नई दिल्ली: भोपाल गैस त्रासदी के 40 साल बीत गए लेकिन पीड़ितों का संघर्ष खत्म नहीं हुआ है. गंभीर बीमारियों का शिकार हो चुके उचित मुआवजे के लिए अब भी दर-दर की ठोकर खा रहे हैं.
पिछले दिनों इस संबंध में पीड़ितों के लिए काम करने वाले चार संगठनों (गैस पीड़ित महिला स्टेशनरी कर्मचारी संघ, गैस पीड़ित महिला स्टेशनरी कर्मचारी संघ, भोपाल ग्रुप फॉर इंफॉर्मेशन एंड एक्शन और भोपाल गैस पीड़ित महिला पुरुष संघर्ष मोर्चा) ने सुप्रीम कोर्ट में एक रिट याचिका भी दायर की है.
याचिका में कैंसर और घातक किडनी रोगों से ग्रस्त उन पीड़ितों के लिए अतिरिक्त मुआवजे की मांग की गई है, जिनकी गैस के संपर्क में आने से हुई शारीरिक नुकसान को गलत तरीके से अस्थायी क्षति के श्रेणी में रखा गया था.
द वायर हिंदी से बातचीत में भोपाल ग्रुप फॉर इंफॉर्मेशन एंड एक्शन की रचना ढींगरा ने कहा, ‘जो लोग गैस त्रासदी के कारण कैंसर ग्रस्त और किडनी फेलियर का शिकार हुए हैं, सरकार ने उन्हें भी अस्थायी क्षति के श्रेणी में रख मुआवजा दिया है. हमारी रिट याचिका इसी को लेकर है.’
गत 30 नवंबर को इस संबंध में संगठनों ने एक प्रेस वार्ता भी की थी.
सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त जानकारी को साझा करते हुए, भोपाल गैस पीड़ित महिला स्टेशनरी कर्मचारी संगठन की अध्यक्ष रशीदा बी ने बताया था, ‘आधिकारिक रिकॉर्ड के अनुसार, कैंसर से ग्रस्त 11,278 पीड़ितों में से 90% और घातक किडनी रोगों से ग्रस्त 1,855 पीड़ितों में से 91% को सरकार द्वारा इसके लिए अनुग्रह राशि का भुगतान किया गया, लेकिन उन्हें मुआवजे के रूप में केवल 25 हजार रुपये मिले.’
भोपाल गैस पीड़ित निराश्रित पेंशनभोगी संघर्ष मोर्चा के बालकृष्ण नामदेव ने कहा, ‘हम ख़ुशनसीब हैं कि ओडिशा के पूर्व मुख्य न्यायाधीश डॉ. एस. मुरलीधर ने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष हमारा मामला प्रस्तुत करने की कृपा की है. इससे पहले डॉ. मुरलीधर ने सर्वोच्च न्यायालय से हम गैस पीड़ितों को पर्याप्त स्वास्थ्य सेवा पाने का अधिकार और सभी भोपाली दावेदारों के लिए प्रो-रेटा मुआवजा दिलाया है.’
गैस त्रासदी से सेहत को हुए नुकसान के गलत वर्गीकरण के मुद्दे पर बोलते हुए भोपाल ग्रुप फॉर इन्फॉर्मेशन एंड एक्शन की रचना ढींगरा ने कहा, ‘यूनियन कार्बाइड के अपने दस्तावेजों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि मिथाइल आइसोसाइनेट के संपर्क से स्वास्थ्य को होने वाली क्षति स्थायी प्रकृति की है, फिर भी मुआवजे के 93% दावेदारों को ‘अस्थायी’ तौर पर क्षतिग्रस्त माना गया है. गैस पीड़ितों को अपर्याप्त मुआवजा मिलने के पीछे यही मुख्य कारण है.’
भोपाल गैस पीड़ित महिला पुरुष संघर्ष मोर्चा के अध्यक्ष नवाब खान ने सुप्रीम कोर्ट के 1991 और 2023 के आदेशों का हवाला देते हुए कहा, ‘अपने आदेशों में सुप्रीम कोर्ट ने साफ तौर पर कहा है कि भोपाल पीड़ितों को दिए जाने वाले मुआवजे में किसी भी तरह की कमी की भरपाई भारत सरकार को करनी होगी. कैंसर और जानलेवा किडनी रोगों से पीड़ित भोपाल के पीड़ितों के लिए कम से कम 5 लाख रुपये के अतिरिक्त मुआवजे के लिए हमारा मामला स्पष्ट रूप से अपर्याप्त मुआवज़ा का मामला है.’
40 साल बाद भी नहीं हटाया गया यूनियन कार्बाइड का जहरीला कचरा
अंग्रेजी अखबार द हिंदू के मुताबिक, भोपाल गैस त्रासदी के चार दशक बाद भी यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड के परिसर में सैकड़ों टन जहरीला कचरा जमा है. अधिकारियों ने द हिंदू से पुष्टि की है कि कई अदालती आदेशों और चेतावनियों के बावजूद सरकारी अधिकारियों ने कचरे का सुरक्षित तरीके से निपटान नहीं किया है.
दस्तावेजों से पता चलता है कि केंद्र सरकार ने 337 मीट्रिक टन जहरीला कचरे के निपटान की योजना को क्रियान्वित करने के लिए मध्य प्रदेश सरकार को 126 करोड़ रुपये जारी किए हैं. इस कचरे को साल 2005 में कारखाने के परिसर में एकत्र कर रखा गया था. 2010 में सरकार द्वारा कराए गए अध्ययन से पता चला कि 337 मीट्रिक टन जहरीले कचरे के अलावा, फैक्ट्री परिसर में करीब 11 लाख टन दूषित मिट्टी, एक टन पारा और करीब 150 टन भूमिगत कूड़ा भी है. सरकार के पास अभी तक इस बारे में कोई योजना नहीं है कि इससे कैसे निपटा जाए.
भोपाल गैस कांड दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक आपदाओं में से एक है. यह घटना 2-3 दिसंबर 1984 की रात को मध्य प्रदेश के भोपाल शहर में हुई थी, जब यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड की फैक्ट्री से मिथाइल आइसोसाइनेट नामक जहरीली गैस का रिसाव हुआ. 40 टन से अधिक जहरीली गैस के रिसाव ने सबसे ज्यादा शिकार शहर के बसे वंचित लोगों को बनाया. यह घटना सुरक्षा संबंधी बड़ी चूक, लागत में कटौती और तकनीकी विफलताओं का परिणाम थी, जिसने तब से 25,000 से अधिक लोगों की जान ले ली है.