नई दिल्ली: उत्तर प्रदेश सरकार ने गुरुवार (28 नवंबर) देर रात पिछले रविवार (24 नवंबर) को मुगलकालीन मस्जिद के विवादास्पद सर्वेक्षण के दौरान संभल में हुई हिंसा की न्यायिक जांच का आदेश दिया.
मालूम हो कि न्यायिक आयोग के गठन का ये फैसला ऐसे समय में सामने आया, जब शुक्रवार (29 नवंबर) को ही इस संबंध में जामा मस्जिद प्रबंधन समिति की ओर से दायर याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होनी थी.
एक ओर जहां, विपक्षी दल के नेता इस न्यायिक जांच की अचानक घोषणा के सरकार के फैसले को संदेह की नजर से देख रहे हैं, वहीं तीन सदस्यीय आयोग की शर्तें और संदर्भ भी कई सवाल उठाते हैं क्योंकि वे हिंसा में मारे गए लोगों के परिजनों द्वारा पुलिस पर लगाए गए हत्या के गंभीर आरोपों को नजरअंदाज करते नजर आ रहे हैं.
मालूम हो कि उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदीबेन पटेल ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश देवेन्द्र कुमार अरोड़ा की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय आयोग का गठन किया है.
इसमें अन्य दो सदस्य सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी अमित मोहन प्रसाद, जिन्होंने मुख्यमंत्री आदित्यनाथ के अधीन कार्य किया है और सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी अरविंद कुमार जैन, जो अखिलेश यादव के नेतृत्व वाली समाजवादी पार्टी (सपा) सरकार के कार्यकाल में 2015 में पुलिस महानिदेशक थे, को शामिल किया गया है.
ज्ञात हो कि इस हिंसा में पांच मुसलमानों की मौत हो गई थी, लेकिन सरकार ने केवल चार लोगों की मौत की बात ही स्वीकार की है. वहीं, घटना के दौरान कई पुलिस कर्मी भी घायल हो गए थे और कुछ वाहनों को आग में आग लगा दी गई, तो कई गाड़ियां क्षतिग्रस्त कर दी गई थीं.
इस मामले में गठित न्यायिक आयोग को चार काम करने हैं-
पहला, यह जांच करना कि क्या घटना अचानक हुई या सुनियोजित थी और किसी आपराधिक साजिश का नतीजा थी.
दूसरा, घटना के दौरान कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए जिला प्रशासन और पुलिस द्वारा की गई व्यवस्था की जांच करना.
तीसरा, उन कारणों और परिस्थितियों का पता लगाना जिनके कारण ये घटना घटित हुई.
और चौथा, ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति को रोकने के लिए सुझाव देना.
आयोग के पास अपनी जांच पूरी करने के लिए दो महीने का समय है.
आयोग की अधिसूचना घटना के अन्य महत्वपूर्ण तत्वों का कोई विशेष संदर्भ नहीं देती है, जिसके व्यापक समझ के लिए जांच की आवश्यकता होगी. सबसे पहले, इस विवाद की जड़, जो मामले का केंद्र बिंदु है- अदालत द्वारा नियुक्त अधिवक्ता आयुक्त रमेश राघव ने किन परिस्थितियों में जल्दबाजी दिखाई और स्थानीय सिविल अदालत के आदेश के तीन घंटे के भीतर 19 नवंबर की शाम को मस्जिद का सर्वेक्षण किया.
ध्यान रहे कि सिविल जज सीनियर डिवीजन ने मस्जिद में प्रवेश के अधिकार का दावा करने वाले एक सिविल मुकदमे के हिस्से के रूप में हिंदुत्व समर्थक वकील हरि शंकर जैन और हिंदू संत महंत ऋषिराज गिरी के नेतृत्व में आठ वादी द्वारा दायर एक आवेदन पर एक सर्वेक्षण के लिए आदेश पारित किया था.
हिंदू कार्यकर्ताओं ने दावा किया है कि 16वीं शताब्दी में पहले मुगल सम्राट बाबर के समय में बनी मस्जिद, मूल रूप से विष्णु के अवतार कल्कि को समर्पित एक प्रमुख हिंदू मंदिर का स्थान था.
सवाल अभी बाक़ी हैं
इन सवालों के जवाब भी अभी बाकी हैं कि जब अदालत ने एडवोकेट कमिश्नर को रिपोर्ट जमा करने के लिए 29 नवंबर तक – कम से कम पूरे नौ दिन – का समय दिया था, तो अदालत के आदेशों के तुरंत बाद उन्हें सर्वेक्षण शुरू करने के लिए किसने प्रेरित किया?
क्या प्रशासन ने स्थानीय धार्मिक समुदायों को विश्वास में लेने के लिए आवश्यक कदम उठाए, यह देखते हुए कि मस्जिद मिश्रित आबादी वाले क्षेत्र में स्थित है, या स्थानीय आबादी को सर्वेक्षण के उद्देश्य के बारे में सूचित करने के लिए कोई शांति बैठकें आयोजित कीं?
यह देखते हुए कि यह विषय सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील है, एडवोकेट कमिश्नर ने दूसरा सर्वेक्षण क्यों किया? यदि अधिवक्ता आयुक्त को रात के समय में सर्वेक्षण करने की सीमाओं के बारे में पता था, तो इसे उसी दिन जल्दबाजी में क्यों शुरू किया गया?
दूसरा, पुलिस पर गंभीर आरोप लगे हैं. पुलिस पर न केवल प्रदर्शनकारी मुसलमानों पर गोली चलाने और उन्हें मारने का आरोप है, जो उस भीड़ का हिस्सा थे, जिसने पुलिसकर्मियों पर पथराव किया और वाहनों को क्षतिग्रस्त कर दिया, बल्कि उन पर यह भी आरोप है कि उन्होंने अनावश्यक लाठीचार्ज से भीड़ को हिंसक बना दिया.
मारे गए लोगों के परिजन, मस्जिद का प्रबंधन करने वाली समिति के अध्यक्ष जफर अली और संभल के सांसद जिया-उर-रहमान बर्क सहित विपक्षी नेताओं ने पुलिस पर भीड़ पर गोलीबारी करने का आरोप लगाया है.
पुलिस ने इन आरोपों से इनकार किया है और कहा है कि उन्होंने भीड़ को तितर-बितर करने के लिए केवल रबर की गोलियां और आंसू गैस छोड़ी और लाठीचार्ज किया. पुलिस ने यह भी दावा किया कि बंदूक की गोली से मारे गए चार लोगों को देशी हथियारों से मारा गया था, जिससे पता चलता है कि भीड़ के सदस्यों ने एक-दूसरे पर गोली चलाई होगी.
नागरिक अधिकार एनजीओ एसोसिएशन ऑफ प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स (एपीसीआर) ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में दायर एक जनहित याचिका (पीआईएल) में मांग की है कि पुलिस या राज्य पदाधिकारियों द्वारा कथित तौर पर किए गए ‘अपराधों और अत्याचारों’ की सभी शिकायतें तुरंत दर्ज की जाएं और इसकी जांच उच्च न्यायालय की निगरानी में एक स्वतंत्र जांच एजेंसी या टीम द्वारा हो.
एपीसीआर ने यह भी अनुरोध किया है कि अदालत पुलिस और सरकार को एक स्थिति रिपोर्ट दाखिल करने का निर्देश दे, जिसमें बताया जाए कि क्या पुलिस को जनता पर ‘गोली चलाने’ के लिए प्रोत्साहित किया गया था.
एपीसीआर की याचिका में कहा गया है कि भीड़ मस्जिद की खुदाई की अफवाहों के खिलाफ शांतिपूर्वक विरोध कर रही थी, तभी पुलिस ने लाठीचार्ज शुरू कर दिया. लाठीचार्ज के बाद भीड़ कथित तौर पर हिंसक हो गई और पथराव करने लगी, उल्लेखनीय है कि पुलिस अधिकारियों ने अंधाधुंध गोलियां चलाकर असंगत बल का प्रयोग किया और चार लोगों की गोली लगने से जान चली गई.
तीसरा, सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने मुसलमानों पर कथित पुलिस गोलीबारी से ध्यान हटाने के लिए मीडिया में एक कहानी गढ़ी कि हिंसा दो मुस्लिम समुदायों- तुर्क और पठान के बीच लंबे समय से चली आ रही प्रतिद्वंद्विता के कारण हुई. यह जरूरी होगा कि आयोग इस बात की भी जांच करे कि अज्ञात पुलिस सूत्रों के हवाले से मीडिया के बड़े हिस्से द्वारा प्रचारित दो समुदायों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा करने का यह निराधार सिद्धांत कैसे गढ़ा गया.
विपक्ष के शुबहे
न्यायिक जांच के आदेश पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए फैजाबाद से सपा सांसद अवधेश प्रसाद ने कहा कि यह जांच ‘मामले को ठंडे बस्ते में डालने’ और ‘लोगों के दिमाग को भटकाने’ के लिए घोषित की गई है.
प्रसाद ने आगे कहा, ‘यह खुला तथ्य है कि गोलियां चलीं, लोग मरे और दर्जनों घायल हुए. इसमें ऐसी क्या खास बात है कि यह मामला किसी आयोग को दिया जाना चाहिए? यह सरकार कुछ करना ही नहीं चाहती. यह वह सरकार है जिसने चीजों को खराब कर दिया है.’
एसपी सांसद बर्क, जिन पर मस्जिद की ‘सुरक्षा’ के लिए भीड़ को उकसाने का आरोप है, ने कहा कि ‘ईमानदार और निष्पक्ष जांच’ केवल सुप्रीम कोर्ट या इलाहाबाद हाईकोर्ट के मौजूदा न्यायाधीशों की देखरेख में गठित जांच आयोग के साथ ही संभव होगी. संसद के बाहर पत्रकारों से बात करते हुए बर्क ने यह भी मांग की कि अगर कोई निष्पक्ष जांच होती है तो घटना में शामिल पुलिस अधिकारियों और प्रशासनिक अधिकारियों को निलंबित किया जाना चाहिए.
बर्क ने शुक्रवार को पुलिस के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज करने की मांग करते हुए कहा, ‘हम उन्हें अपराधी मानते हैं.’
सपा सांसद ने यह भी आरोप लगाया है कि 24 नवंबर को हुई हिंसा की घटना पुलिस प्रशासन द्वारा रची गई थी. उन्होंने कहा कि पुलिस ने पहले अराजकता फैलाई और फिर फर्जी मामले दर्ज किए गए.
प्रशासन का खंडन
हालांकि, प्रशासन ने लापरवाही या सुरक्षा चूक के आरोपों से इनकार किया है.
गुरुवार शाम को एक संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए मुरादाबाद मंडल के आयुक्त आंजनेय कुमार सिंह से पूछा गया कि क्या हिंसा ‘खुफिया विफलता’ का परिणाम थी और क्या स्थानीय पुलिसकर्मियों के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी.
सिंह ने इसका जवाब देते हुए कहा कि प्रशासन को ‘इनपुट’ मिला था कि मामला ‘संवेदनशील’ है. लेकिन उन्होंने इससे निपटने के लिए सभी उपाय किए और सभी उपलब्ध बलों को तैनात किया.
सिंह ने कहा, ‘हमने ड्रोन कैमरों का इस्तेमाल किया. अगर खुफिया जानकारी नहीं होती तो हम ये सारी व्यवस्थाएं क्यों करते? पुलिस को छतों पर भी तैनात किया गया था.’
वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि पुलिस ने सभी प्रकार की रोकथाम के प्रयास के बाद पथराव कर रही भीड़ को ‘आवश्यक उचित प्रतिक्रिया’ दी. उन्होंने कहा, ‘हमने वही किया जो स्वीकार्य था.’
न्यायिक जांच के आदेश के बाद उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री ब्रजेश पाठक ने मीडिया से बात करते हुए कहा कि सरकार निष्पक्ष जांच के बाद सभी दोषियों के खिलाफ ‘कड़ी कार्रवाई’ करेगी.
उन्होंने कहा, ‘हम माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का पालन करेंगे. हम संभल में कानून और व्यवस्था बनाए रखेंगे.’
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को संभल में शाही जामा मस्जिद के सर्वेक्षण की अनुमति देने वाले अदालती आदेश को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए याचिकाकर्ताओं से मामले को लेकर हाईकोर्ट जाने को कहा और ट्रायल कोर्ट को मामले की सुनवाई होने तक इस पर कोई कार्रवाई न करने का निर्देश दिया.
शीर्ष अदालत ने जिला प्रशासन से यह भी सुनिश्चित करने को कहा कि इलाके में शांति बनी रहे, जो सर्वेक्षणकर्ताओं के मस्जिद का दौरा करने के बाद से हिंसा से प्रभावित है.
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