विचारधाराएं साहित्य से नहीं उपजतीं, फिर भी साहित्य को अपना उपनिवेश बनाने की चेष्टा करती हैं

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: धर्म का छद्म करती विचारधारा ‘हिंदुत्व’ कहलाती है. उसके प्रभाव में भारतीय समाज जितना सांप्रदायिक धर्मांध और हिंसक आज है उतना पहले कभी नहीं हुआ.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)

विचारधारा से हिंदी में अक्सर लोकप्रिय आशय वाम विचारधारा से होता आया है. अक्सर हम भूल जाते हैं कि वाम के अलावा कई और विचारधाराएं सक्रिय रही हैं और उनके बीच द्वंद्व, स्पर्धा, तनाव और कटुता आदि रहे हैं. ‘हंस’ पत्रिका के इस बार के साहित्योत्सव में एक सत्र का विषय था ‘समकालीन हिंदी साहित्य: प्रभावित करती विचाराधाराएं और दर्शन’.

उसमें बोलते हुए मैंने इस ओर ध्यान खींचा कि इस समय हम अपने लोकतंत्र में सबसे सख़्त, निर्मम, क्रूर, हिंसक और जीवन के प्रायः हर क्षेत्र में हस्तक्षेपकारी विचारधारात्मक समय में रह रहे हैं. इस विचारधारा का याराना पूंजीवाद, नई टेक्नोलॉजी और मीडिया के एक बड़े हिस्से के साथ गठबंधन है और धर्म का छद्म करती हुई ‘हिंदुत्व’ कहलाती है. उसके प्रभाव में भारतीय समाज जितना सांप्रदायिक धर्मांध और हिंसक आज है उतना पहले कभी नहीं हुआ.

इस विचारधारा और उसके विद्रूपों और विकृतियों का विरोध-प्रतिरोध भी हो रहा है. ऐसा करने वाले सभी विचारधारी नहीं हैं. यह भी नोट करने की बात है कि हिंदुत्व का समकालीन हिंदी साहित्य पर प्रभाव बहुत कम है. फिर भी, इस समय हिंदी लेखकों के बीच अबोध मार्क्‍सवादी, अनजाने हिंदुत्ववादी, अनपहचाने वर्णवादी बहुत हो गए हैं.

ज़्यादातर विचारधाराएं साहित्य से नहीं, कहीं और उपजती हैं. फिर से साहित्य को अपना उपनिवेश बनाने की चेष्टा करती हैं: वे अपना असमावेशी वर्चस्व चाहती हैं. वे प्रायः सत्ताकामी होती हैं. ये सभी तत्व विचारधारा और साहित्य के बीच तनाव पैदा करते हैं.

आम तौर पर साहित्य को विचार की विधा नहीं माना जाता जबकि साहित्य भी मानवीय स्थिति, नियति, मानवीय संबंधों, विडंबनाओं और संभावनाओं आदि पर विचार करता है. लेकिन वह शुद्ध विचार नहीं, रागसिक्त विचार, संवेदनात्मक ज्ञान होता है. यह भी सच है कि धीरे-धीरे विचारधारा में विचार कम, धारा अधिक होती जाती है.

इस समय जो युवा पीढ़ी लिख रही है वह राजनीतिक रूप से प्रबुद्ध नहीं लगती: उसका फ़ैशन-खेलकूद-लोकप्रिय फिल्मों आदि से संबंध-संवाद तो है, विचारों से कम. हमारे भयानक समय में, जिसमें सत्तारूढ़ संकीर्ण विभाजक राजनीति जीवन के हर क्षेत्र में हस्तक्षेप कर रही है, युवा लेखकों की चुप्पी अवसरवादी नैतिकता से कैसे अलग है यह समझना कठिन है. यह भी कि इसे सुरक्षाकामी कायरता क्यों न माना जाए?

सही है कि इस समय लोकप्रिय स्त्री-विमर्श, दलित-विमर्श, आदिवासी विमर्श भी विचारधारा के ही रूप हैं पर क्या हमारे संविधान में प्रस्तावित स्वतंत्रता-समता-न्याय-बंधुता की मूल्यदृष्टि विचारधारा नहीं है, जिसके आधार पर हम आज साहित्य को देख-परख-समझ सकते हैं?

इस समय संसार भर में नए और विश्व व्याप सकने वाले विचारों का भयावह टोटा है. तब क्या हम गांधी जी के कुछ मूल अभिप्रायों जैसे असहयोग, सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा और स्वराज का पुनराविष्कार कर एक नए वैचारिक परिसर को संयोजित-सक्रिय नहीं कर सकते? विचार से ऊब अंततः मनुष्यता, अंतःकरण और साहस से ऊब होगी, अगर हम ऊबते और निष्क्रिय होते हैं तो.

आर्ट मुंबई

ललित कला की रसिकता, संरक्षण-समर्थन और संग्रहण की मुंबई में लंबी परंपरा है. आधुनिक भारतीय कला का एक बड़ा अग्रगामी समूह प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप वहीं बना और सक्रिय हुआ था. आधुनिक कलालोचना की शुरुआत भी वहीं हुई और कलाकृतियों के सबसे समझदार खरीदार भी मुंबई में ही थे और आज भी हैं. फिर भी, वहां एक बड़ा कलामेला पिछले वर्ष ही शुरू हो पाया, दिल्ली के इंडिया आर्ट फेयर के शुरू होने के शायद एक दशक बाद. इस वर्ष उसका दूसरा संस्करण हुआ और मुझे वहां जाकर देखने का सुयोग मिला. इस बार वह अधिक व्यवस्थित और सुघर है- जगहें आयतन में ज़्यादा हैं और बेहतर खुली-फैली हुई थीं.

मेले-ठेले में जाने देर तक इधर-उधर भटकने की उमर नहीं है फिर भी कई घंटे अविरल और लगभग अविराम ‘आर्ट फेयर’ में बिताए. दिल्ली की कई गैलरियों के वहां स्टाल थे और यहां के कई कलाकार भी वहां पहुंचे हुए थे. ठीक आंकड़े तो पता नहीं लेकिन कहते हैं कि इस मेले में कलाकृतियों की बिक्री अच्छी होती है, दिल्ली से बेहतर.

पहले ही घंटे में ख़ासी भीड़ थी दर्शकों की जिनमें कई कलाप्रेमी उद्योगपति आदि भी नज़र आए, कुछ बंबइया सिनेमा की हस्तियां भी. खुद मुंबई के कलाकार और कलालोचक पहले कुछ घंटों में कम नज़र आए. आराम से बाद में आए होंगे.

मोटे तौर पर मेले में दो विभाजन थे: समकालीन और आधुनिक. समकालीन खंड में कई अपेक्षाकृत कम जाने-माने युवाओं के काम में जो ऊर्जा, आविष्कारक कौशल, नई सामग्री की खोज, कल्पना की उदग्रता और उछाल चरितार्थ थी वह आश्वस्तिकारी थी. कुछ कलाकृतियों पर लाल चिप्पी यानी उनके बिक जाने का संकेत लगी हुई थी.

नई टेक्नोलॉजी का उपयोग कर कलाकृति बनाने का उत्साह इतना व्यापक नहीं लगा जितना कि अपेक्षा थी. कई बार युवा कलाकार अपनी कला समझाते दीख पड़े: शब्दों में कुछ दृष्टिपूर्ण और विचारोत्तेजक ढंग से कहने की क्षमता युवाओं में कम ही है. अक्सर उनका कहा कलाकृति का रसास्वादन करने में कोई ख़ास मदद नहीं करता. इस मामले में उन्हें अपने आधुनिक पुरखों से सीखना चाहिए.

आधुनिक खंड में हुसैन, सूज़ा, रज़ा, गायतोंडे, रामकुमार, सोमनाथ होर, गणेश पाइन, नसरीन मोहमदी आदि के काम कई जगह थे. पर अकबर पदमसी और कृष्ण खन्ना के काम कम थे और तैयब मेहता का तो एक भी चित्र नज़र नहीं आया. सैफ़रन आर्ट ने सूज़ा और गायतोंडे की जन्मशती के सिलसिले में उन्हीं की कलाकृतियां प्रदर्शित की हैं. पर इस पूरे खंड में ऐसा कोई काम नज़र नहीं आया जिसे हम नई खोज कह सकें.

वयोवृद्ध अरविंद

मुंबई के अरविंद पारेख बड़े उद्योगपति रहे हैं और उनसे पहचान उनके एक महत्वपूर्ण संगीतकार होने के कारण हुई. उन्होंने उस्ताद विलायत खां से पचास वर्ष से अधिक चली लंबी तालीम हासिल की. इस समय उनकी आयु 97 वर्ष की हो चुकी है पर वे सजग-सक्रिय हैं. ‘आर्ट मुंबई’ से लगभग भागकर उनसे मिलने गया. उन्हें देख-मिलकर लगा कि उनके संगीत के पैशन ने उनकी जिजीविषा और दिलोदिमाग़ को स्वस्थ रखा है. वे अब अपने शिष्यों को ऑनलाइन अपनी विशिष्ट पद्धति से सिखा रहे हैं.

वे अपने शिष्यों को सिर्फ़ ज्ञान नहीं देते उनमें प्रश्नवाचकता, जिज्ञासा भी जगाते हैं. उनका इस पर इसरार है कि संगीत में जो कुछ भी करो सोच-समझ कर करो, निरी नकल नहीं.

वे भातखंडे द्वारा प्रतिपादित हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की कई अवधारणाओं और विचारों-व्याख्याओं से असहमत है और इस बारे में उन्होंने काफ़ी शोध किया है. यह भी पता चला कि उन्होंने प्रोफ़ेसर देवधर की बंदिशों के संग्रह की एक प्रति उनसे प्राप्त कर ली थी और सभी बंदिशों को प्रस्तुत करते हुए एक श्रृंखला तैयार की है.

उनके अनुसार आजकल संगीतकारों पर बड़ी-मोटी पुस्तकें कोई नहीं पढ़ता. उन्होंने अंग्रेज़ी में सचित्र पुस्तिकाएं तैयार कराके प्रकाशित की हैं. उनमें से कुछ उस्ताद अल्ला दिया खां, उस्ताद फ़ैयाज़ खां, उस्ताद अमीर खां पर मुझे उन्होंने दीं.

अरविंद भाई का एक और बड़ा काम, जो वे दशकों तक करते रहे हैं, संगीत की समझ बढ़ाने का रहा है. मेरा उनसे संपर्क इसी सिलसिले में हुआ था. उन्होंने कई संस्थाएं बनाईं और चलाईं. 1975 में इंटरनेशनल फाउंडेशन ऑफ फाइन आर्ट्स, 1991 में म्यज़िक फ़ोरम, 2007 में ऑल इंडिया म्यूज़िशियेन ग्रुप. बरसों वे इंडियन म्यूज़िकालाजी और यूनेस्को के अंतर्गत इंटरनेशनल म्यूज़िक काउंसिल से संबद्ध रहे.

उन्हीं के और उनके संगीतकार मित्र विजय किचलू के न्योते और उकसावे पर मैंने शास्त्रीय संगीत पर विचार-विमर्श की कई गोष्ठियां, परिसंवादों आदि में कुछ कहने की धृष्टता की. उनके वत्सल व्यवहार ने हमेशा संगीत पर कुछ कहने, विचार करने में मनोबल बढ़ाया. उन्होंने अपनी व्यवसाय से अर्जित संपदा का एक हिस्सा शास्त्रीय संगीत के संवर्धन में लगाया.

वे आज भी शास्त्रीय संगीत को सीखने, उसकी समझ बढ़ाने और नई टेक्नोलॉजी ने संप्रेषण और प्रशिक्षण की जो सुविधा दी है उस पर मनोयोग से विचार करने और उसका सक्षम प्रयोग करने में लगे हुए हैं. वे सिर्फ़ अपने गुरु उस्ताद विलायत खां की विरासत नहीं संभाल रहे हैं पर समूचे शास्त्रीय संगीत की उसकी बहुलता में विरासत की चिंता करते हुए सक्रिय हैं. आयु ऐसे अरविंद भाई को न तो मंद कर पाई है, न अशक्त. उनकी गति और सक्रियता संगीत पर एकाग्र होकर दीप्त और उज्ज्वल है.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)