कलाकार जो करता है उस पर यक़ीन करो, बजाय उसके जो वो अपनी कला के बारे में कहे

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: ब्रिटिश चित्रकार डेविड हाकनी का कथन है कि कलाकार काफ़ी पकी उमर तक जी सकते हैं क्‍योंकि वे अपने शरीर के बारे में ज़्यादा नहीं सोचते. हाथ, हृदय और आंख कंप्यूटर से अधिक जटिल हैं.

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'द वर्ल्ड एकॉर्डिंग टू डेविड हाकनी' के दो पृष्ठ. (साभार: Thames & Hudson)

ब्रिटिश चित्रकार डेविड हाकनी इस समय उस देश के सबसे बड़े और संसार के बहुमान्य मूर्धन्यों में से एक हैं. टेम्स एंड हडसन अंतरराष्ट्रीय कलाजगत् में एक सुप्रतिष्ठित प्रकाशक हैं. उन्होंने ‘कलाकारों की नज़र में ‘दुनिया’ शीर्षक से एक सीरीज़ शुरू की है जिसकी एक पुस्तक डेविड हाकनी की उक्तियों का संचयन है.

वे कहते हैं: जीवन उत्तेजक, दिलचस्प और रोमांचक है. वे जोड़ते हैं कि अगर तुम देखो तो दुनिया बहुत-बहुत सुंदर है पर ज़्यादातर लोग ज़्यादा देखते नहीं हैं थोड़ी सघनता के साथ, नहीं न? उनका मत है कि कलाकार, अगर मर भी गए हों, अपने काम में जीवित रहते हैं. उनकी सलाह है कि आराम करना और पढ़ना चाहिए. आंख तो हमेशा घूमती रहती है, और अगर वह चल नहीं रही है तो आप मृत हैं. वह जगह जो जहां तुम समाप्त होते हो और मैं आरंभ होता हूं सबसे दिलचस्प जगह होती है. प्रेम एकमात्र गंभीर विषय है.

कला में विकास नहीं होता. कुछ श्रेष्ठ चित्र सबसे पहले बनाए गए चित्र हैं. कला को गहरा आनंद होना चाहिए. पूरी नाउम्मीदी की कला में एक अंतर्विरोध होता है क्योंकि आप कम से कम संप्रेषित कर रहे हैं और यह नाउम्मीदी को घटा देता है. अगर आप एक नियम बनाते हैं तो कोई कलाकार आएगा जो उसे तोड़ देगा. आप चित्र के पास अपना समय लाते हैं पर फिल्म अपना समय आप पर थोपती है. इतिहासकारों के मुक़ाबले कलाकार कला को ज़्यादा खुले ढंग से देखते हैं, उनकी दिलचस्पी इसमें कम होती है कि वह कहां और कब बनाई गई. आख़िर में वे चित्र हैं जो हमें वस्तुओं को दिखाते हैं. कलाकार जो करता है उस पर यक़ीन करो, बजाय उसके जो अपनी कला के बारे में वह कहता है.

चीनियों का कहना है कि चित्र बनाने के लिए तीन चीज़ें होना ज़रूरी है- हाथ, आंख और हृदय. किन्हीं दो से काम नहीं चलेगा. कुछ लोग सोचते हैं कि फ़ोटोग्राफ़ सचाई है, उन्हें यह नहीं पता कि वह बखान करने का एक और तरीका भर है. यह कलाकार की ज़िम्मेदारी है कि वह दुनिया के बारे में चिंतित हो. कलाकार के रूप में यह मेरे काम का हिस्सा है कि मैं दिखाऊं कि कला नाउम्मीदी का कुछ शमन कर सकती है. कलाकार काफ़ी पकी उमर तक जी सकते हैं क्‍योंकि वे अपने शरीर के बारे में ज़्यादा नहीं सोचते. हाथ, हृदय और आंख कंप्यूटर से अधिक जटिल हैं. अगर आप मुझसे पूछें कि मैं कहां रहता हूं तो मैं हमेशा कहता हूं कि वहीं जहां मैं होता हूं.

अपनी गवाही

पिछले दिनों चित्रकार-कवि गुलाम मोहम्मद शेख़ और फिल्मकार आनंद पटवर्धन अलग-अलग आयोजनों के सिलसिले में दिल्ली में थे. शेख़ भारतीय समन्वय पर एक परिसंवाद में बीज वक्तव्य देने और आनंद अपनी नई फिल्म ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ दिखाने आए थे. दिलचस्प संयोग यह घटा कि दोनों ने अपनी निजी ज़िंदगी की एक तरह से गवाही दी: निजी गवाही जिसे अंग्रेज़ी में ‘पर्सनल टेस्टामेंट’ कहते हैं. ऐसे साक्ष्य से समन्वय के लिए दिए जा रहे तर्कों में ठोस तथ्यों से प्रामाणिकता मार्मिक ढंग से जुड़ जाती है. समन्वय निरी वैचारिक अवधारणा नहीं, जिये गए अनुभव से उभरी सचाई बन जाता है.

एक ऐसे समय में जब भेदभाव और ध्रुवीकरण बहुत तेज़ी से बढ़ रहे हैं और उनका सत्तारूढ़ राजनीति बहुत कुशलता-क्षमता से हथकंडों के रूप में इस्तेमाल कर रही है, ऐसी गवाही मायने रखती है. जो कहानी गढ़ी और फैलाई जा रही है उसमें नैतिक हस्तक्षेप ऐसी गवाही करती है. ऐसे लोग होंगे और निश्चय ही हैं जिनका जीवनानुभव समन्वय और समरसता का नहीं रहा है. लेकिन ऐसे लोग भारत में बहुसंख्यक हैं, जिनका अनुभव और जीवन की सामुदायिकता का बड़ा हिस्सा ऐसे ही समन्वय में बीता और रसा-पगा है. प्रायः हर दिन ऐसे समन्वय के अब भी जीवित और सक्रिय होने की घटनाओं का वृतांत हम मीडिया पर देखते-पढ़ते रहते हैं.

फिर भी, इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि सांप्रदायिकता और धर्मांधता का ज़हर पहले धीरे-धीरे और अब बहुत तेज़ी से फैल और व्याप रहा है. शायद ऐसे कइयों में भी जिनके जीवन के कई अवसर और राहत आदि समन्वय से जुड़े हैं और उसी से संभव हुए हैं. इस समय हमारी जो विकराल समस्याएं हैं उनमें बेरोज़गारी, मंहगाई के साथ-साथ इस समन्वय की लगातार क्षति और कमी और धर्मांधता-सांप्रदायिकता और ध्रुवीकरण का विशद व्यापार है.

गुलाम शेख़ ने विस्तार से यह बताया कि उनके जन्मनगर सुरेन्द्रनगर में उनके बचपन में बच्चों के नाम या डाकनाम हिंदू-मुस्लिम कुछ भी हो सकते थे, बच्चा किसी भी धर्म का क्यों न हो. बड़ोदा में उनकी कला में शिक्षा-दीक्षा के दौरान उनको सभी गुरुओं से सम्यक् व्यवहार मिलता रहा. जब स्थिति कुछ बिगाड़ की ओर बढ़ी तो वे गांधी और कबीर की ओर गए. हाल में उन्होंने गुलेरी चित्रकार नैनसुख की नाव पर आधारित चित्रकृति से नाव ‘उधार’ लेकर एक बड़ी कृति ‘कारवां’ बनाई जिसमें उन सभी को बैठा दिया जिनसे वे प्रेरित हुए हैं जिनमें देश-विदेश के कवि-चित्रकार-चिंतक शामिल हैं- समन्वय की एक महानौका. उन्होंने लोककला कांवड़’ का भी पुनराविष्कार किया है और उसमें धार्मिक अभिप्रायों के बजाय आधुनिक अभिप्रायों और छवियों को शामिल किया है.

आनंद ने अपनी लंबी फिल्म अपने माता-पिता और परिवार के लोगों को वास्तविक ज़िंदगी में, अपने उत्तरकाल में बुढ़ापा बिताते और याद करते हुए शूट की है. स्वतंत्रता-संग्राम, मां की कला-साधना, ताऊ अच्युत पटवर्द्धन की भारत छोड़ो आंदोलन में भूमिका आदि इस फिल्म में शामिल हैं. एक सामान्य परिवार की गाथा होते हुए यह फिल्म समन्वय की मर्मगाथा बनती जाती है जिसमें एक परिवार, एक कुटुंब में सारी वसुधा समायी लगती है. मुझे फेडरिक जेम्सन का एक शीर्षक याद आया: ‘ए फैमिली नॉवेल एज़ हिस्ट्री.

सागर की एक त्रयी

वे तीनों अब नहीं हैं जिनके साथ सागर जैसे शहर में लगभग सत्तर बरस पहले मैंने साहित्य में दाख़िल होने की कोशिश शुरू की थी. तीनों ही मुझसे उमर में बड़े थे: आग्नेय और जितेन्द्र कुमार एमए कर रहे थे, जब मैं बीए कर रहा था. रमेशदत्त दुबे अलबत्ता एक क्लास पीछे थे. पहले दो से परिचय विश्वविद्यालय में जाने पर हुआ लेकिन रमेश और मैं स्कूल के दिनों से सखा थे. हमारा गर्मियों में लू चलने के वक़्त शहर में घूमना कुख्यात था. हम दोनों धूप में, शाम को और आधी रात में भी बहुत घूमते थे. पैदल चलने की ऐसी कुटेव पड़ गई कि मैंने साइकिल चलाना सीखा ही नहीं.

आग्नेय उस समय हमसे ज़्यादा पढ़े थे, ज़मींदार परिवार से आते थे और सागर में कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से थे. वे इतिहास से एमए कर रहे थे. उन्होंने छोटेलाल से अपना नाम बदलकर आग्नेय कर लिया था: आज तक साहित्य में कोई छोटेलाल नहीं हुआ. राजा दुबे उनके बड़े भाई थे. आग्नेय जल्दी नाराज़ हो जाते थे. उनकी कविता शुरू में इतनी नाराज़ नहीं थी जितनी बाद में हुई- तब तो इतनी कि अपने पुराने मित्रों को शत्रु मानकर कविता में उनको ध्वस्त-लांछित करने में उन्होंने काफ़ी शब्द और कविताएं ख़र्च कीं.

जितेन्द्र कुमार सुगठित कविता के शिल्पी थे. उनके यहां सामाजिक दृश्य के बखान और आकलन के बजाय आग्रह घरेलू हिंसा और क्रूरता पर अधिक है: उनकी कविता हम पर हमेशा छायी कालच्छाया को भी हिसाब में लेती है. रमेशदत्त दुबे के यहां बुंदेलखंडी और थोड़ी बीहड़ किस्म की आधुनिकता है. इस बीहड़ता के बावजूद, जो उनकी निजी जीवन और व्यवहार में भी थी, उनकी कविता में लोकसंपदा से आया लालित्य भी है. उनका सीधी मार करने वाला विट भी मशहूर था. तीनों में वही थे जो सागर में ही जीवन भर बने रहे.

जब मैंने आलोचना लिखना शुरू किया तो जितेन्द्र कुमार को लगा कि मैं ख़राब कविता पर प्रहार करने में व्यर्थ अपनी शक्ति और प्रतिभा बर्बाद कर रहा हूं. उन्होंने इस बारे में मुझे सचेत किया. मैंने किसी हद तक अपने को संतुलित करने की चेष्टा की. रमेशदत्त और जितेन्द्र ऐसे मित्र भी रहे जिन्होंने मुझसे कभी कोई काम या सुविधा लेने की कभी कोशिश नहीं की. मुझे हमेशा यह आश्वस्ति रही कि अगर कभी ज़रूरत पड़ेगी तो वे दोनों मेरे साथ अडिग खड़े होंगे.

जितेन्द्र और रमेशदत्त दोनों ने गद्य भी लिखा. जितेन्द्र ने कहानियां और उपन्यास लिखे. रमेशदत्त ने कहानियां, टिप्पणियां, निबंध लिखे और बुंदेली लोककवि ईसुरी का हिंदी में बहुत रमणीय अनुवाद किया. अब यह त्रयी नहीं है और उनका न रहा मेरे लिए अपने शहर सागर को गंवा देने जैसा है. शहर तो वैसे ही इतना बदल गया है कि उसे अपनी बूढ़ी आंखों से अब अपने शहर की तरह पहचानना कठिन से कठिनतर होता जाता है.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)