नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने शुक्रवार को उत्तर प्रदेश प्रादेशिक सशस्त्र कांस्टेबुलरी (पीएसी) के 16 पूर्व कर्मियों में से आठ को जमानत दे दी, जिन्हें हाशिमपुरा नरसंहार मामले में ट्रायल कोर्ट द्वारा बरी किए जाने के फैसले को दिल्ली हाईकोर्ट ने पलट दिया था.
इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, जस्टिस अभय एस. ओका और जस्टिस एजी मसीह की पीठ ने उनकी इस दलील पर गौर किया कि उच्च न्यायालय द्वारा 2018 में उन्हें बरी करने के फैसले को पलट दिए जाने के बाद से वे लंबे समय तक जेल में रह रहे हैं.
उनके ओर से पेश हुए वरिष्ठ वकील अमित आनंद तिवारी ने बताया कि 23 मार्च, 2015 को उन्हें बरी करने वाला ट्रायल कोर्ट का फैसला तर्कसंगत था और हाईकोर्ट का तर्क गलत था. उन्होंने यह भी रेखांकित करने का प्रयास किया कि उन्होंने सुनवाई के साथ-साथ अपील के दौरान भी अनुकरणीय आचरण प्रदर्शित किया.
अदालत ने दलीलों पर गौर किया और आठ दोषियों की लंबित जमानत याचिकाओं को स्वीकार कर लिया.
अभियोजन पक्ष के अनुसार, मई 1987 में मेरठ जिले में सांप्रदायिक दंगे हुए थे. इसके परिणामस्वरूप, दंगा नियंत्रण और सुरक्षा के लिए हाशिमपुरा मोहल्ले में पुलिस, अर्धसैनिक बल और सैन्य बलों को तैनात किया गया था. इसमें पीएसी की 41वीं बटालियन की ‘सी-कंपनी’ भी शामिल थी. 21 मई 1987 को हाशिमपुरा से सटे मोहल्ले में सेना के एक मेजर के भाई की हत्या कर दी गई थी और पीएसी कर्मियों की दो राइफलें कुछ असामाजिक तत्वों ने लूट ली थीं.
22 मई की शाम को पीएसी के जवानों ने कथित तौर पर 42-45 मुस्लिम लोगों को घेर लिया और उन्हें ट्रक में भरकर ले गए. बाद में उन्हें गोली मार दी गई और शवों को गंग नहर और हिंडन नहर में फेंक दिया गया. गोली लगने वाले कुछ लोग बच गए. मारे गए 38 लोगों में से केवल 11 के शवों की पहचान बाद में रिश्तेदारों ने की. बाकी शव बरामद नहीं हुए.
जांच अपराध शाखा, आपराधिक जांच विभाग (सीबी-सीआईडी) उत्तर प्रदेश को सौंप दी गई थी. सीबी-सीआईडी ने 1996 में गाजियाबाद की आपराधिक अदालत में आरोपपत्र दाखिल किया. पहली चार्जशीट में पीएसी के अठारह अधिकारियों को आरोपी बनाया गया. पूरक चार्जशीट में 19वें आरोपी को आरोपी बनाया गया. 2002 और 2007 में पारित सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के तहत मामलों की सुनवाई दिल्ली स्थानांतरित कर दी गई.
मुकदमे के दौरान तीन आरोपियों की मौत हो गई. शेष 16 आरोपियों को निचली अदालत ने बरी कर दिया.
अपील पर उच्च न्यायालय ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) को हस्तक्षेप करने की अनुमति दी तथा उसकी याचिका पर निचली अदालत द्वारा अतिरिक्त साक्ष्य दर्ज करने की अनुमति दी, जबकि अपील लंबित रखी गई.
इसके बाद दिल्ली हाईकोर्ट ने आरोपियों को बरी करने के फैसले को पलट दिया और अभियुक्तों को आपराधिक साजिश, अपहरण, हत्या और अपराध के सबूतों को गायब करने का दोषी ठहराया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई.
हाशिमपुरा नरसंहार घटनाक्रम
हाशिमपुरा में 1987 में हुए नरसंहार का यह मामला कब, कहां हुआ और कैसे यह मुक़दमे से सज़ा की घोषणा तक पहुंचा, उसकी प्रमुख तारीख़ों का ब्योरा निम्न है.
22 मई 1987: पीएसी के जवान उत्तर प्रदेश के मेरठ में हाशिमपुरा गांव से अल्पसंख्यक समुदाय के करीब 50 मुस्लिम युवकों को कथित तौर अपने साथ जबरन ले गए. पीड़ितों को बाद में गोली मार दी गई और उनके शवों को नहर में फेंक दिया गया. घटना में 42 लोगों को मृत घोषित किया गया.
1988: उत्तर प्रदेश सरकार ने मामले में सीबी-सीआईडी जांच के आदेश दिए.
फरवरी 1994: सीबी-सीआईडी ने अपनी जांच रिपोर्ट सौंपी जिसमें 60 पीएसी और पुलिसकर्मियों को दोषी ठहराया गया.
20 मई 1996: उत्तर प्रदेश पुलिस की सीबी-सीआईडी द्वारा गाज़ियाबाद में मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के समक्ष 19 आरोपियों के ख़िलाफ़ आरोप-पत्र दायर किया गया. 161 लोगों को गवाह के तौर पर सूचीबद्ध किया गया.
सितंबर 2002: पीड़ितों और घटना में बचे हुए लोगों की याचिका पर उच्चतम न्यायालय द्वारा मामले को दिल्ली स्थानांतरित कर दिया गया.
जुलाई 2006: दिल्ली की अदालत ने 17 आरोपियों के ख़िलाफ़ भारतीय दंड संहिता की धाराओं के तहत हत्या, हत्या के प्रयास, साक्ष्यों से छेड़छाड़ और साज़िश के आरोप तय किए.
08 मार्च 2013: निचली अदालत ने सुब्रह्मण्यम स्वामी की उस याचिका को ख़ारिज कर दिया जिसमें मामले में तत्कालीन गृह राज्य मंत्री पी. चिदंबरम की कथित भूमिका की जांच करने की मांग की गई.
22 जनवरी 2015: निचली अदालत ने फैसला सुरक्षित रखा.
21 मार्च 2015: अदालत ने 16 जीवित आरोपियों को उनकी पहचान के संदर्भ में संशय का लाभ देते हुए बरी किया.
18 मई 2015: पीड़ितों के परिजनों और इस घटना में ज़िंदा बचे प्रत्यक्षदर्शियों की तरफ़ से निचली अदालत के फैसले को दिल्ली उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई.
29 मई 2015: निचली अदालत के फैसले को उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा दी गई चुनौती पर उच्च न्यायालय ने 16 पीएसी जवानों को नोटिस जारी किया.
दिसंबर 2015: राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) को मामले में पक्षकार बनाया गया. एनएचआरसी ने इस मामले में और जांच की मांग की.
17 फरवरी 2016: उच्च न्यायालय ने इस मामले में स्वामी की याचिका को दूसरी संबंधित याचिकाओं के साथ जोड़ा.
06 सितंबर 2018: दिल्ली उच्च न्यायालय ने मामले में फैसला सुरक्षित रखा.
31 अक्टूबर 2018: दिल्ली उच्च न्यायालय ने पीएसी के 16 पूर्व कर्मचारियों को 42 लोगों की हत्या में दोषी पाए जाने पर आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई.