क्या मतदाता सरकारों से ‘संतुष्ट’ रहने लगे हैं?

हर बार चुनावों से पहले मीडिया के मैनेजमेंट से छनकर बढ़ती ग़रीबी, ग़ैर-बराबरी, बेरोज़गारी व महंगाई वगैरह के कारण सरकारों के प्रति आक्रोश व असंतोष की जो बातें सामने आ जाती हैं, क्या वे सही नहीं हैं? मतदाताओं की सरकारों से इस 'संतुष्टि' को कैसे देखा जाए?

/
(प्रतीकात्मक फोटो साभार: X/निर्वाचन आयोग)

लोकसभा चुनाव में भाजपा की नरेंद्र मोदी सरकार के कमजोर होकर और गठबंधन सरकार के रूप में ही सही, वापसी कर लेने और हरियाणा, महाराष्ट्र व झारखंड विधानसभाओं के चुनावों में उनकी पुरानी सरकारों (जिनमें महाराष्ट्र की सरकार को तो सर्वोच्च न्यायालय एक फैसले में असंवैधानिक रास्ते से आई ठहरा चुका था) की शानदार वापसी के बाद कई प्रेक्षकों को लगने लगा है कि देश में सरकारों की वापसी का दौर चल रहा है.

इतना ही नहीं, कई हलकों में यह आकलन भी किया जाने लगा है कि यह दौर कब तक चलेगा?

लेकिन इससे कहीं ज्यादा बड़ा सवाल यह है कि क्या इससे यह समझा जाए कि निरंतर खराब होती कानून व्यवस्था, बढ़ती गरीबी, गैर-बराबरी, बेरोजगारी व महंगाई वगैरह के कारण सरकारों के प्रति आक्रोश व असंतोष (या कि एंटीइनकंबेंसी) की जो बातें कही जाती रहती हैं और तमाम मीडिया मैनेजमेंट के बावजूद कभी-कभार समाचार माध्यमों में भी नजर आ जाती हैं, वे सही नहीं हैं?

कैसा कल्याण!

और क्या उनके उलट सच्चाई यह है कि अब सरकारें ‘बहुत अच्छा’ काम करने लगी हैं और मतदाता उनसे, कम से कम, इतने ‘संतुष्ट’ रहने लगे हैं कि उनके निकट समाजवादी चिंतक डाॅ. राममनोहर लोहिया के इस कथन का कोई अर्थ नहीं रह गया कि सरकारों को लगातार उलटते-पलटते रहना चाहिए- यहां तक कि कार्यकाल के बीच में भी उन्हें चैन नहीं लेने देना चाहिए. (याद कीजिए: जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं) क्योंकि इसके बगैर लोकतंत्र की रोटी कच्ची रह जाती है?

किसी कारण कोई अपनी जिद पर ही आमादा हो जाए तो भले ही इसका जवाब हां में दे, अन्यथा सावन के अंधों को भी, जिनका ‘धर्म राज्य’ का मंसूबा अस्मिताओं व भावनाओं के मुद्दों के रास्ते घृणा और सिर्फ घृणा का प्रचार कर जीत हासिल करने तक जा पहुंचा है, ऐसे जवाब से गुरेज होगा. क्योंकि वे भी अपनी सरकारों के काम-काज को मुद्दा नहीं ही बनाते, जिससे जाहिर है कि मतदाताओं के उनसे संतुष्ट होने को लेकर वे भी आश्वस्त नहीं हैं.

तिस पर हम सबको मालूम है कि अब इस देश में सरकारें किसी भी झंडे या चुनाव चिह्न पर चुनकर आएं और देश की हों या किसी प्रदेश की, कल्याणकारी राज्य की पुरानी अवधारणा से दूर का भी वास्ता नहीं रखतीं. उसे तो वे बीती शताब्दी के आखिरी दशक में ही दुनिया भर से पूंजी निवेश के आमंत्रण के लिए निवेशकों के सामने आत्मसमर्पण करते हुए पीछे छोड़ आईं और ‘सर्वाइवल आफ द फिटेस्ट’ की राह पर चल पड़ी हैं.

यह और बात है कि मनरेगा जैसे कल्याणकारी अवधारणा के कुछ अवशेष जैसे-तैसे अपवादस्वरूप अभी भी चले आते हैं.

तब सरकारों से इस ‘संतुष्टि’ को कैसे देखा जाए? क्या उस तात्कालिकता में ही आईने में, जिसके तहत अखबारों व न्यूज चैनलों पर एक ही सांस में जीत व हार के अनेक फटाफट कारण बता दिए जाते हैं?

निस्संदेह, उन्हें एकदम से खारिज नहीं किया जा सकता. महाराष्ट्र में लाडली बहना और झारखंड में मईया सम्मान योजना को(जिनके तहत निर्धारित नकद धनराशि सीधे लाभार्थी महिलाओं के खाते में डाली गई) गेम चेंज करने का एकमुश्त श्रेय न दिया जाए, तो भी इतना तो कहना ही होगा कि सरकारों के प्रति नकारात्मकता घटाने और उनका पलड़ा भारी करने में उन्होंने बड़ी भूमिका निभाई.

लीडर नहीं, डीलर

वैसे भी यह एक खुला हुआ तथ्य है कि इस तथाकथित ‘उत्तर आधुनिक व उत्तरसत्य युग’ में, जब राजनीति में विचारधारा, मूल्य और गुण सर्वथा दरकिनार किए जा चुके हैं, हमारे ज्यादातर नेता ‘लीडर’ के बजाय ‘डीलर’ हो गए हैं और वे या उनके द्वारा चलाई जाने वाली सरकारें मतदाताओं से वायदे नहीं डील किया करती हैं: ‘लो, इतना ले लो और बदले में वोट दे दो’ की तर्ज पर.

वे प्रायः इसमें सफल भी हो जाती हैं क्योंकि मतदाताओं की नैतिकताओं व ईमानदारी की सीमाओं के साथ उनके लोभ व लालच को भी औरों से बेहतर समझती हैं क्योंकि अपनी भ्रष्ट व्यवस्था से उन्होंने ही ये लोभ-लालच पैदा भी किए हैं.

फिर चुनाव नजदीक आते ही किसी योजना के नाम पर डायरेक्ट बेनिफिट के तहत बैंक खातों में कुछ नकद रकम डाल देने से मतदाता उन्हें सताती आ रही सरकारों के पांच साल के सारे धतकर्म भुलाकर उनको अपने वोट से उपकृत कर सकते हैं, तो सरकारें उनके भविष्य के लिए अपने पूरे कार्यकाल लगातार गंभीरतापूर्वक कुछ करने के जोखिम क्योंकर उठाएं?

यहां कहने का आशय यह नहीं कि पहले चुनावों में मतदाताओं को पैसा नहीं बंटता था या धनबल व बाहुबल से चुनाव नतीजे बदलने की कोशिशें नहीं की जाती थीं. की जाती थीं, लेकिन सरकारें उनमें इस तरह सीधे लिप्त नहीं होती थीं. पार्टियां और प्रत्याशी लोगों की नजरें बचाकर, थोड़ा डरते-डराते यह सब किया करते थे.

लेकिन अब सरकारें खुल्लमखुल्ला ‘दयालु दाताओं’ में बदल गई हैं और मतदाता ‘दीन-हीनों’ में. तिस पर अनर्थ यह कि अपनी पिछड़ी हुई चेतना के कारण मतदाताओं में से ज्यादातर समझते ही नहीं कि सरकारें अपनी दरियादिली दर्शाने के लिए उन पर जो ‘कृपा’ बरसा रही हैं, वह उनकी दरियादिली न होकर काहिली या कि विफलता है.

इस अर्थ में कि वे देश या प्रदेश में आर्थिक संसाधनों का ऐसा केंद्रकरण (जिसकी संविधान में सख्त मनाही है) नहीं रोक पाई हैं. इसके चलते अमीरी ने कुछ लोगों के विकल्प इतने असीम कर दिए हैं कि उनके सामने थाली परोसी जाती है तो वे समझ नहीं पाते कि क्या-क्या खाएं और क्या-क्या छोड़ दें. दूसरी ओर गरीबी ने अनेक लोगों की थालियां इतनी खाली कर दी हैं कि उनके समक्ष ‘खाएं तो क्या खाएं की मजबूरी’ है.

यह मजबूरी उन्हें समझने ही नहीं देती कि सरकारों का उन्हें हर महीने पांच किलो राशन देना उनकी ओर से बांटी जाने वाली खैरात नहीं, खाद्य सुरक्षा कानून के तहत प्राप्त नागरिक अधिकार है.

इसे कुछ और कारकों से मिलाकर देखना चाहिए. जैसा कि एक विश्लेषक ने लिखा है कि अस्सी-नब्बे के दशक में मीडिया से परेशान जिस आवारा व याराना पूंजी ने मीडिया को खरीदा, अब वह राजनीतिक दलों को खरीदने से आगे बढ़कर सीधे सरकारों व उनकी मार्फत मतदाताओं को खरीद रही है. यह पूंजी चाहती है कि सरकारें मतदाताओं पर कृपा बरसाने के लिए उनको राहत साम्रगी व उपहार वगैरह तो बांटें, लेकिन देश के संसाधनों की हिफाजत करने या विषमताएं दूर करने के कारगर प्रयासों से विरत ही रहें. ताकि नैतिक व समतामूलक लोकतंत्र ऐसे ही सपना बना रहे और बेबस मत धार्मिक व सांप्रदायिक विवादों में उलझें रहें.

इसीलिए आजकल सरकारें विपक्ष पर (जो कई मायनों में उनका नीति आधारित विपक्ष है ही नहीं) मुफ्त या रेवड़ियों की राजनीति करने के आरोप लगाती हैं तो अपनी रेवड़ियों को रेवड़ियां नहीं समझतीं. विपक्ष अपनी बारी पर उनसे ज्यादा रेवड़ियां देने का वादा कर डालता है, तो भी उसका सपना अपवादस्वरूप ही साकार होता है, क्योंकि ‘न नौ नकद न तेरह उधार’ का सिद्धांत भारी पड़ जाता है.

बदलाव से निराश!

लेकिन इसे ही सरकारों की वापसी का पूरा सच भी नहीं माना जा सकता. क्योंकि जिस तरह पिछले कई दशकों से इस देश को प्रबंधन के तर्कों से चलाया जा रहा है, उसके मद्देनजर इसका एक बड़ा कारण यह भी हो ही सकता है कि अरसे से सरकारें बदल-बदलकर निराश होते आ रहे मतदाता अब सरकारें बदलकर भी खुद को हारा हुआ ही महसूस करते हों और सोचने लगे हों कि जब बार-बार सरकारें बदलकर भी उनके जीवन में कोई बदलाव नहीं आता तो इस बेहिस बदलाव की कवायद में लगे रहने का क्या अर्थ है?

सामाजिक, सांस्कृतिक व आर्थिक बदलाव के किसी व्यापक आंदोलन के अभाव में उनके दिलोदिमाग में इस धारणा के बद्धमूल हो जाने की आशंका से कैसे इनकार किया जा सकता है?

हां, यह भी हो सकता है कि चुनाव के दौरान सरकारें बदलने का आह्वान करते हुए उनके पास आने वाले दलों व प्रत्याशियों के साथ उनका अनुभव इतना कड़वा रहा हो (ऐसे ज्यादातर दल अब कभी न कभी कहीं न कहीं सत्ता में रहकर मतदाताओं को सता चुके हैं कि वे उसे भुला न पा रहे हों और ‘सांपनाथ’ की जगह ‘नागनाथ’ को लाकर अपनी छाती पर सवार कर लेने के बजाय वर्तमान सरकार से ही निभाते रहना बेहतर समझते हों. ‘भेंड़ जहां भी जाएगी, मूंड़ी ही जाएगी’ जैसी निराशा तक जा पहुंचे हों.

वे इस निराशा से बच सकते थे अगर राज्य की आज्ञापालक प्रजा से राज्य की इच्छा के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले नागरिकों में उनके बदलाव की प्रक्रिया पूरी हो पाई होती. लेकिन अब तो उसे ऐसी उल्टी दिशा में घुमा दिया गया है जहां वह पूरी होने का सपना भी न देख सके. ऐसे में प्रजा में तब्दील नागरिक ‘कृपालु’ सरकारों के प्रति कृतज्ञ होकर उनके ऐबों की ओर से आंखें मूंद लेने की बीमारी से कैसे बच सकते हैं.

क्योंकर समझ सकते हैं कि ऐसी कोई भी कृपा चुनी हुई सरकारों का कर्तव्य होती है, जिसे पूरा कराने के लिए मतदाताओं को उनसे किसी डील या बंधुआगिरी की जरूरत नहीं होती.

परपीड़ा में खुशी की लत!

इस अचेतनता का ही कुफल है कि अब हम ऐसी सरकारों के दौर में भी जा पहुंचे हैं, जो मतदाताओं पर कृपालु होकर ही उन्हें खुश नहीं करतीं. समावेशी राजनीति को दूर से प्रणाम कर एक समुदाय या संप्रदाय को सताकर दूसरे को खुश कर लेती हैं. क्योंकि उन्होंने मतदाताओं को परपीड़ा में सुख तलाशने और परसुख से डाह रखने की लत लगा दी है. इसीलिए ‘बंटोगे तो कटोगे’ जैसे शातिर नारों की आड़ में बांटने व काटने का खेल कई सरकारों व सत्ताधीशों के लिए बहुत सुविधाजनक हो गया है.

वैसे ही, जैसे सर्वोच्च न्यायालय के दिशानिर्देशों से पहले एक समुदाय के अभियुक्तों के घरों पर बुलडोजर चलवाकर दूसरे समुदाय में अपने इकबाल का परिचय देना हुआ करता था. वे किसी भी नाम पर नाराज नफरती भीड़ें खड़ी करते हैं, फिर उनमें से अपनी सुविधानुसार कुछ नाराज भीड़ों को अपनी रियाया में बदल लेते और मौज करते हैं.

अब जब नाराज नफरती भीड़ें निर्णायक हैसियत की स्वामिनी बनने लगी हैं, संविधान निर्माता बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर का कथन याद आता है कि न कोई विचार अजर-अमर होता है न ही बिना खाद-पानी के जिंदा रह पाता है और हमारे लोकतंत्र का विचार भी इसका अपवाद नहीं है. ऐसे में सवाल है कि क्या इस कठिन समय में हम लोग खुद से पूछ सकते हैं कि इस विचार को खाद-पानी देने का अपना कर्तव्य हम कितना निभा रहे हैं?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)