सुप्रीम कोर्ट का संविधान की प्रस्तावना से ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द हटाने से इनकार

सुप्रीम कोर्ट ने 42वें संशोधन, जिसके तहत संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द जोड़े गए थे- की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं को ख़ारिज करते हुए कहा कि लगभग 44 वर्षों के बाद इस संवैधानिक संशोधन को चुनौती देने का कोई वैध कारण या औचित्य नहीं है.

भारतीय संविधान की प्रस्तावना. (फोटो साभार: विकिमीडिया कॉमन्स)

नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को 42वें संशोधन की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं को खारिज कर दिया, जिसके तहत 1976 में आपातकाल के दिनों में संविधान की प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द जोड़े गए थे. कोर्ट ने कहा कि इन शब्दों को व्यापक स्वीकृति मिली है और इनके अर्थ ‘हम भारत के लोग’ बिना किसी संदेह के समझते हैं.

इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक भारत के मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना और जस्टिस संजय कुमार की पीठ ने कहा कि संविधान में संशोधन करने के लिए अनुच्छेद 368 के तहत संसद की शक्ति प्रस्तावना तक भी विस्तारित होती है और इस तर्क को खारिज कर दिया कि इन शब्दों को 1976 में मूल प्रस्तावना में पूर्वव्यापी रूप से नहीं जोड़ा जा सकता था, जिसकी कट ऑफ तारीख 26 नवंबर, 1949 है.

पीठ ने कहा कि लगभग 44 वर्षों के बाद इस संवैधानिक संशोधन को चुनौती देने का कोई वैध कारण या औचित्य नहीं है.

पीठ ने कहा, ‘यह तथ्य कि संविधान को 26 नवंबर, 1949 को अपनाया गया था, कोई असर नहीं डालता. अपनाने की तिथि संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत शक्ति को कम या सीमित नहीं करेगी.’

पीठ ने कहा, ‘पूर्वव्यापी तर्क, यदि स्वीकार किया जाता है, तो संविधान के किसी भी हिस्से में किए गए संशोधनों पर समान रूप से लागू होगा, हालांकि अनुच्छेद 368 के तहत ऐसा करने की संसद की शक्ति निर्विवाद है और इसे चुनौती नहीं दी जा सकती है.’

अदालत ने याचिकाओं पर नोटिस जारी करने से भी इनकार कर दिया और कहा कि रिट याचिकाओं पर विस्तृत निर्णय की आवश्यकता नहीं है क्योंकि तर्कों में खामियां और कमजोरियां स्पष्ट हैं.

सर्वोच्च न्यायालय के फैसले में कहा गया कि हालांकि यह सच है कि संविधान सभा ने प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को शामिल करने पर सहमति नहीं जताई थी, लेकिन संविधान एक जीवंत दस्तावेज है, जिसमें संसद को अनुच्छेद 368 के अनुसार संशोधन करने की शक्ति दी गई है.

इसमें कहा गया है, ‘1949 में ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को गलत माना जाता था, क्योंकि कुछ विद्वानों और न्यायविदों ने इसे धर्म के विपरीत माना था. समय के साथ भारत ने धर्मनिरपेक्षता की अपनी खुद की व्याख्या विकसित की है, जिसमें राज्य न तो किसी धर्म का समर्थन करता है और न ही किसी धर्म के पेशे और अभ्यास को दंडित करता है. यह सिद्धांत संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 16 में निहित है.’

फैसले में कहा गया, ‘धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा समानता के अधिकार के पहलुओं में से एक का प्रतिनिधित्व करती है, जो संवैधानिक योजना के स्वरूप को दर्शाने वाले बुनियादी ढांचे में जटिल रूप से बुनी गई है.’

मालूम हो कि संविधान की प्रस्तावना में इन शब्दों को 1976 के 42वें संशोधन में शामिल किया गया था. इसमें भारत के विवरण को संशोधित करते हुए ‘संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य’ से ‘संप्रभु, समाजवादी धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक गणराज्य’ में बदल दिया गया. इसके अलाव ‘राष्ट्र की एकता’ शब्द की जगह ‘एकता और अखंडता’ जोड़ दिया गया.

‘समाजवाद’ शब्द को दी गई चुनौती पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ‘इस संदर्भ में इसका अर्थ किसी निश्चित समय में लोगों की पसंद की चुनी हुई सरकार की आर्थिक नीतियों को प्रतिबंधित करने के रूप में नहीं लगाया जाना चाहिए… बल्कि, ‘समाजवादी’ कल्याणकारी राज्य बनने के लिए राज्य की प्रतिबद्धता को दर्शाता है.’

फैसले में आगे कहा गया, ‘भारतीय ढांचे में समाजवाद आर्थिक और सामाजिक न्याय के सिद्धांत को दर्शाता है, जिसमें राज्य यह सुनिश्चित करता है कि कोई भी नागरिक आर्थिक या सामाजिक परिस्थितियों के कारण वंचित न रहे. ‘समाजवाद’ शब्द आर्थिक और सामाजिक उत्थान के लक्ष्य को दर्शाता है और निजी उद्यमशीलता, व्यवसाय और व्यापार के अधिकार को प्रतिबंधित नहीं करता है, जो अनुच्छेद 19(1)(जी) के तहत एक मौलिक अधिकार है.’

इस संदर्भ में पीठ ने ‘प्रॉपर्टी ओनर्स एसोसिएशन और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य’ में 9 न्यायाधीशों की संविधान पीठ के बहुमत के फैसले का भी हवाला दिया.  इस तर्क को खारिज करते हुए कि यह संशोधन तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार द्वारा लगाए गए आपातकाल के दौरान किया गया था, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस बिंदु पर संविधान के पैंतालीसवें संशोधन विधेयक, 1978 पर विचार-विमर्श के दौरान संसद में पहले भी चर्चा की गई थी…इसके बाद, इस विधेयक को पुनः संख्यांकित किया गया और इसे संविधान के चौवालीसवें संशोधन अधिनियम, 1978 कहा गया.

याचिकाओं को खारिज करते हुए न्यायालय ने संशोधन किए जाने के चार दशक बाद इन्हें दायर करने के समय पर भी सवाल उठाया.

इसमें कहा गया है कि, ‘तथ्य यह है कि रिट याचिकाएं 2020 में दायर की गईं, जब ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द प्रस्तावना का अभिन्न अंग बन गए थे, जो इन याचिकाओं को विशेष रूप से संदिग्ध बनाता है… इन शब्दों को व्यापक स्वीकृति मिली है, और इनके अर्थ ‘हम, भारत के लोग’ समझते हैं. इन बदलावों ने… निर्वाचित सरकारों द्वारा अपनाए गए कानून या नीतियों को प्रतिबंधित या बाधित नहीं किया है, बशर्ते कि ऐसी कार्रवाइयां मौलिक और संवैधानिक अधिकारों या संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन न करें.’

ध्यान रहे कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेता अक्सर प्रस्तावना से ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द हटाने की बात करते रहे हैं. मौजूदा याचिकाएं भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी, अश्विनी कुमार उपाध्याय और बलराम सिंह द्वारा दायर की गई थीं.