बीते दिनों जलवायु संकट को लेकर दुनिया की चिंता अपने चरम पर थी, मौका था कॉप-29 में जलवायु परिवर्तन के आर्थिक पहलुओं पर विश्व के नेताओं और नीति-निर्माताओं के बीच जोरदार बहस. लेकिन अजरबैजान की राजधानी बाकू में हुई कॉप-29 की बैठक कुछ ख़ास हासिल नहीं कर पाई. इस बार बैठक जलवायु संकट के प्रति डोनाल्ड ट्रंप के निर्वाचन से उपजी निराशा के साये में शुरू हुई. इसी कड़ी में बैठक की समाप्ति आते आते चीन के आधिकारिक रुख ने जलवायु विमर्श को एक नए किस्म के गतिरोध पर ला खड़ा किया जो अगले कई सालों तक इस संदर्भ में चल रहे वैश्विक प्रयासों को प्रभावित करता रहेगा.
जलवायु बैठक के प्रति नए स्तर की उदासीनता तब देखी जा रही है जब हर हफ्ते दुनिया के किसी न किसी कोने में बाढ़, जंगल की आग, अत्यधिक गर्मी, चक्रवात, या मौसम की चरम स्थितियां देखने को मिल रही हैं.
कॉप-29 बैठक में इस बार मुख्य मुद्दा यह था कि जलवायु कोष के नए लक्ष्य के अनुरूप ‘ऐतिहासिक जिम्मेदारी के सिद्धांत’ के आधार पर किसे और कितनी राशि का योगदान करना चाहिए. चूंकि इसमें सभी देशों खासकर विकसित देशों की वित्तीय जिम्मेदारियां निर्धारित की जानी थी, इस कारण इसे ‘फाइनेंस कॉप’ भी कहा गया. जलवायु वित्त से आशय उस आर्थिक मदद से है जो गरीब और विकासशील देशों को जलवायु संकट से बचाने के लिए पेरिस जलवायु समझौते के तहत अमीर देश जुटा रहे हैं.
इसी बीच कार्बन ब्रीफ की एक रिपोर्ट आई जिसके मुताबिक चीन न सिर्फ सालाना सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक है बल्कि ऐतिहासिक उत्सर्जन में भी चीन यूरोप के 27 देशों से सामूहिक उत्सर्जन को पीछे छोड़ विश्व का दूसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक देश बन गया है. इसके मद्देनजर विकसित देश जलवायु संकट से लड़ने के लिये बनाये गये कोष में चीन सहित कुछ मध्य-पूर्व के समृद्ध तेल उत्पादक देशों की भागीदारी तय करना चाह रहे थे, जबकि विकासशील देशों का समूह जी-77 ‘जलवायु कोष’ के लिये 1.3 ट्रिलियन डॉलर सालाना का लक्ष्य लेकर चल रहा था.
जहां अमीर देशों का कार्बन उत्सर्जन संतुलन की ओर बढ़ रहा है, वहीं पिछले चार-पांच दशकों में चीन का कार्बन उत्सर्जन बेतहाशा बढ़ा है. 1992 तक चीन का ऐतिहासिक उत्सर्जन यूरोपीय संघ के उत्सर्जन का मात्र 41% था. इसी बीच अगले कुछ दशकों में ही चीन ने अपने 1,000 से अधिक कोयला-आधारित बिजली संयंत्रों की मदद से अपनी अर्थव्यवस्था को 40 गुना से अधिक विस्तार दे दिया. इसके परिणामस्वरूप, आज चीन यूरोपियन संघ और अमेरिका को पीछे छोड़ दुनिया में ग्रीनहाउस गैसों का सबसे बड़ा वार्षिक उत्सर्जक बन चुका है.
मानव इतिहास में जलवायु संकट अब तक के सबसे निर्णायक दौर से गुजर रही है. क्या किया जाना है, यह 2015 के पेरिस जलवायु समझौते में पहले ही तय हो चुका है. पर विवाद इस बात पर है कि प्रयास कौन करेगा और किस हद तक करेगा?
इस खींचतान में एक ओर जलवायु परिवर्तन के लिए ऐतिहासिक रूप से जिम्मेदार अमेरिका और यूरोप के अमीर देश हैं, तो दूसरी ओर भारत, चीन, और अन्य विकासशील एवं गरीब देश हैं, जो जलवायु संकट का सबसे अधिक सामना कर रहे हैं.
साल 2017 तक वायुमंडल में जमा मानव जनित कार्बन के सबसे बड़े उत्सर्जक देश थे–संयुक्त राज्य अमेरिका (25%), यूरोप (22%), चीन (12.6%), रूस (6%), जापान (4%) और भारत (3%) . महाद्वीप के स्तर पर उत्तरी अमेरिका, यूरोप और एशिया का क्रमशः योगदान 29%, 33% और 29% था, जबकि दक्षिण अमेरिका और अफ्रीका का योगदान मात्र 3% ही था.
भारत और चीन, जहां विश्व की सबसे बड़ी आबादी निवास करती है, ऐतिहासिक रूप से दुनिया के शीर्ष दस कार्बन उत्सर्जकों में शामिल जरूर हैं, पर प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन अभी भी तुलनात्मक रूप से कम है. चूंकि वैश्विक तापमान वृद्धि के लिए सबसे बड़ी ऐतिहासिक जिम्मेदारी अमेरिका और यूरोप जैसे समृद्ध देशों की है, ऐसे में इसे रोकने में अग्रणी भूमिका भी उन्हीं की बनती है.
चीन का लगातार बढ़ता कार्बन उत्सर्जन अनेक विरोधाभास झेल रहे जलवायु विमर्श में एक नया पेंच बनकर उभरा है. चीन ने पेरिस जलवायु समझौते के तहत 2060 तक नेट-जीरो का लक्ष्य तय किया है, लेकिन उसका वार्षिक कार्बन उत्सर्जन अभी भी अधिकतम स्तर तक नहीं पहुंचा है और साल दर साल बढ़ ही रहा है. चीन का दावा है कि यह दशक उसके उत्सर्जन के उच्चतम पर पहुंचने का समय होगा, जिसके बाद उसमें गिरावट आएगी. ये जरूर है कि पिछले कुछ सालों में चीन ने पवन टर्बाइन, सौर पैनल, और इलेक्ट्रिक वाहनों की क्षमता में अत्यधिक विकास किया है, पर ऐसी भी आशंका है कि उसका ऐतिहासिक उत्सर्जन जल्द ही अमेरिका के करीब भी पहुंच सकता है.
अब अमीर देशों को जलवायु संकट की जिम्मेदारी के तहत जलवायु कोष के लिए योगदानकर्ता देशों की सूची में चीन सहित अन्य देशों को भी शामिल करने का बहाना मिल गया है.
कॉप-29 में इस बात पर भी जोर रहा कि दस सबसे बड़े उत्सर्जक में शामिल होने और एक खास स्तर से अधिक प्रति व्यक्ति आय होने के कारण चीन को जलवायु वित्त का भार उठाना ही पड़ेगा. हालांकि, चीन इस सुझाव का विरोध करता है और कई देशों के साथ अपने द्विपक्षीय आर्थिक सहयोग को जलवायु कोष में अपना योगदान बताता है.
चीन के अपने ‘जलवायु कोष’ की अवधारणा के अनुसार, वह साल 2016 से अब तक विकासशील देशों पर लगभग 24.5 बिलियन डॉलर खर्च कर चुका हैं. जाहिर है चीन वही रास्ता अपना रहा है जो अब तक विकसित देश चुनते आए हैं. 1992 के पृथ्वी सम्मेलन के अनुसार, चीन, भारत और अन्य विकासशील देशों को जलवायु संकट की वित्तीय जिम्मेदारियों से मुक्त रखा गया था, जबकि अमेरिका, यूरोप और अन्य समृद्ध देशों को कमजोर देशों की मदद के लिए नामित किया गया था.
चीन का मानना है कि जलवायु संकट की जिम्मेदारी तय करने के लिए कुल उत्सर्जन के साथ-साथ प्रति व्यक्ति उत्सर्जन को भी मानदंड बनाना चाहिए. चीन का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन अमेरिका, यूरोपीय संघ, जापान और कनाडा जैसे देशों से कम है. इस तर्क में, भारत और चीन समान स्थिति पर प्रतीत जरूर होते हैं, पर भारत का ऐतिहासिक उत्सर्जन अभी भी चीन का एक-चौथाई और वैश्विक औसत के आसपास ही है. भारत की प्राथमिकता अभी भी अपनी बड़ी आबादी के लिए बुनियादी सुविधाएं जुटाने पर है, जबकि चीन दशकों से वैश्विक मैन्युफैक्चरिंग हब के रूप में आर्थिक विकास का लाभ लेता रहा है.
जलवायु कोष पर अमीर देशों की उदासीनता और चीन और मध्य पूर्व के समृद्ध देशों के अड़ियल रुख के कारण, सालाना 1.3 ट्रिलियन डॉलर की बजाय केवल 300 बिलियन डॉलर सालाना जुटाने पर सहमति बनी, जिसे भारत सहित कई विकासशील देशों ने ‘ऊंट के मुंह में जीरा’और ‘बहुत देर से, बहुत थोड़ा’ करार दिया. कुल मिलाकर, कॉप-29 से जलवायु संकट के समाधान को लेकर स्पष्ट निर्णय की उम्मीद लगाए देशों को निराशा हाथ लगी.
ट्रंप प्रशासन के पुनः निर्वाचन के समय जलवायु वार्ताओं पर संकट की आशंका थी, लेकिन अब चीन के बढ़ते उत्सर्जन, वैश्विक व्यापार में प्रभुत्व और जलवायु वित्त में योगदान से बचने की नीति ने जलवायु विमर्श को और चुनौतीपूर्ण बना दिया है. पहले विकसित देशों के अन्यायपूर्ण दृष्टिकोण का सामना किया जा रहा था, अब चीन की रणनीति भी इसमें शामिल हो गई है, जिससे जलवायु संकट और आर्थिक योगदान के मुद्दे पर सहमति बनाना और भी कठिन हो गया है. विकासशील देशों के लिए वित्तीय सहायता हासिल करना और जलवायु संकट का न्यायपूर्ण समाधान खोजना और जटिल हो गया है.
(लेखक एमिटी विश्वविद्यालय, हरियाणा के पृथ्वी और पर्यावरण विभाग के प्रमुख हैं.)