वाम प्रकाशन से छपी इतिहासकार रोमिला थापर की यह पुस्तक उनकी किताब ‘आवर हिस्ट्री, देयर हिस्ट्री, हूज़ हिस्ट्री? का अनुवाद है. इसका अनुवाद वाम प्रकाशन के संपादक संजय कुंदन ने किया है.
हाल की शताब्दियों में हिंदू धर्म को अखंड (monolithic) और एकीकृत धर्म बताने की कोशिशें होती रही है, संभवतः इसे इब्राहिमी पंथ के धर्मों (यहूदी, ईसाई, इस्लाम और बहाई) के समतुल्य या उनके जैसा बताने के लिए. लेकिन जब हम हिंदू धर्म को व्यवहार के स्तर पर देखते हैं, तो यह विभिन्न पंथों का एक समूह नज़र आता है. इनमें कुछ पंथ मामूली अंतर के साथ लगभग समान हैं, तो कुछ सोच और अनुष्ठान में एकदम अलग है, कुछ एक-दूसरे के नज़दीक हैं, तो कुछ बहुत दूर. इस कारण इसमें अद्भुत लचीलापन है और वह विभिन्न तरह के विचारों को अपनाने, उन्हें आत्मसात करने तथा एक ऐतिहासिक क्रम में उन्हें विभिन्न रूपों में व्यक्त करने के कारण काफ़ी समृद्ध है. जहां कई मान्यताएं और प्रथाएं अपने प्राचीन रूप में हैं और अनुष्ठानों में गुम नहीं हुई हैं जिन्हें परिभाषित करना और उनके स्रोतों का पता लगाना कठिन है वहां धर्म का सूक्ष्म रूप दिखता है. धर्म का यह स्वरूप पूजा के विधि-विधानों के बजाय दार्शनिक स्तर पर अधिक पाया जा सकता है. असहमति की अधिकांश परंपराएं शिक्षाओं की विविधता को पोषित करने और उसकी रक्षा करने की कोशिशें रही हैं.
हालांकि, जैसा कि दुनिया भर में हर संगठित धर्म के साथ होता है, समाज का शक्तिशाली तबक़ा धर्म से अपने कई सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक हित साधता है और इसके लिए वह धर्म का संरक्षण करने के साथ कई तरह की सामाजिक क़वायदें करता है. यह सब सदियों में विकसित हुआ है. उन्होंने धर्म को लोगों से दूर किया. धर्म के कई रूप विकसित हुए जिन पर विभिन्न संस्थाओं ने अपना नियंत्रण बनाए रखा. इसके लिए हर तरह की असहमति को दबाने और इन संस्थाओं के आलोचकों का मुंह बंद करने की कोशिश की गई. इस तरह अलग तरह के धार्मिक विचारों को, जो चुनौती पेश करते थे, कभी अपने दायरे के भीतर जगह देने या समायोजित करने की कोशिश नहीं की गई, बल्कि उनकी शिक्षाओं को सामने आने से रोका जाता था, कभी अहिंसक तरीके से तो कई बार हिंसक तरीके से भी. इसलिए यह कहना बड़ा मुश्किल है कि पूर्व आधुनिक काल का कोई समाज हमेशा सहिष्णु और अहिंसक रहा है. उनमें हिंसक तरीक़े से किसी विचार को दबाना भी उत्पीड़न का रूप ले सकता था.
एक ख़ास सामाजिक समूह द्वारा अन्य सामाजिक समूहों का उत्पीड़न प्रायः सभी समाजों में होता रहा है और जिन्हें हम सभ्यताएं कहते रहे हैं, उनमें भी किसी न किसी रूप में यह प्रचलित रहा है. उत्कृष्ट बौद्धिक और कलात्मक उपलब्धियों के लिए एक यथोचित सुचारू रूप से चलने वाले समाज की आवश्यकता होती है. प्रारंभिक काल में इस तरह के समाज श्रम और संसाधनों की सहज आपूर्ति और उन पर नियंत्रण से चलते थे. इस सिलसिले को बनाए रखने के लिए तमाम आवश्यक साधन उपलब्ध कराने वालों पर शिकंजा कसे रखना ज़रूरी समझा जाता था और इसका सबसे अच्छा तरीका था, उन्हें सामाजिक नियम बनाकर इसके लिए मजबूर करना. ज़ाहिर है, उत्पीड़न के पीछे यही सारी चीजें थीं. और इन्हीं के नाम पर उत्पीड़न को सही ठहराया जाता था. यह समय के साथ बढ़ता गया और इसके कई अन्य रूप हो गए, हालांकि इसे लेकर सामाजिक मापदंड अलग-अलग रहे.
उत्पीड़न कई सामाजिक मापदंडों को प्रभावित करता है और भारतीय संदर्भ में यह कभी-कभी जाति के आधार पर होता रहा है या फिर अन्य समाजों की तरह ही – राजनीतिक टकराव, हैसियत में अंतर, सामाजिक पृष्ठभूमि या विश्वास और पूजा के रूपों में मतभेद से पैदा शत्रुता के कारण भी होता रहा है. फिलहाल इस संबंध में साक्ष्य बिखरे हुए हैं. इन्हें व्यवस्थित रूप से एक साथ लाने और उनका उचित अध्ययन करने की आवश्यकता है.
पहली सहस्राब्दी ईसा पूर्व में धर्म के क्षेत्र में कुछ विरोधी विचार काफ़ी मुखर दिखाई पड़े, जब वैदिक ब्राह्मण धर्म को बौद्धिक चुनौती दी गई. बौद्धों और जैनियों को श्रमण कहा गया. ‘श्रमण’ शब्द भिक्षुओं के लिए प्रयुक्त होता था, जिन्होंने ‘निर्वाण’ को जीवन का लक्ष्य बताया. इन्हीं की तरह चार्वाक और आजीवक थे, जिनका दर्शन ब्राह्मण धर्म को अस्वीकार करता था. वे सब वैदिक ब्राह्मण धर्म की मूलभूत अवधारणा के विरुद्ध थे, वे देवताओं के अस्तित्व को नहीं मानते थे, उन्होंने वेदों की पवित्रता पर सवाल उठाए और ब्राह्मणों द्वारा बताए गए पुनर्जन्म के स्वरूप पर संदेह व्यक्त किया. वैदिक ब्राह्मणों ने ईश्वर में विश्वास नहीं करने वालों को ‘नास्तिक’ कहा. बाद में भी पौराणिक देवताओं को नहीं मानने वालों को उन्होंने नास्तिक कहकर पुकारा.
ईसा पूर्व पहली सहस्राब्दी के मध्य में विभिन्न धार्मिक संप्रदायों के बीच वैचारिक मतभेद ने टकराव का रूप ले लिया था, यह अशोक मौर्य के शिलालेखों से स्पष्ट है. इनमें अशोक ने कहा है कि न केवल ब्राह्मणों और श्रमणों के बीच बल्कि सभी संप्रदायों के बीच सहिष्णुता होनी चाहिए. स्पष्ट है कि विचारों में मतभेद केवल बौद्धिक स्तर पर संदेह खड़ा करने और बहस करने तक सीमित नहीं थे, बल्कि समाज पर इसका गहर असर था. उस समय के संस्कृत के बेहद सम्मानित व्याकरणविद् पतंजलि ने ब्राह्मणों और श्रमणों के बीच वही संबंध बताया है, जो सांप और नेवले के बीच होता है.
बौद्ध ग्रंथों में, चाहे वह शुरू का दिव्यावदान हो या बाद का मंजुश्री- मूल-कल्प, यह बताया गया है कि मौर्य सत्ता हथियाने और शुंग वंश की स्थापना करने वाले पुष्यमित्र ने किस तरह बौद्ध मठों और स्तूपों को तोड़ा, बौद्धों के पुस्तकालय जला डाले और भिक्षुओं की हत्या की. यह पहली सहस्राब्दी ईस्वी के उत्तरार्ध के चीनी और तिब्बती बौद्ध ग्रंथों में भी दोहराया गया है. अभिलेखों में पुष्यमित्र के अश्वमेध यज्ञ करने का उल्लेख है, जिससे ज़ाहिर होता है कि वह वैदिक ब्राह्मण धर्म का संरक्षक और इसलिए बौद्ध धर्म का विरोधी था.
विभिन्न विचारकों की शिक्षाओं का अनुसरण करने वाले कई ग्रंथ और संप्रदाय थे, जिन्हें हिंदू धर्म के दायरे में शामिल किया गया. इनमें से कई नए विचारों और पूजा के रूप लेकर आए थे. इनमें से सबसे प्रभावशाली शैव और वैष्णव संप्रदाय थे, जो दो देवताओं – शिव और विष्णु – की पूजा के नए रूप लेकर उभरे. शाक्त पंथों के समावेश से उन्हें मज़बूती मिली, विशेषकर पहली सहस्राब्दी ईस्वी के उत्तरार्ध में. इन संप्रदायों के बीच कभी-कभार टकराव होता था, लेकिन इसका कोई ख़ास परिणाम नहीं होता था. ऐसा प्रतीत होता है कि शैवों और श्रमणों के बीच धार्मिक संघर्ष अधिक आम रहा है. अशोक के शिलालेखों के अलावा, पहली दो सहस्राब्दी ईस्वी के संस्कृत, चीनी, तिब्बती और फ़ारसी के ग्रंथ महत्त्वपूर्ण जानकारी प्रदान करते हैं.
सातवीं शताब्दी में भारत का भ्रमण करने वाले और यात्रा के अंत में कुछ वर्षों तक नालंदा के मठ में रहने वाले चीनी बौद्ध तीर्थयात्री ह्वेन त्सांग के यात्रा वृत्तांतों से विभिन्न धर्मों के आपसी संबंध का पता चलता है. उसने विभिन्न दौर में मठों के विनाश और भिक्षुओं की हत्या की चर्चा करते हुए बौद्धों के उत्पीड़न का उल्लेख किया है. उसने पूर्वी भारत के राजा शशांक के हिंसक कृत्यों का भी उल्लेख किया है, जो बौद्धों का शतु माना जाता था.
कश्मीर के इतिहासकार कल्हण ने बारहवीं शताब्दी की शुरुआत में कश्मीर के इतिहास पर लिखी अपनी पुस्तक राजतरंगिणी में भारतीय उप महाद्वीप के उत्तर-पश्चिम में स्थित गांधार के ब्राह्मणों के प्रति तिरस्कार का भाव दिखाया है, क्योंकि उन्होंने उन शैव राजाओं से भूमि दान स्वीकार किया था, जिनकी अगुआई में बौद्ध भिक्षुओं की हत्या की गई थी. कल्हण ने यह भी दर्ज किया है कि पहली सहस्राब्दी ईस्वी के उत्तरार्ध के हिंदू राजाओं ने कितनी बार हिंदू मंदिरों की काफ़ी संपत्ति लूटी. जब ग्यारहवीं शताब्दी ईस्वी में राजा हर्षदेव के शासनकाल के दौरान कश्मीर में आर्थिक संकट पैदा हुआ, तो राजा ने विशेष अधिकारियों की नियुक्ति की, जिनका काम था लूट की देखरेख करना. अब यह भी कैसी विडंबना थी कि उन अधिकारियों को नाम दिया गया – ‘देवोत्पतन नायक’ यानी देवताओं को उखाड़ फेंकने के काम का प्रभारी.
बौद्धों की संपत्ति के कारण उन्हें कई संरक्षक मिले और इसके साथ उनकी शिक्षाओं की वजह से उनके असंख्य अनुयायी हो गए. इन सबसे समृद्ध होकर उन्होंने बौद्ध भिक्षुओं के रहने के लिए विहार, प्रार्थना और पूजन के लिए चैत्य और अवशेषों को रखने के लिए स्तूप बनवाए. पर धीरे-धीरे जब जैन मुनियों को भारी मात्रा में अनुदान मिलने लगे और आरंभिक बौद्धों की तरह उनके अनुयायियों की संख्या बढ़ने लगी, तो उन पर भी हमले बढ़ गए. ये हमले कई बार राजा को अपने धर्म में लाने की प्रतिस्पर्धा के कारण भी होते थे. जैनियों की बड़ी संख्या गुजरात, कर्नाटक और तमिलनाडु के कुछ हिस्सों में थी. इन क्षेत्रों के अभिलेखों से उनके उत्पीड़न के बारे में पता चलता है.
एक धारणा यह है कि शैव भी इस संघर्ष में शामिल थे, पर इसकी गहराई से पड़ताल होनी चाहिए. कहा जाता है कि सातवीं शताब्दी के पल्लव राजा महेंद्रवर्मन ने एक शैव शिक्षक की हत्या के आरोप में 8,000 जैन मुनियों को सूली पर चढ़ा दिया. राजधर्म के लिहाज से यह संख्या कुछ ज़्यादा ही लगती है, हालांकि इस तरह के संघर्ष में अक्सर राजधर्म को परे रख दिया जाता था. यह स्पष्ट नहीं है कि शैवों को वाकई कोई ख़तरा था या जैन से नए-नए शैव बने राजा ने अपने नए धर्म के प्रति भक्ति प्रदर्शित करने के लिए ऐसा किया. इस तरह के तर्क और संख्याएं अतिरंजित प्रतीत होते हैं.
धारवाड़ के अब्लुर में तेरहवीं शताब्दी के एक शिलालेख में शैवों द्वारा नष्ट किए गए जैन मंदिर के अवशेष पर एक शैव मंदिर के निर्माण का उल्लेख मिलता है. लेकिन इसके तुरंत बाद दूसरी सहस्राब्दी ईस्वी में सबसे भव्य जैन मंदिरों का निर्माण किया गया. निश्चय ही जैनों को संरक्षण और बड़ी संख्या में अनुयायी, दोनों प्राप्त थे. सोलहवीं शताब्दी तक जैन धर्म की प्रभावी पहचान बन चुकी थी और अकबर द्वारा शुरू की गई धर्मसभाओं में जैनियों को भी प्रमुखता से जगह मिली.
दो महत्त्वपूर्ण श्रमण धर्मों – बौद्ध और जैन – में से जैन धर्म दूसरी सहस्राब्दी ईस्वी में फला-फूला. यह संभवतः इसके कठिन अनुष्ठानों और गतिविधियों के कारण हुआ होगा, जिनमें से कई उपमहाद्वीप के भीतर वाणिज्य से जुड़े थे. जैनों की संपत्ति का उल्लेख विभिन्न स्रोतों में किया गया है और इसकी झलक उनके सजे-धजे मंदिरों की वास्तुकला में मिलती है, जिसे भारतीय रोकोको (फ्रांस में उत्पन्न सजावट की एक विशिष्ट शैली जिससे भवनों और वस्तुओं को सजाया जाता था) कहा जा सकता है. निश्चय इससे उसकी आर्थिक सफलता और सामाजिक प्रतिष्ठा का संकेत मिलता है.
चालुक्यों और राष्ट्रकूटों के बीच हुए संघर्षों में बौद्धों को भी निशाना बनाया गया, जब बौद्ध चैत्य कक्षों को मंदिरों में बदल दिया गया और बुद्ध की छवि एक हिंदू देवता की बना दी गई. बेशक, इन धार्मिक संघर्षों के अलग-अलग ऐतिहासिक कारण हैं. बौद्ध धर्म धीरे-धीरे बाहर होता गया और उसकी जगह पौराणिक हिंदू धर्म ने ले ली. इसके कई कारण सुझाए गए हैं. शाही संरक्षण में कमी आ गई थी और अमीरों से मिलने वाले दान में भी गिरावट आने लगी थी. हिंदू देवी-देवताओं के लिए पूजा स्थल बनाए जा रहे थे. ब्राह्मणों को भूमि के अनेक अनुदान दिए गए. ऐसा लगता है कि जाति नियमों का पालन अधिक नियमित हो गया था, या कम से कम उन्हें औपचारिक रूप से महत्त्व मिलने लगा था.
बौद्ध धर्म के पूर्वी भारत में केंद्रित होने के बाद तिब्बती बौद्ध धर्म के साथ उसका निकट संपर्क हुआ. भारत में इसका आंशिक रूप से पतन इसलिए हुआ कि इसकी कुछ प्रथाओं और मान्यताओं को हिंदू धर्म ने अपना लिया. मूर्ति पूजा इनमें से एक है. अन्य कारण धर्म के भीतर परिवर्तन और संरक्षकों की संख्या से संबंधित थे. हालांकि, भारत में इसकी गिरावट दक्षिण-पूर्व, मध्य एशिया और पूर्वी एशिया के कई हिस्सों में प्रमुख धर्म बनने से कहीं अधिक थी. भारत के बाहर इसका विस्तार संभवतः हिंद महासागर में समुद्री व्यापार के नाटकीय विस्तार और मध्य एशिया में भूमि-आधारित आदान-प्रदान के कारण हुआ. बौद्ध धर्म के विस्तार में न केवल भिक्षुओं ने बल्कि व्यापार ने भी अहम भूमिका निभाई. बौद्ध भिक्षु व्यापारियों के साथ यात्रा करते थे और धार्मिक संस्थाएं व्यापार में भागीदार होती थीं.
(साभार: वाम प्रकाशन)