इस घुप्प अंधेरे में नागरिकों के विवेक को संबोधित करने वाले लोग कहां हैं?

इस समय संविधान की सबसे बड़ी सेवा सत्ताधीशों के स्वार्थी मंसूबों की पूर्ति के उपकरण बनने से इनकार करना है. समझना है कि संविधान के मूल्यों को बचाने की लड़ाई सिर्फ न्यायालयों में या उनकी शक्ति से नहीं लड़ी जाती. नागरिकों के विवेक और उसकी शक्ति से भी लड़ी जाती है.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रवर्ती/द वायर)

गत दिनों, संविधान दिवस (26 नवंबर) से ऐन पहले, सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में संविधान की प्रस्तावना से ‘समाजवादी’ व ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को हटाने की बहुप्रचारित याचिका को ठुकराकर कह दिया कि संसद को संविधान में ऐसे किसी भी संशोधन करने का अधिकार है- उसकी प्रस्तावना में भी, क्योंकि प्रस्तावना भी उसका अंग है, तो कई हल्कों में राहत का अनुभव करते हुए खुशी मनाई गई. इन दोनों शब्दों को 1976 में इंदिरा गांधी के प्रधानमंत्रीकाल में 42वें संविधान संशोधन के जरिये प्रस्तावना में शामिल किया गया था. उस वक्त देश में आपातकाल लागू था और लोकसभा बढ़ाए गए कार्यकाल में.

इससे पहले इस न्यायालय ने भाजपाशासित राज्यों में ‘बुलडोजर न्याय’ (पढ़िए : अन्याय) के विरुद्ध कुछ दिशानिर्देश जारी किए तो भी ऐसी ही राहत अनुभव की गई थी. हां, खुशी भी. यों, सच्चाई यह है कि ऐसे फैसले व दिशानिर्देश, वे न्यायालयों के हों या सरकारों के, अब खुशी के वायस नहीं रह गए हैं. अव्वल तो ज्यादातर मामलों में वे इतनी देर से सुनाए जाते हैं कि जरूरतमंदों के निकट उनका कोई हासिल नहीं रह जाता. बुलडोजर अन्याय के खिलाफ आए दिशानिर्देश इसकी सबसे बड़ी और ताजा मिसाल हैं, जो अभी भी अन्याय पीड़ितों को पूरी तरह उसके दुष्चक्र से नहीं निकाल सके हैं.

दूसरे, उनसे जो थोड़ी बहुत राहतें मिलती हैं, वे बाढ़ के वक्त दी जाने वाली राहतों की तरह बहुत दूर या देर तक साथ नहीं निभा पातीं. क्योंकि सयाने लोग उनकी कोई न कोई काट ढूंढ़ लाते हैं. यह समय इतना अंधेरा व अलोकतांत्रिक हो गया है तो इसका एक कारण यह भी है कि इन सयानों ने उसको इतना मायावी बना दिया है कि हम जरा-जरा सी राहतों पर भी आह्लादित होने को विवश हैं.

ये सयाने लोग!

दुर्भाग्य से इन सयाने लोगों में सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ तक का नाम शामिल है. संसद द्वारा 1991 में बनाए गए उपासना स्थल कानून की जिस अतिरिक्त, अनावश्यक व असंगत व्याख्या ने देश के अमन-चैन के लिए ऐसे अंदेशे पैदा कर दिए हैं, जैसे उसकी वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाएं स्वीकार कर उसे अवैध करार देने पर भी पैदा नहीं होते, वह व्याख्या हमें चंद्रचूड़ की ही ‘देन’ है.

प्रसंगवश, राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद की विकरालता के दौर के इस कानून के अनुसार किसी भी पूजास्थल का वह ‘धार्मिक चरित्र’ बदला नहीं जा सकता, जो देश के आजाद होने के दिन यानी 15 अगस्त, 1947 को था.

तब राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के न्यायालय में विचाराधीन होने के कारण उसे इस कानून की परिधि से बाहर रखा गया था. फिर भी यह आश्वस्त करता था कि अब आगे किसी पूजास्थल का विवाद (वह एक से ज्यादा धर्मों के बीच हो या एक ही धर्म के दो या दो से ज्यादा संप्रदायों के बीच) अयोध्या विवाद जैसा नासूर नहीं बन सकेगा.

लेकिन वाराणसी के ज्ञानवापी मस्जिद विवाद में जस्टिस चंद्रचूड़ ने एक अतिरिक्त व्याख्या (कि उक्त कानून धर्मस्थलों का ‘धार्मिक चरित्र’ बदलने से ही रोकता है, उसे जानने के लिए सर्वे करने से नहीं) द्वारा ऐसे विवादों के बहाने गढ़े मुर्दे उखाड़ते रहकर देश को बर्र के अनेक नए छत्तों के हवाले करने के मंसूबे पालने वालों की बांछें खिला दीं.

अब ऐसे मंसूबों वाले महानुभाव उत्तर प्रदेश के संभल जिले की मुगलकालीन शाही जामा मस्जिद को हरिहर मंदिर बताते हुए अदालती आदेश पर उसके धार्मिक चरित्र का सर्वे कराने तक तो जा ही पहुंचे हैं, जिसके चलते हुई हिंसा ने पांच जानें ले ली हैं, तो राजस्थान में अजमेर स्थित ख्वाजा मोईनुददीन चिश्ती की 559 साल पुरानी ऐतिहासिक दरगाह को भी नहीं बख्श रहे. संभल की अदालत की ही राह पर चलते हुए अजमेर सिविल कोर्ट ने दरगाह के मंदिर होने के दावे को सुनवाई के योग्य मान लिया है. अलबत्ता, संभल जैसे एकतरफा आदेश से बचते हुए संबंधित पक्षों को नोटिस वगैरह जारी किए हैं.

बाबरी मस्जिद मामले में भरपूर गुल खिला चुका न्यायिक सयानेपन का यह सिलसिला आगे कहां तक जाएगा, शांति व सौहार्द के पैरोकारों के लिए इसकी कल्पना भी परेशानकुन है. सर्वोच्च न्यायालय ने संभल मामले में सद्भाव के लिए निचली अदालत पर अंकुश समेत जो कदम उठाए हैं, उनके बावजूद इन हालात में वह विवाद भी बने रहना और लंबा खिंचना ही है.

अजग-गजब नजीरें!

इसे सयानेपन की जड़ें कितनी ‘गहरी’ हैं, इसे इस मिसाल से भी समझा जा सकता है कि संविधान निर्माण के बाद शांति निकेतन से जुड़े प्रख्यात चित्रकार नंदलाल बसु ने अपने छात्रों के सहयोग से उसकी मूल प्रति को जिन चित्रों से सजाया, उनमें पहला अशोक चिह्न का था, जबकि कई अन्य धार्मिक प्रकृति के थे और मुखपृष्ठ सुनहरे शतदल कमल से सजा हुआ था.

संविधान सभा में सवाल उठा कि मूल प्रति में इन चित्रों के रहते संविधान धर्मनिरपेक्ष कैसे होगा, तो मतदान के जरिये फैसला हुआ कि मूल प्रति में लिखे शब्द ही संविधान का हिस्सा होंगे, उस पर बने चित्र नहीं.

लेकिन 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद उसके मलबे पर बने ‘अस्थायी राम मंदिर’ में रखी मूर्तियों के दर्शन व भोग-राग की अनुमति के लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका दायर की गई तो जस्टिस हरिनाथ तिलहरी ने एक जनवरी, 1993 के अपने आदेश में कह दिया कि चूंकि संविधान की मूल प्रति में भगवान राम व उनसे जुड़े चित्र भी बने हैं, इसलिए वे संवैधानिक शख्सियत हैं और हिंदू जहां भी उनके दर्शन की इजाजत मांगते हैं, वह उन्हें दी ही जानी चाहिए.

ऐसे अनेक सयाने जज अब खुल्लमखुल्ला संविधान के बजाय ‘मनुस्मृति’ से प्रेरित होते और अपने फैसलों में उसके उद्धरण देते हैं.

यहां इस बात पर भी गौर करना जरूरी है कि ये सभी सयाने, वे न्यायपालिका, कार्यपालिका या विधायिका किसी भी क्षेत्र के हों, असंदिग्ध रूप से हमारे वर्तमान सत्ताधीशों के समर्थक व शुभचिंतक हैं और यह महज संयोग नहीं है कि उनका एक हिस्सा हर मस्जिद के नीचे शिवलिंग तलाशते और इसके लिए उसके ‘धार्मिक चरित्र’ का सर्वें कराते रहना चाहता है, जबकि दूसरा उनसे इतना भी नहीं पूछना चाहता कि जब कानूनन उस चरित्र को बदलने की मनाही है तो इसका हासिल क्या हो सकता है- सिवा हमें उस कालखंड में ले जाने के, जब हमारे पुरखों ने अपनी लज्जा ढकने के लिए आगे-पीछे पत्ते लपेटना भी नहीं सीखा था.

अकारण नहीं कि सत्ताधीशों के पितृसंगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत के हर मस्जिद के नीचे शिवलिंग तलाशने के विरुद्ध मत व्यक्त करने के बजाय यह मंसूबा कमजोर नहीं पड़ा है. उनके खुद के शुभचिंतक सयानों ने भी जिस तरह उनके इसके विरुद्ध होने को तवज्जो नहीं दी है, उससे लगता है कि दोनों ‘मिली-मार’ कर रहे हैं.

इन सयानों को बर्ताव में कौन कहे, संविधान की पोथियों में भी धर्मनिरपेक्षता व समाजवाद शब्द बर्दाश्त नहीं हैं और वे जानबूझकर नहीं समझना चाहते कि ये शब्द संविधान के मूल ढांचे (जिसे कतई बदला नहीं जा सकता) का हिस्सा हैं और इन्हें हटाने की कोई भी कोशिश असंवैधानिक. देश में इनको लेकर कोई भ्रम नहीं है और सामान्य देशवासी भी उनके अर्थ समझते हैं.

पोथियों में भी बर्दाश्त नही!

अब यह तो कोई बताने की बात भी नहीं कि इस पितृसंगठन का हमारे संविधान, लोकतंत्र और उनके समता, न्याय व बंधुत्व जैसे सारे उदात्त मूल्यों के घोर विरोध का इतिहास रहा है- उनके खात्मे के लिए उनके इस्तेमाल का भी. इसीलिए उसके सत्ताधीश स्वयंसेवक देशवासियों को चकमा देने के लिए संविधान की पोथी को माथे से तो लगाते नहीं थकते, लेकिन उसे ईमानदारी से बरतते नहीं. उसकी मनमानी व्याख्याएं करके खुद को उसका सबसे बड़ा रक्षक जरूर बताते हैं. उस दुश्मन की तरह जो परिस्थितिवश दोस्त बनने का अभिनय करने को ‘मजबूर’ हो.

अलबत्ता, तारीफ करनी होगी उनके अभिनय की कि ‘धर्मनिरपेक्षता’ व ‘समाजवाद’ संविधान में बने हुए हैं तो भी उन्होंने उनकी अवज्ञा की किसी भी कवायद पर कोई अंकुश नहीं रहने दिया है. इसके चलते धर्मनिरपेक्षता अब कहीं सर्वधर्म समभाव के रूप में भी नजर नहीं आती. इस बहुभाषी बहुधर्मी देश में किसी भी तरह के भेदभाव से परे सारे नागरिकों की धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा के उसके उद्देश्य की पूर्ति की तो बात भी कौन करे, जब धार्मिक अल्पसंख्यक कदम-कदम पर खुद को अरक्षित व अलग-थलग महसूस करने को अभिशप्त हैं.

इतना ही नहीं, अनेक समारोहों में प्रधानमंत्री, प्रधानमंत्री कम और धर्माधीश ज्यादा दिखते हैं और हिंदुत्ववादी कर्मकांडों के बीच सारे धर्मों के प्रतिनिधित्व का दिखावा तक करने की जरूरत महसूस नहीं करते.

समता पर आधारित समाजवाद के संवैधानिक संकल्प के बावजूद उनकी सरकार ने देश के संसाधनों के अहितकारी संकेंद्रण की ऐसी ‘धूम’ मचा रखी है कि गैर-बराबरी अपनी कोई सीमा ही नहीं मान रही और राज्य का स्वरूप भी कल्याणकारी नहीं रह गया है.

दूसरी ओर उनकी पार्टी के योगी आदित्यनाथ जैसे मुख्यमंत्री जब भी मौका पाते हैं, धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद का भरपूर मजाक उड़ाया करते हैं. उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि जिस संविधान की शपथ लेकर वे चुनाव लड़े और सत्ता में आए हैं, उसके मूल में होने के कारण ये बहुत पवित्र हैं और ईमानदारीपूर्वक बरते जाने की मांग करते हैं. योगी ने तो सर्वोच्च न्यायालय के इन्हें प्रस्तावना से न हटाने के फैसले के बाद भी यह कहने से परहेज नहीं किया कि इन शब्दों को एक बदनीयत सरकार द्वारा संविधान से छेड़छाड़ के लिए प्रस्तावना में लाया गया था. भले ही कई लोगों को लगा कि उनका ऐसा कहना सर्वोच्च न्यायालय के फैसले की अवमानना है.

क्या करें?

सवाल है कि 75 साल पहले इस संविधान को अधिनियमित, अंगीकृत व आत्मार्पित करने वाले ‘हम भारत के लोग’ इस अंधेरे में किधर से और कैसे नई राह पा सकते हैं- खासकर तब, जब संविधान निर्माता बाबा साहेब आंबेडकर की उस चेतावनी को, कि यह संविधान बुरे लोगों के हाथ पड़ गया तो विषफल देने लगेगा, भुलाकर उस पर अमल का दायित्व ऐसी जमात को सौंप चुके हैं, जिसे उसको नमन करते हुए उसके गुणों व मूल्यों को नष्ट करने में महारत हासिल है?

संभवतः बाबा साहेब को तभी एक न एक दिन ऐसी परिस्थिति के आने का अंदेशा था. इसलिए उन्होंने चेता दिया था कि कोई भी विचार, चाहे वह लोकतंत्र और संविधान का ही क्यों न हो, अजर-अमर नहीं होता और उसे जिंदा रखने के लिए लगातार खाद पानी देते रहना और अंतर्विरोधों को सुलझाना होता है.

साफ है कि वे समझते थे कि संविधान की शक्ति उसकी पोथियों में नहीं, बल्कि उसे बरतने में निहित है, जिसमें कोताही उसका और उसकी संस्थाओं का इतना क्षरण कर देती है कि वे उसे क्या बचाएंगी, अपना स्वरूप भी नहीं बचा पातीं. उन देशों में जहां सेना संविधान को रौंदने पर आमादा हो जाती है, संविधान को भला कौन बचाता है?

समझ रहे हैं आप? इस समय संविधान की सबसे बड़ी सेवा सत्ताधीशों के स्वार्थी मंसूबों की पूर्ति के उपकरण बनने से इनकार करना है. समझना कि संविधान के मूल्यों को बचाने की लड़ाई सिर्फ न्यायालयों में या उनकी शक्ति से नहीं लड़ी जाती. नागरिकों के विवेक और उसकी शक्ति से भी लड़ी जाती है. सवाल है कि जब अंधेरा इतना घना हो गया है, नागरिकों के विवेक को संबोधित करने वाले लोग कहां हैं और क्या कर रहे हैं?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)