उपासना स्थल अधिनियम और देश की मस्जिदों में मंदिरों को ढूंढने की कवायद पर हर्ष मंदर के निबंध का दूसरा भाग. पहली क़िस्त यहां पढ़ सकते हैं.
उपासना स्थल अधिनियम के उद्देश्य की पुष्टि करने के लिए मैंने संसद में हुई बहसों का अध्ययन किया, जब विधेयक पेश किया गया और पारित किया गया. इन संसदीय अभिलेखों को पढ़ने से तीन दशक पहले के समय की यादें ताज़ा हो गईं, जब राजनेता धर्मनिरपेक्षता और बहुलवाद के बचाव के लिये आज की तुलना में कहीं अधिक मुखर थे.
वर्ष 1991 था. विभाजन के दंगों में घृणा के कोलाहल में दस लाख लोगों की जान जाने और महात्मा गांधी की एक धार्मिक कट्टरपंथी द्वारा हत्या किए जाने के चवालीस वर्ष बीत चुके थे. आज़ादी के पहले डेढ़ दशक में सांप्रदायिक शांति रही, लेकिन 1961 के जबलपुर दंगों के बाद देश में हिंसक सांप्रदायिक संघर्ष फिर से शुरू हो गए.
1991 तक देश में सांप्रदायिक भावनाएं भड़क उठीं. दो साल पहले भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद के स्थल पर राम मंदिर के निर्माण की मांग को लेकर सोमनाथ से रथ यात्रा शुरू की थी. यात्रा जहां-जहां से गुज़री, वहां-वहां सांप्रदायिक घृणा और खून-खराबे की आग फैलती रही. अयोध्या में बाबरी मस्जिद अभी भी खड़ी थी. लेकिन हिंदुत्व के विचारकों ने देश भर में 3,000 मस्जिदों को ‘वापस लेने’ के अपने संकल्प के बारे में ज़ोरदार आवाज़ उठानी शुरू कर दी थी. भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने अयोध्या में राम मंदिर के लिए चलाए गए अभियान की तरह ही वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा में शाही ईदगाह मस्जिद पर दावा करने की धमकी दी.
ऐसे समय में गृह मंत्री एसबी चव्हाण ने संसद में विधेयक पेश किया, जिसके शब्द आज और भी गौरतलब हैं:
‘हम इस विधेयक को प्रेम, शांति और सद्भाव की हमारी गौरवशाली परंपराओं को प्रदान करने और विकसित करने के उपाय के रूप में देखते हैं,’ उन्होंने घोषणा की. ‘स्वतंत्रता-पूर्व काल में देश की सौहार्द और सद्भाव की परंपरा गंभीर तनाव में थी. स्वतंत्रता के बाद हमने अतीत के घावों को भरने का काम शुरू किया और सांप्रदायिक सौहार्द और सद्भावना की हमारी परंपराओं को उनके पिछले गौरव को बहाल करने का प्रयास किया. मुझे यकीन है कि इस विधेयक के अधिनियमित होने से सांप्रदायिक सौहार्द और सद्भावना को बहाल करने में काफी मदद मिलेगी.’
उन्होंने स्पष्ट किया कि उनकी सरकार का ‘नए विवाद पैदा करने और पुराने विवादों को उठाने का इरादा नहीं है, जिन्हें लोग लंबे समय से भूल चुके हैं.’ इसके बजाय, ‘पूजा स्थलों के रूपांतरण के संबंध में समय-समय पर उठने वाले विवादों के मद्देनजर इन उपायों को अपनाना आवश्यक समझा, जो सांप्रदायिक माहौल को खराब करते हैं.’
जैसा कि अनुमान था, भाजपा सदस्यों ने विधेयक का कड़ा विरोध किया. विपक्ष के नेता आडवाणी ने प्रस्तावित कानून का विरोध करते हुए सदन से वॉकआउट किया और आरोप लगाया, ‘मेरा मानना है कि यह प्रस्तावित कानून पूरी तरह गलत तरीके से बनाया गया है. यह विधेयक पूरी तरह से अनुचित है. हम इस प्रस्तावित कानून से खुद को नहीं जोड़ सकते. हम इसके पेश किए जाने का विरोध कर रहे हैं और इसके विरोध में हम वॉकआउट कर रहे हैं.’
राम जन्मभूमि आंदोलन की एक महत्वपूर्ण नेता उमा भारती ने सदन में प्रस्तावित कानून के खिलाफ जोरदार दलीलें दीं. ‘क्या हम तारीखों में हेरफेर करके ऐतिहासिक तथ्यों को बदल सकते हैं? क्या हम इतिहास का सामना करने से डरते हैं?’ उन्होंने व्यंग्यात्मक रूप से पूछा. उन्होंने उस शर्म की बात कही जो उन्हें महसूस हुई जब वे वाराणसी गईं और मस्जिद के परिसर में मंदिर के खंडहर देखे. उन्होंने तर्क दिया कि इतिहास में नष्ट किए गए मंदिरों को वापस किया जाना चाहिए, ताकि ‘यह सुनिश्चित किया जा सके कि हमारी आने वाली पीढ़ियां सद्भाव से रह सकें. अतीत में किए गए सभी गलत कामों के लिए भगवान से क्षमा मांगें और भविष्य में रक्तपात से बचने के लिए सभी प्रयास करें.’ उन्होंने आरोप लगाया, ‘1947 की यथास्थिति को बनाए रखते हुए, ऐसा लगता है कि आप तुष्टिकरण की नीति का पालन कर रहे हैं.’
एक अन्य भाजपा सांसद रामनगीना मिश्रा ने इसे ‘देश को विघटित करने के उद्देश्य से पेश किया गया …एक काला प्रस्तावित कानून’ बताया. उन्होंने दावा किया कि ‘यह रिकॉर्ड में है’ कि भारत के इतिहास में एक भी मस्जिद को नुकसान नहीं पहुंचाया गया है. उन्होंने अपील की कि विधेयक को ‘देश को एकजुट रखने और सांप्रदायिक हिंसा से दूर रखने के लिए’ अलग रखा जाना चाहिए.
वरिष्ठ भाजपा नेता राम नाइक ने विधेयक की आलोचना करते हुए इसे भारतीय संसद का ‘सबसे काला’ विधेयक बताया. उन्होंने दावा किया कि यह विधेयक ‘मुगल और ब्रिटिश शासन के दौरान हिंदू मंदिरों पर किए गए सभी अतिक्रमणों को वैध बनाने’ का प्रयास करता है. यह ‘उन लोगों को लाभ पहुंचाना चाहता है जिन्होंने हिंदू पूजा स्थलों का धार्मिक अपमान किया है.’
लेकिन सभी दलों के गैर-भाजपा सांसदों ने इस प्रस्तावित कानून का जोरदार बचाव किया. मणिशंकर अय्यर ने उमा भारती को जवाब दिया. उन्होंने ‘हमें बताया कि जब वे वाराणसी गई थीं और उन्होंने एक मंदिर और एक मस्जिद को एक साथ देखा था, तो उन्हें ऐसा लगा कि मंदिर को ध्वस्त कर दिया गया है. उन्होंने इसे हिंदू धर्म के लिए अपमान माना. उनके अनुसार एक मुस्लिम राजा ने वहां एक मस्जिद बनवाई थी. उनमें और मुझमें बस एक ही अंतर है, वह जिसे गुलामीपन की निशानी मानती हैं, मैं उसे धर्मनिरपेक्षता का प्रतीक मानता हूं…जब मैं मंदिर और मस्जिद को एक साथ देखता हूं, तो मुझे लगता है कि यह एक धर्मनिरपेक्ष देश है.’
उन्होंने आगे कहा कि ‘जैसे हम इस्लाम के बिना भारत की कल्पना नहीं कर सकते, वैसे ही हम भारत के बिना इस्लाम की कल्पना नहीं कर सकते. इस्लाम और भारत उसी तरह से जुड़े हुए हैं, जैसे मैं और उमा भारती जी मानवता से जुड़े हुए हैं.’
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की सांसद मालिनी भट्टाचार्य ने कहा कि विधेयक में कट-ऑफ तिथि ‘महत्वपूर्ण है, क्योंकि उस तिथि [15 अगस्त, 1947] को हम एक आधुनिक, लोकतांत्रिक और संप्रभु राज्य के रूप में उभरे थे, जिसने इस तरह की बर्बरता को हमेशा के लिए अतीत में धकेल दिया. उस तिथि से, हमने खुद को भी प्रतिष्ठित किया… (एक ऐसे राज्य की स्थापना करके) जिसका कोई आधिकारिक धर्म नहीं है और जो सभी विभिन्न धार्मिक संप्रदायों को समान अधिकार देता है. इसलिए, उससे पहले जो कुछ भी हुआ हो, हम सभी को उम्मीद थी कि उस तारीख से, अतीत में ऐसी कोई वापसी नहीं होनी चाहिए.’
कांग्रेस सांसद केवी जैकब ने अपने राज्य केरल की राजधानी त्रिवेंद्रम की प्रशंसा की, जहां एक ही परिसर में आपको एक ‘सुंदर मंदिर’, एक ‘सुंदर मस्जिद’ और एक ‘सुंदर चर्च’ एक साथ दिखाई देते हैं. उन्होंने हर धर्म में इस प्रथा के बारे में बात की कि जब आप अपने धर्म के मंदिर में पूजा करते हैं, तो आप दूसरे धर्मों के मंदिरों में भी प्रार्थना करते हैं.
उन्होंने कहा, ‘केवल एक ईश्वर है’, जिसकी हम अलग-अलग तरीकों से पूजा करते हैं. यह एक त्रासदी है कि हम धर्म के नाम पर लड़ रहे हैं. बहुत खून बहा है; हमने राष्ट्रपिता को भी मार डाला. उन्हें यकीन था कि अगर भगवान राम भी प्रकट होते हैं तो वे अपने अनुयायियों को बेघर लोगों के लिए हजारों आश्रय बनाने का निर्देश देंगे.’
उन्होंने अपने धार्मिक विश्वास के बारे में बात की: ‘जब मैं ईसा मसीह की पूजा करता हूं और अपने पड़ोसियों से नफरत करता हूं जो हिंदू या मुस्लिम हैं, तो मैं ईसा मसीह का सच्चा अनुयायी नहीं हूं.’
तत्कालीन गृह राज्य मंत्री एमएम जैकब ने भी इसी तरह तर्क दिया था कि ‘इस देश में सभी धर्मों का सार…एक दूसरे के प्रति प्रेम और स्नेह है. मैंने ऐसा कोई धर्म नहीं देखा जो नफरत का उपदेश देता हो. इसलिए, जब सभी धर्म एक दूसरे के प्रति प्रेम और मानवता की सेवा करने तथा अपने भाइयों और बहनों के लिए आवश्यक होने पर जीवन का बलिदान करने के लिए खड़े होते हैं, तो मुझे इस तरह की लड़ाई का कोई कारण नहीं दिखता… अगर आप वास्तव में धार्मिक हैं… तो हमारा प्रयास किसी भी कीमत पर शांति स्थापित करना होगा.’
वरिष्ठ नेता रामविलास पासवान ने इस बात पर सहमति जताई कि ‘धर्म का उद्देश्य अंधकार को दूर करना और प्रकाश तथा ज्ञान प्रदान करना है. दीपक घर को रोशन करने के साथ-साथ उसे जलाने के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है. दुर्भाग्य से, आज धर्म का इस्तेमाल नफरत और वैमनस्य फैलाने के लिए किया जा रहा है.’
उन्होंने कहा, ‘आज सवाल हिंदू-मुस्लिम का नहीं है, न ही मंदिर, मस्जिद या गुरुद्वारे का है. आज मुद्दा हमारे संविधान का है. मुद्दा उस भारत को बचाने का है, जिसकी आज़ादी के लिए हिंदू, मुस्लिम, सिख और ईसाई एक साथ लड़े थे…’ ऐसा कानून ज़रूरी था ‘क्योंकि भारत कई धार्मिक संप्रदायों के लोगों का घर है. हमारा देश एक बग़ीचे की तरह है’ जिसमें ‘एक नहीं बल्कि सभी फूलों को खिलने का मौका दिया जाएगा.’ उन्होंने कहा कि ‘यह देश मंदिर या मस्जिद जैसे तुच्छ मुद्दों पर झगड़ा नहीं कर सकता. हमारे सामने इससे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण समस्याएं हैं – ग़रीबी की समस्याएं, बेरोजगारी की समस्याएं, अशिक्षा की समस्याएं, ग्रामीण जल आपूर्ति की समस्याएं.’
वरिष्ठ मार्क्सवादी सांसद सोमनाथ चटर्जी ने कहा, ‘मैं समझता हूं कि भारत की व्यथित आत्मा आज किसी नए मंदिर, मस्जिद या गुरुद्वारे के लिए नहीं रो रही है. यह जाति, पंथ या धर्म से परे अपने सभी लोगों के लिए सम्मानजनक और सभ्य जीवन चाहती है. यह मांग करती है कि सभी लोगों को दिन में दो वक्त का खाना मिले, उनके सिर पर छत हो, पढ़ने-लिखने की क्षमता हो और शोषण, भूख, भुखमरी, बेरोजगारी, अस्वस्थता और गंदगी से मुक्ति मिले.’
उपासना स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 के महत्व और उद्देश्य, जिसकी व्याख्या उस समय के सांसदों ने बड़े ही प्रभावशाली तरीके से की थी, को 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने रेखांकित किया . अपने ऐतिहासिक लेकिन अत्यधिक विवादास्पद फैसले में, जिसमें उसने उस भूमि को राम मंदिर के निर्माण के लिए दे दिया जहां सदियों तक बाबरी मस्जिद खड़ी थी, अदालत ने कहा कि इस कानून में 15 अगस्त, 1947 की कट-ऑफ तिथि तय करना इस बात को स्वीकार करने के लिए किया गया था कि भारत की आज़ादी ने ‘अतीत के घावों को भरने का अवसर’ प्रदान किया.
15 अगस्त, 1947 को मौजूद सार्वजनिक पूजा स्थलों के धार्मिक चरित्र को संरक्षित करने का आदेश देते हुए, ‘संसद ने निर्धारित किया कि औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता प्रत्येक धार्मिक समुदाय को यह विश्वास दिलाकर अतीत के अन्याय को ठीक करने के लिए एक संवैधानिक आधार प्रदान करती है कि उनके पूजा स्थलों को संरक्षित किया जाएगा और उनके चरित्र में कोई बदलाव नहीं किया जाएगा.’
न्यायाधीशों ने कहा कि ‘अदालत आज कानून की अदालत में हिंदू पूजा स्थलों के खिलाफ मुगल शासकों की कार्रवाइयों से उत्पन्न दावों पर विचार नहीं कर सकती. किसी भी व्यक्ति के लिए जो किसी भी प्राचीन शासकों की कार्रवाइयों के खिलाफ सांत्वना या सहारा चाहता है, कानून इसका उत्तर नहीं है…’
इस निर्णय ने इस कानून को संविधान के मूल मूल्यों से गहराई से जोड़ा. ‘राज्य ने कानून बनाकर संवैधानिक प्रतिबद्धता को लागू किया है और सभी धर्मों की समानता और धर्मनिरपेक्षता को बनाए रखने के लिए अपने संवैधानिक दायित्वों को क्रियान्वित किया है, जो संविधान का एक बुनियादी ढांचा है.’
यदि वास्तव में उपासना स्थल अधिनियम, 1991 संविधान के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को संरक्षित करने के लिए महत्वपूर्ण है, तो हमें यह निष्कर्ष निकालना होगा कि जस्टिस चंद्रचूड़ ने गलती की थी जब उन्होंने कहा कि यद्यपि 1991 के कानून ने पूजा स्थल के धार्मिक चरित्र को बदलने पर रोक लगा दी थी, फिर भी इसके मूल चरित्र को निर्धारित करना कानून के विरोध में नहीं है. जैसा कि सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े ने ‘फ्रंटलाइन’ से बात करते हुए तर्क दिया, भले ही सर्वेक्षणों में 400 साल पहले किसी संरचना के अस्तित्व को दिखाया गया हो, लेकिन 1991 के कानून के कारण उस स्थान का कानूनी चरित्र नहीं बदलेगा. ‘हमें इस बात से कोई सरोकार नहीं है कि 400 साल पहले क्या हुआ था, बल्कि हमें इस बात से सरोकार है कि 15 अगस्त, 1947 को स्थिति क्या थी.’
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर और भारतीय इतिहास कांग्रेस के सचिव सैयद अली नदीम रिज़ावी ने भी इस पर सहमति जताई. उन्होंने पूछा, ‘अगर (सर्वेक्षणों से पता चलता है कि) वहां मंदिर था, तो इससे क्या फर्क पड़ता है? औरंगजेब एक संप्रभु सम्राट था जो लोकतंत्र और संविधान से निर्देशित नहीं था. वह 17वीं सदी का व्यक्ति था. क्या हम पुष्यमित्र शुंग को भी दंडित करने जा रहे हैं, जिसने बौद्ध मंदिरों के खिलाफ विध्वंस अभियान चलाया था?’ ‘मुझे इस बात की चिंता नहीं है कि भाजपा क्या कर रही है. मुझे इस बात की चिंता है कि हमारे सर्वोच्च न्यायालयों में बैठे लोग संविधान और विरासत संरचनाओं की रक्षा के लिए संसद के सभी अधिनियमों को भूल गए हैं.’
सच तो यह है कि पूर्व मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की यह दुर्भाग्यपूर्ण टिप्पणी (कि 1991 का कानून 1947 से पहले के स्थानों के धार्मिक चरित्र की जांच पर रोक नहीं लगाता) ने ऐतिहासिक मस्जिदों के सर्वेक्षण के लिए अदालती आदेशों की बाढ़ ला दी है ताकि यह पता लगाया जा सके कि क्या वे सदियों पहले मंदिरों को नष्ट करके बनाई गई थीं. इसने सत्तारूढ़ पार्टी और निर्वाचित सरकारों द्वारा समर्थित हिंदुत्व संगठनों को खतरनाक तरीके से, यहां तक कि लापरवाही से अतीत को उजागर करने में सक्षम बनाया है. इसने पुरानी लड़ाइयों को पुनर्जीवित करने और नई लड़ाइयों को उजागर करने में मदद की है, और इसके माध्यम से खतरनाक रूप से सांप्रदायिक दरारों को बढ़ाया है, जिससे धार्मिक लड़ाइयों को बढ़ावा मिला है जो पीढ़ियों तक चल सकती हैं. जस्टिस चंद्रचूड़ के सभी विवादास्पद न्यायिक कृत्यों में से इतिहास इसे भारत के सामाजिक ताने-बाने के लिए सबसे अधिक हानिकारक मान सकता है.
जस्टिस संजीव खन्ना, जो जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ के बाद मुख्य न्यायाधीश बने, ने संभल में मस्जिद के सर्वेक्षण पर रोक लगाकर अच्छा किया ताकि वहां की आग को बुझाया जा सके. अदालत ने वादियों को आगे के निर्देशों के लिए उच्च न्यायालय जाने का निर्देश दिया. लेकिन मुख्य न्यायाधीश ने अपने पूर्ववर्ती न्यायाधीश की उस टिप्पणी को पलटने के लिए कुछ नहीं किया, जिसने संभल और कई अन्य मस्जिदों के सर्वेक्षण को हरी झंडी दी थी.
कोई भी उच्च न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कानून की व्याख्या को पलट नहीं सकता, ऐसा करने का अधिकार केवल सर्वोच्च न्यायालय को है. जब तक पूर्व मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणी कायम रहेगी, तब तक मंदिर-मस्जिद के बीच झगड़े की आशंका बनी रहेगी, जो न्यायालय द्वारा आदेशित सर्वेक्षणों के कारण देश की आत्मा को और अधिक चोट पहुंचाएंगे.
उस समय के सांसदों द्वारा इतने शक्तिशाली ढंग से व्यक्त किए गए उपासना स्थल अधिनियम 1991 के पीछे का उद्देश्य भारत के धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र को सुरक्षित करना था. अयोध्या में एक मस्जिद को लेकर हिंसक विवाद ने देश को एक पीढ़ी और उससे भी अधिक समय तक विभाजित कर दिया. इसकी दरारें अभी भी गहरी हैं. देश भर की अदालतों को कानून की भावना को धता बताने और इतिहास के घावों को फिर से खोलने की अनुमति देकर भारत की सर्वोच्च न्यायपालिका, इसकी स्थानीय अदालतें, सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी और यहां तक कि कमजोर विपक्ष ने भी भारत के लोगों को बुरी तरह से निराश किया है.
(लेखक मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं.)
(मूल अंग्रेजी लेख से मो. आमिर ख़ान और सैयद रुबील हैदर ज़ैदी द्वारा अनूदित)