यह पिछड़े आदिवासियों का गांव है. नाम है कुजासिंह. मुझे इस गांव के स्कूल में लाइब्रेरी की जांच करनी है. मैं 8 कमरों के एक बदहाल स्कूल में दाखिल होता हूं. एक क्लास में जाकर बच्चों से बात करने की कोशिश करता हूं. लगभग अर्धनग्न अवस्था में जमीन पर बैठे 10-12 साल के 19 बच्चे टकटकी लगाए मुझे देख रहे हैं. उन्हें कुछ समझ नहीं आ रहा क्योंकि मैं हिंदी बोल रहा हूं. उन्हें उड़िया की थोड़ी-बहुत समझ है लेकिन हिंदी की बिल्कुल नहीं. मेरी नजर उन बच्चों के चेहरों पर टिक जाती है.
मैं पास में खड़े टीचर जयंती से पूछता हूं, इन बच्चों के चेहरों पर इतने निशान क्यों हैं?
जयंती बुदबुदाते हुए कहते हैं- ‘यहां कपास की खेती होती है. कपास तोड़ने के लिए बड़े लोगों को झुकना पड़ता है तो किसान छोटे बच्चों को काम में लगाते हैं. इन बच्चों की हाइट छोटी है तो इन्हें झुकना नहीं पड़ता और ये लोग ढेर सारा कपास तोड़ देते हैं. कपास तोड़ने हुए इन बच्चों के चेहरे पर थोड़ा-बहुत निशान आ जाता है.’
मैं पूछता हूं, ‘कपास के चक्कर में इन बच्चों का चेहरा खराब हो रहा है, उसका क्या?’ वह लाचार होकर कहते हैं- ‘हम आदिवासी हैं. हम चेहरे को देखें या पेट को.’
फिर सांस को खींचकर कहते हैं, ‘दरअसल यह कपास की जमीन नहीं है. हमें तो पता ही नहीं कि कपास कैसे उगाते हैं. पैसे का लालच देकर आंध्र वालों ने हमें बर्बाद किया है.’
मेरा ध्यान बच्चों के चेहरे पर अटका रहता है. मन होता है कि किसी बच्चे का चेहरा छू लूं, लेकिन लगता है कि यह अमर्यादित होगा. मैं भारी मन से क्लासरूम से बाहर निकलता हूं. बचपन का पढ़ा याद आता है कि कपास को ‘सफेद सोना’ कहा जाता है. सीढ़ियों से उतरते हुए आंखों के सामने कपास की फसल तैरने लगती है.
मैं ओडिशा के इस आदिवासी इलाके में एक फेलोशिप के तहत शोध करने आया हूं. यह कपास का पहला निशान था जिससे मैं गुजरा था. आगे ऐसे कई निशान मिलने वाले थे.
बिना नस की गुमनाम जांघें
इस कहानी के किरदार किसी पहाड़ पर कपास के बीज बो रहे हैं. मैं ओडिशा के गजपति ज़िले में हूं. गजपति समुद्र के करीब आदिवासियों का ज़िला है, जिसकी आबादी बहुत ही कम है. यह जिला पहले गंजाम का हिस्सा हुआ करता था लेकिन 1992 में इसे अलग ज़िला बना दिया गया.
ज़िला मुख्यालय परलाखेमुंडी आंध्र प्रदेश से एकदम सटा हुआ है. यह 1996 के लोकसभा चुनाव में पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंहराव का संसदीय क्षेत्र भी रहा है. यहीं महेंद्रगिरि पर्वत है. महाभारत के अनुसार पांडव भाई अपने अज्ञातवास के दौरान इसी पर्वत पर रहे थे. इसी पर्वत की छाती से एक नदी निकलती है, जिसका नाम है महेंद्रतनया. यह नदी ओडिशा और आंध्र की सीमा तय करती है.
ओडिशा के इन इलाकों में कई ऐसे पहाड़ी गांव हैं, जहां कपास की खेती होती है. कुजासिंह गजपति के गुम्मा ब्लॉक का एक गांव है. काम के सिलसिले में इस गांव में अक्सर जाना होता है. कुजासिंह एक पहाड़ के कांख में बसा 20 घरों का गांव है, जिसके ऊपर जंगल है और नीचे जमीन. गांववाले कहते हैं यहां एक पालतू अजगर भी निवास करता है जो किसी सड़क पर लेटा रहता है. मैं इस अजगर को देखना चाहता हूं, लेकिन मुझे यह कभी दिखाई नहीं दिया.
गांववालों का मुख्य भोजन पानी और भात है और साथ में रहती है हाथ से पकाई हुई शराब. गांव के नीचे की जमीन पर कपास की खेती होती है. गांव में आकर लगेगा कि आप सफेद फूलों से बिछी जमीन देख रहे हैं. मैंने पहली बार कपास यहीं देखा था और याद आई थी केदारनाथ सिंह की कविता-
‘यह जो आपकी कमीज है
किसी के खेतों में खिला कपास का फूल है’
पिछले दिनों एक सरकारी योजना के लिए इस गांव में सर्वे करने पहुंचा. उस रोज़ खूब बारिश हो रही थी. पंचायत ऑफिस में कई बूढ़ी औरतें आ रही थीं, और लगभग सभी लंगड़ाते हुए चल रही थीं. मैंने बैठे मेडिकल ऑफिसर से पूछा, ‘इन लोगों को कोई बीमारी है क्या?’
मेडिकल ऑफिसर बोला, ‘यहां कपास की खेती होती है. लोग कपास बेच देते हैं लेकिन बूढ़ी महिलाएं अपने लिए कुछ बोरी कपास रख लेती हैं और साल भर अपनी जांघ पर हाथ से रगड़-रगड़कर पूजा करने वाले दीये की बाती बनाती हैं. यह आंध्र प्रदेश के मंदिरों में खूब बिकता है. यह काम महिलाएं 20-25 सालों से कर रही हैं, जिससे इनके जांघ की नसें बैठने लगी हैं.’
यह बात वह एक सांस में ऐसे बोल गया, जैसे रट रखा हो. मैं हिम्मत नहीं जुटा पाया कि पूछ सकूं कि उनको मजदूरी कितनी मिलती है? मेरे दिमाग में उन पैरों का बिंब तैर रहा था जिनकी नसें मिट चुकी हैं.
मैं स्कूटी उठाकर अपने घर की ओर भागा. बाद में पता चला कि उन औरतों को एक पैकेट बाती बनाने के 4 रुपये मिलते हैं और यह बाजार में 12 से 15 और कहीं 20 रुपये में बिकता है. हालांकि, नई पीढ़ी की औरतों ने यह काम करना बंद कर दिया है लेकिन पुरानी पीढ़ी यह काम कर रही है.
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कई रात नींद नहीं आती. उसकी जगह बिन बुलाए स्मृतियां आ जाती हैं, और ठहर सी जाती हैं. आंखों के ऊपर की छत जालीदार पर्दा बन जाती है और उस पर बरसने लगती हैं स्मृतियां. आंखें नम होने लगती हैं. पूरा बदन मुंह के साथ कुछ बुदबुदाने लगता है. पैर जड़वत हो जाते हैं. हम उठने की कोशिश करते हैं पर स्मृतियां बार-बार पटक देती हैं. यह पूरे एक महीने तक मेरे साथ होता रहा और कपास मेरी स्मृतियों से गया नहीं.
इस अर्धनिद्रा का अंत उस क्षण हुआ जब मैंने कवि केदार की पंक्तियों को कपास के इस जंगल में थोड़ा तब्दील करते हुए बुन दिया..
‘यह जो तुम्हारे दीये की बाती है
कितनों की टांग की नसें खा जाती है.’
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कपास का पाशः बीटी कॉटन के नाम पर कैंसर बो रहे किसान
कपास की कहानी सिर्फ़ इतनी नहीं है. कपास के बीज की एक प्रजाति है जिसका नाम है बीटी कॉटन, ओडिशा के दक्षिणी हिस्से के कुछ जिलों में इस प्रजाति की खेती होती है, जिससे वहां का जनजीवन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है.
मैं पहाड़ों से घिरे एक कपास के खेत में हूं. पौधों से कपास निकाला जा रहा है. बच्चे यह काम करते कहीं अधिक दिखाई दे रहे हैं . यह खेत गांव के सरपंच रघु का है. कुजासिंह गांव में जोरासवर आदिवासी समुदाय रहता है. 46 साल के रघु से मैं पूछता हूं, ‘कपास की खेती कैसे होती है? मुझे भी अपने गांव जाकर कपास बोना है.’
रघु कपास को पौधे से नोंचते हुए कहते हैं, ‘मत कीजिएगा खेत-जमीन खराब हो जाता है.’
दक्षिणी-पश्चिमी ओडिशा के कुछ ज़िलों में बीटी कपास एक समय एक फरिश्ते की भांति आया था. कालाहांडी , रायगढ़ा, गजपति और कोरापुट के कुछ पहाड़ी इलाकों में एक समय किसानों ने जोर-शोर से इसकी खेती शुरू की थी. इसने उन्हें तेजी से आर्थिक लाभ दिया लेकिन कई लोगों को आज यह खेती घाटे का सौदा लगती है. कारण है कि बीटी कपास के लिए अनुकूल हो चुके खेत अन्य फसलों के लिए बंजर हो गए हैं. साथ ही, प्रतिबंधित किस्म के बीजों और कीटनाशकों के इस्तेमाल ने स्थानीय लोगों के जीवन को बुरी तरह प्रभावित किया है.
रघु कहते हैं, ‘कप्पा (कपास) की फसल से पहले हम लोग मंडिया (बाजरा), अरहर (दाल) और चावल की खेती करते थे. शुरू-शुरू में बीटी के बीज बहुत कम मिलते थे. जब कोई आंध्र प्रदेश जाता था तो इसे लेकर आता था. इसके बाद बीजों को ओडिशा लाकर बेचना एक कारोबार बन गया.’
रघु ने आगे बताया, ‘जब मैंने पहली बार कपास की खेती की तो खूब फायदा हुआ. उतनी मेहनत भी नहीं लगती थी, जितना चावल उगाने में लगती है. पर अब सब कोई यही उगाने लगा. अब कोई फायदा नहीं होता. इसके उलट कर्ज पर कर्ज चढ़ता जाता है.’
लेकिन जब फायदा नहीं होता, वे किसी और चीज की खेती क्यों नहीं करते?
रघु रुआंसे होकर कहते हैं, ‘अब इस जमीन पर कपास के अलावा कुछ नहीं होगा.’
आखिर क्यों?
कपास का कुचक्र
रघु कहते हैं, ‘जब हमने कपास लगाया तो हमें पता नहीं था कि यह खेत को अपने अनुकूल बना लेगा. बाहर के व्यापारी हमें बीज और खाद दे देते थे.’ वे कहते हैं कि पिछले साल उन्होंने अरहर बोया था, लेकिन फसल नहीं बढ़ी. इस बार उन्होंने कपास ही बोया है.
आंकड़ों के मुताबिक रायगड़ा में कपास का रक़बा 16 वर्षों में 5,200 प्रतिशत बढ़ गया है. 2002-03 में 1,631 एकड़ ज़मीन पर कपास की खेती हुई थी, जो 2018-19 में बढ़कर 86,907 एकड़ हो गया.
एक दिन मैं अपने दोस्त जयंती से पूछता हूं, ‘यह कपास खरीदता कौन है?’
पता चलता है कि उनके चाचा पूरे गांव का कपास खरीदते हैं.
कुछ दिन बाद मैं जयंती के चाचा लोकनाथ के घर में हूं. बहुत बड़ा और सुंदर-सा घर. लकड़ियों के तरह-तरह के फ्रेम. गांधीजी की मूर्ति और जगन्नाथ भगवान की प्रतिमा. कहीं से नहीं लगता कि मैं किसी आदिवासी इलाके में हूं. घर के बरामदे में लगभग 50 बोरी से ज्यादा कपास रखे हैं और घर के आगे छोटे ट्रक पर कपास के बोरे लादे जा रहे हैं. लोकनाथ बोरों की गिनती कर रहे हैं. वे पहनावे से एकदम तेलुगु दिखाई देते हैं. ओडिशा का वह हिस्सा जो आंध्र से जुड़ता है, वहां के अधिकांश संपन्न लोग आंध्र प्रदेश के लोगों की जीवन शैली से ज्यादा प्रभावित दिखते हैं.
लोकनाथ कपास की खेती पर कहते हैं, ‘पहले इस इलाके में किसका घर था? किसके बच्चे कपड़े पहनते थे? सब कुछ जो यहां दिख रहा है कप्पा की बदौलत ही तो है. अब कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी.’
मैं पूछता हूं, ‘फसल का बीज कहां से आता है?’
लोकनाथ कहते हैं, ‘मत पूछिए. सारा लफड़ा तो बीज का ही है. बीटी को आंध्र वालों ने बैन कर रखा है. वहां कपास उगा नहीं सकते, पर वहां कपास की मांग ज्यादा है. वो लोग बीज दे देते हैं और बॉर्डर इलाके में कपास उगाया जाता है.’
‘आंध्र प्रदेश से बीज लाता कौन है?’ मेरे इस सवाल से वहां कुछ मिनटों का सन्नाटा फैल गया. मामले को संभालते हुए जयंती ने कहा, ‘असल में चाचा ही वहां से बीज लाते हैं. खाद भी चाचा ही उपलब्ध कराते हैं और जब फसल आती है तो सभी किसान चाचा को फसल बेचते हैं.’
मैं पूछता हूं, ‘कोई खाद/उर्वरक भी लगता है क्या? किसान कह रहे थे कि एक तो महंगा बीज और खाद उससे भी महंगा.’ लोकनाथ लगभग उठते हुए कहते हैं, ‘क्या महंगा? एक ग्लाईफोसेट ही तो थोड़ा महंगा है, जिस पर हंगामा मचा है.’
मैं सोचता हूं कि अब ये कौन-सी बला है?
लोकनाथ कहते हैं, ‘डॉक्टर लोग कह रहे हैं कि इसके छिड़काव से बीटी कॉटन के किसानों को कैंसर हो रहा है. किडनी फेल हो रही है. सब यहां अफवाह फैलाकर आदिवासियों को भूखे मारना चाहते हैं.’
मैं पूछता हूं, ‘ग्लाईफोसेट की खरीद का रेट क्या है?’
लोकनाथ अपनी पीठ खुजाते हुए कहते हैं, ‘इस बार तो मैं 6,200 रुपये में लिया हूं. पिछली बार 5,600 रुपये प्रति क्विंटल था.’
‘आप खुद कपास नहीं उगाते?’
लोकनाथ के मुंह से अचानक निकलता है, ‘किसको मरना है भाई.’ फिर बात बदलते हुए कहते हैं, ‘समय कहां मिलता है?’
कुछ दिन बाद एक शाम चाय पीते हुए मेरी मुलाकात एक मेडिकल ऑफिसर से हुई. कलेक्टर ऑफिस में मेरा आना-जाना रहा था तो वह मुझे जानते थे. बातचीत राममनोहर लोहिया और किशन पटनायक के समाजवाद पर हो रही थी. किशन पटनायक ओडिशा के कालाहांडी के रहने वाले थे. मैं पूछ बैठा, ये ग्लाइफोसेट क्या है?’ वह हकबका गए और तपाक से पूछा, ‘कप्पा के खेत में गए थे क्या?’
वे बोलते हैं, ‘घास-फूस को खत्म करने के लिए किसान इसे बीज रोपने से पहले खेत में छिड़कते हैं लेकिन यह कैंसर की जड़ है और अगर गलती से शरीर के भीतर चला जाए तो किडनी का खराब होना तय है. रोज हॉस्पिटल में मरीज आ रहे हैं. सरकार ने बैन कर रखा है लेकिन लोग मानें तब न. आंध्र से चुपके से डीलर लाकर बेचते हैं.’
पश्चिमी ओडिशा में कैंसर के मरीजों की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है. आईओएसआर जर्नल ऑफ डेंटल ऐंड मेडिकल साइंसेज के अक्टूबर 2018 के अंक में छपे एक शोध पत्र के अनुसार, यहां 2014-15 में कुल 1,017 कैंसर के मामले दर्ज हुए थे. 2015-16 के दौरान यह संख्या बढ़कर 1,066 और 2016-17 के दौरान 1,098 हो गई थी.
इस रिसर्च में राज्य के 23 ज़िलों पर एक अध्ययन किया गया था. इस अध्ययन में पाया गया कि कैंसर के कुल मामलों में से 26.3 प्रतिशत के साथ बरगढ़ सबसे अधिक प्रभावित जिला है.
यह है उस सफ़ेद फूल की कहानी, जहां बच्चों का छिला हुआ चेहरा है. बिना नस की गुमनाम टांगें है. कैंसर से त्रस्त देह है और हैं अनपढ़ आदिवासियों की जख्मी आत्मा, जिन्हें उनकी पारंपरिक खेती से व्यावसायिक खेती की ओर मोड़ा गया और तमाम संकटों के साथ छोड़ दिया गया.
(लेखक बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से पढ़ाई कर वर्तमान में ओडिशा में शोध कर रहे हैं.)