों ने इस राजनीति को एक सिरे से ख़ारिज किया. संथाल परगना, जहां भाजपा ने बांग्लादेशी घुसपैठ का हौवा सबसे ज़्यादा बनाया, वहां एनडीए गठबंधन को 18 में से मात्र 1 सीट मिली.

जहां एक ओर यह जनमत भाजपा के सांप्रदायिक चुनावी अभियान के विरुद्ध है, वहीं दूसरी ओर विभिन्न समुदायों के मतदाताओं ने हेमंत सोरेन सरकार के प्रमुख कल्याणकारी कदमों, जैसे मईया सम्मान योजना, सामाजिक सुरक्षा पेंशन, लंबित बिजली बिल व कृषि ऋण माफ़ी आदि का समर्थन किया. इस चुनाव में पुरुषों (65.06%) की तुलना में महिलाओं (70.46%) ने अधिक वोट दिया. यह रुझान वर्षों से धीरे-धीरे बढ़ रहा है. अनेक सीटों पर कम पुरुष मतदाताओं का एक प्रमुख कारण है उनका व्यापक पलायन. लेकिन साथ ही, महिलाओं का भारी मतदान उनके कल्याणकारी योजनाओं के प्रति रुझान को भी दर्शाता है.

भाजपा की राष्ट्रीय राजनीति बनाम झारखंडी पहचान

इस बार क्षेत्रीय मुद्दे व क्षेत्रीय (झारखंडी) पहचान के गठजोड़ के सामने भाजपा की हिंदुत्व व राष्ट्रीय राजनीति कमज़ोर पड़ गई. जहां एक ओर भाजपा बांग्लादेशी घुसपैठिए के तथ्यहीन दावों को दोहराने में व्यस्त रही, वहीं दूसरी ओर झामुमो के नेतृत्व में गठबंधन स्थानीय मुद्दों और झारखंडी पहचान व अस्मिता पर लड़ा और लोगों को जोड़ पाया. उदाहरण के लिए, एनआरसी और यूनिफार्म सिविल कोड के सांप्रदायिक एजेंडे के जवाब में हेमंत सोरेन का जवाब भी मतदाताओं को अपने पक्ष में ले आया. ‘यहां एनआरसी, यूसीसी नहीं चलेगा…यहां सीएनटी कानून (छोटानागपुर काश्तकारी अधिनयम) चलेगा, एसपीटी कानून (संथाल परगना काश्तकारी अधिनियम) चलेगा, पेसा चलेगा,’ उन्होंने कहा.  सीएनटी व एसपीटी स्थानीय भूमि कानून हैं जिनके तहत आदिवासी-मूलवासियों के ज़मीन की संरक्षण के लिए विशेष प्रावधान है.

जहां एक ओर इस चुनाव में हेमंत सोरेन ने कद्दावर नेता के रूप में अपने को स्थापित किया है, कल्पना सोरेन ने चुनावी अभियान को नयी उर्जा और जुझारू नेतृत्व दिया. उनकी सभाओं में बड़ी संख्या में लोग जुटे और दमदार माहौल बना. कल्पना व हेमंत सोरेन ने राज्य की लगभग हर सीट पर सभाओं को संबोधित किया.
राजनैतिक दलों के अलावा सामाजिक संगठनों की भूमिका भी रही. लोकतंत्र बचाओ अभियान, जो विभिन्न जन संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की पहल है, ने लोकसभा व विधानसभा चुनावों के लिए लोगों को जन अधिकारों पर संगठित किया और राज्य की राजनैतिक चर्चा को स्थानीय मुद्दों पर आधारित दिशा देने की कोशिश की. लोकतंत्र बचाओ अभियान ने विस्तृत पड़ताल से साबित किया कि बांग्लादेशी घुसपैठिए होने का कोई प्रमाण नहीं है.

भाजपा के विरुद्ध आदिवासियों की एकजुटता

पिछले 10 सालों में भाजपा के विरुद्ध आदिवासियों की एकजुटता बढ़ती जा रही है. जहां 2014 में एनडीए को 28 आदिवासी सीटों में से 11 पर जीत मिली थी, वहीं 2019 में भाजपा दो सीटों पर सिमट गई. इस बार इसे केवल एक सीट मिली है. इस साल के लोकसभा चुनाव में भाजपा 2004 के बाद पहली बार राज्य की पांच आदिवासी सीटों में एक भी नहीं जीत पाई.

2014-19 की रघुवर दास सरकार के आदिवासी-विरोधी नीतियों, जैसे स्थानीय भूमि संरक्षण कानून में बदलाव की कोशिश, गांव की सामुदायिक ज़मीन को सरकारी लैंड बैंक में डालना, पत्थलगड़ी आंदोलन करने वालों को देशद्रोही करार देना व लोकतांत्रिक विरोध को पुलिसिया हिंसा से निपटने के विरुद्ध आदिवासी 2019 विधानसभा चुनाव में एकजुट हुए. वहीं, मोदी सरकार की कॉर्पोरेट पक्षीय नीतियों ने आदिवासियों को सावधान कर दिया है. भाजपा और आरएसएस द्वारा आदिवासियों को धर्म के नाम पर बांटने की कोशिशों ने भी उनके प्रति राजनैतिक विरोध को बढ़ाया है. इस साल मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को पांच महीने जेल में डालना भी भाजपा को महंगा पड़ा.

इस चुनाव में भाजपा ने आदिवासी सीटों पर सेंधमारी के लिए धन-बल एक कर दिया. चुनाव के पहले झामुमो के कई कद्दावर आदिवासी नेताओं, जैसे पूर्व मुख्यमंत्री चंपई सोरेन, लोबिन हेंब्रम, सोरेन परिवार की सीता सोरेन व पूर्व कांग्रेस सांसद गीता कोड़ा ने भाजपा का दामन थामा. चंपई सोरेन के अलावा सभी खुद की सीट तक नहीं बचा पाए.

भाजपा के विरुद्ध व हेमंत सोरेन सरकार के पक्ष में आदिवासियों का माहौल खूंटी सीट के नतीजे से समझा जा सकता है. झामुमो के प्रत्याशी की न क्षेत्र में पहचान थी और न ही राजनैतिक पकड़. लेकिन इस सीट पर चुनाव हेमंत सोरेन-कल्पना सोरेन के चेहरे पर हुआ. भाजपा के पांच बार के विधायक रिकॉर्ड मार्जिन से हारे.

झारखंड लोकतांत्रिक क्रांतिकारी मोर्चा का प्रभाव

इस चुनाव में 30 वर्षीय युवा जयराम महतो के नेतृत्व में झारखंड लोकतांत्रिक क्रांतिकारी मोर्चा की एंट्री हुई, जिसने कई सीटों पर समीकरण को बदला. मुख्यतः युवाओं व स्थानीयता के मुद्दों को  उठाने वाले जयराम महतो व उनके सहयोगियों ने निर्दलीय के रूप में लोकसभा चुनाव में 5% वोट हासिल किए थे और 14 में से 6 सीटों पर तीसरे नंबर पर रहे. कम समय में ही इस पार्टी ने कुड़मी महतो समुदाय, जो कुल आबादी का लगभग 15% है, में अच्छी पैठ बना ली है . लेकिन पार्टी में आदिवासी नेतृत्व की कमी, महतो समुदाय द्वारा अनुसूचित जनजाति सूची में जोड़े जाने की मांग जैसे कारणों से यह पार्टी आदिवासी समुदाय में खास प्रभाव नहीं बना पाई है.

महतो समुदाय दशकों पहले झामुमो के साथ था लेकिन धीरे-धीरे उसकी एक बड़ी आबादी आजसू पार्टी व भाजपा की ओर चली गई. लोकसभा में क्रांतिकारी मोर्चा ने कई सीटों पर भाजपा-एनडीए के महतो प्रत्याशी वोट को दिया था. इस मोर्चे के कारण कई सीटों पर भाजपा व आजसू पार्टी को नुकसान पहुंचा और कई जगहों पर झामुमो गठबंधन को. इस चुनाव में भले ही क्रांतिकारी मोर्चा भले ही 71 सीटों पर लड़ा, जीत केवल महतो बहुल सीट डुमरी में हुई. लेकिन कम से कम 13 सीटों पर, जहां महतो वोटर अच्छी संख्या में है, यह पार्टी निर्णायक भूमिका में रही. इनमें से 11 पर झामुमो गठबंधन की जीत हुई. उदाहरण के लिए, महतो बहुल सिल्ली, जो आजसू नेता सुदेश महतो की पारंपरिक सीट मानी जाती है, में क्रांतिकारी मोर्चा 41725 वोट के साथ तीसरे स्थान पर रहा और सुदेश महतो 23867 मतों के मार्जिन से झामुमो प्रत्याशी अमित महतो से हार गए.

क्षेत्रीय नेतृत्व में मजबूत गठबंधन

इस चुनाव ने भाजपा की राजनीति के अंदरूनी विरोधाभास को भी उजागर कर दिया है. भाजपा ने स्थानीय आदिवासी नेताओं, जैसे बाबूलाल मरांडी, चंपई सोरेन, गीता कोड़ा और अर्जुन मुंडा को दरकिनार करके अपना चुनावी अभियान हिमंत बिस्वा सरमा के हवाले कर दिया. इसके विपरीत इंडिया गठबंधन का नेतृत्व हेमंत सोरेन व कल्पना सोरेन के पास रहा. साथ ही, झामुमो, कांग्रेस, राजद और भाकपा (माले) लिबरेशन के गठबंधन ने विभिन्न समुदायों  के मतदाताओं को पहले की तुलना में ज़्यादा एकजुट किया.  इसका असर कोयलांचल, पलामू प्रमंडल और अन्य क्षेत्र की कई गैर-आदिवासी भाजपा सीटों, जहां मुख्यतः दलित, पिछड़े और मुसलमान आबादी है, में दिखा. उदाहरण के लिये बोकारो, चन्दनक्यारी, सिंदरी, निरसा, गोड्डा, देवघर, भवनाथपुर, बिश्रामपुर व छतरपुर, जहां भाजपा मजबूती के साथ जीतती आई है, इस बार इंडिया गठबंधन की जीत हुई.

इस चुनाव परिणाम का देश की राजनीति के लिए भी विशष महत्त्व है. पिछले दस सालों में मोदी सरकार केंद्रीय एजेंसियों का इस्तेमाल करके विपक्षी नेताओं और पार्टियों को घेरने में लगी रही. यह महज़ संयोग नहीं है कि प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) ने जितने नेताओं पर कार्यवाई की, उनमें से 95% विपक्ष के थे. और जैसे ही नेताओं ने प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा का समर्थन किया, उनके विरुद्ध मामले ख़तम हो गए. पिछले पांच साल भाजपा व केंद्र लगातार झारखंड सरकार को गिराने की कोशिश करती रही. मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को लोकसभा चुनाव के पहले ऐसे मामले में पांच महीने तक जेल भेजा गया, जिसमें न कोई साक्ष्य है और न कोई प्रमाण. धन-बल और हर तरह के हथकंडे अपनाने के बाद भी भाजपा द्वारा महज़ 21 सीटों पर सिमट जाना केंद्र के विरुद्ध जनादेश है.

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और झारखंड में जन मुद्दों पर संघर्ष करते हैं.)