बंगनामा: बंगाली पिकनिक मनाते नहीं, रचाते हैं

आप किसी बड़े कस्बे, या छोटे-बड़े शहर के रहने वाले हों या कलकत्ता के बाशिंदे, सर्दियों के आते ही उनका मन मचलने लगता. पश्चिम बंगाल में पंखों के बंद होते और बंदर टोपी के निकलते ही पिकनिक रचाने की इच्छा कुलाचें भरने लगती है. बंगनामा स्तंभ की सोलहवीं क़िस्त.

(प्रतीकात्मक फोटो: neel_dustd/flickr/CC BY-NC-ND 2.0)

‘एई जायगाह पिकनिकेर जोन्यो खूब भालो होते पारे. बीडीओ साहेब आपनी एर जोन्यो किछु कोरून (यह जगह पिकनिक की बहुत अच्छी जगह हो सकती है. बीडीओ साहब आप इसके बारे में कुछ कीजिए),’ कानाई बाबू ने हाथ से सामने फैले बहुत बड़े जलाशय की ओर इशारा करते हुए कहा. मैं ज़िला प्रशिक्षण के अंतर्गत तीन महीने के लिए बंगाल के उत्तर चौबीस परगना के आमडांगा ब्लॉक में बीडीओ के पद पर कार्यरत था. लहराती दाढ़ी के नीचे मंद मुस्कान दबाए कानाई बाबू आमडांगा पंचायत समिति के सभापति थे. वह 1990 के ढलते अक्तूबर का एक सुनहरा दिन था. उस दिन सुबह मेरे दफ़्तर पहुंचते ही उन्होंने मुझसे कहा कि वो मुझे कुछ दिखाना चाहते हैं तथा अपने साथ चलने का आग्रह किया. पंद्रह-बीस मिनट में हम दोनों धान के हरे-भरे खेतों से घिरे इस विशाल तालाब के किनारे खड़े थे.

जलाशय का किनारा ऊंचा और चौड़ा था. इसके तीन तरफ़ खुली ज़मीन पर पेड़-पौधों को लगाने की कोशिश वहां चर रही चंद बकरियों ने मिलकर नाकाम कर दी थी. न तो वहां पेयजल का कोई स्रोत था और न ही शौच की कोई व्यवस्था. हां, यह सही था कि यह जलाशय राष्ट्रीय राजमार्ग से एक किलोमीटर से भी कम दूरी पर था. परंतु यहां पिकनिक मनाने भला कौन सिरफिरा आएगा?

चूंकि मैं झारखंड के सुन्दर पठार पर पला-बढ़ा था, मेरे लिये पिकनिक का अर्थ था अपने शहर से बाहर निकल किसी रमणीक स्थल पर- जंगल के बीच, पहाड़ के पास, झरने या नदी के किनारे प्रकृति के बीच दिन बिताना. साथ में टिफिन में कुछ स्वादिष्ट ले जाना, जो रोज़ाना के भात-दाल से कुछ अलग हो. यह जगह सुंदर तो थी परंतु यहां विविधता के बजाय एकरूपता दिखाई देती थी.

उस समय मुझे पश्चिम बंगाल के लोगों में पिकनिक के आकर्षण के बारे में पूरी तरह पता न था. इस राज्य के बाहर शीतकाल और बंगाल की चर्चा होते ही ठहाकों के बीच बंगाली और उनके मंकी कैप (बंदर टोपी) और मफलर के प्रति आसक्ति की बात उठ आती है. बंगाल में बंदर टोपी और मफ़लर की अहमियत के बारे में चर्चा फिर कभी करूंगा. परंतु बंगाली ख़ुद शीत काल को जिन चीज़ों से जोड़ते हैं उनमें पिकनिक का अपना एक विशिष्ट स्थान आरक्षित है (कुछ अन्य चीज़ें हैं खजूर का गुड़, खजूर के गुड़ के रसगुल्ले, क्रिसमस केक, पीठा, इत्यादि).

आप किसी बड़े कस्बे, या किसी छोटे-बड़े शहर के रहने वाले हों या कलकत्ता के बाशिंदा, सर्दियों के आते ही मन मचलने लगता है. ग्रीष्म काल की धूप और उमस और बरसात की सर्वव्यापी चिपचिपाहट में छत की ओट और पंखे की हवा- वो बेशक गर्म क्यों न हो- छोड़कर लोग बाहर कहीं जाने की बात न तो सोच सकते हैं और न ही इसकी मोहलत मिलती है. नवंबर के अंत तक गर्मी सिमट चुकी होती है और दिसंबर की हल्की ठंड दरवाज़ा खटखटाने लगती है. बच्चों, युवाओं, और बड़ों का मन नीले आकाश को देखकर चंचल हो उठता है. यह भी कह सकते हैं कि पश्चिम बंगाल में पंखों के बंद होते ही और बंदर टोपी के निकलते ही जन गण के मन में निष्प्रभ दिनचर्या से कहीं दूर नीले गगन के तले पिकनिक रचाने की इच्छा कुलाचें भरने लगती है.

विद्यालयों और महाविद्यालयों के बच्चे हों या शिक्षक, कोऑपरेटिव के सदस्य हों या आवासन की गृहिणियां, पाड़ा क्लब के युवा हों या ब्रिज क्लब के प्रौढ़, मित्र मंडली हो या नाट्य मंडली- हर तरह के संस्थान और संगठन के सदस्यों के मध्य चर्चा होने लगती है कि पिकनिक कहां और कैसे मनाई जाए. इतने वर्षों के बाद मुझे विश्वास हो गया है कि बंगाली पिकनिक करते नहीं हैं, मनाते भी नहीं हैं- वे पिकनिक रचाते हैं.

पिकनिक किस दिन मनाई जाए- इस मुद्दे पर बहुत बातचीत नहीं होती क्योंकि छुट्टी के दिन पहले से ज्ञात रहते हैं. फलस्वरूप सारे छुट्टी के दिन- शनिवार, रविवार, क्रिसमस, नव वर्ष का पहला दिन, इत्यादि- पिकनिक के दिन बन जाते हैं. दिन का चयन होते ही उस दल के नेता-नेत्री हरकत में आ जाते हैं. इस बार पिकनिक के लिए कहां जाएं इस बात पर चर्चा होने की काफ़ी गुंजाइश है. जगह न बहुत दूर होनी चाहिए न ही बहुत पास, सुंदर भी होनी चाहिए और सुविधायुक्त भी.

पश्चिम बंगाल के वन क्षेत्र अधिकतर शहरों से, विशेष रूप से कलकत्ता महानगरी से, दूर स्थित हैं परंतु नदियों और जलाशयों की कमी नहीं है. इसलिए पिकनिक के लिए लोग शहर से बाहर, नदी के किनारे ही जगह ढूंढते हैं. वाहन का चयन, रास्ते के जलपान और दिन के ख़ानपान के मेन्यू, गैस के चूल्हे और गैस का सिलेंडर, मनोरंजन के साधन, खेल-कूद के सरंजाम- जिनमें बैडमिंटन अनिवार्य है, अंताक्षरी के पुरस्कार, प्राथमिक उपचार का डिब्बा- सब कुछ का इंतज़ाम करना पड़ता है.

दिसंबर, जनवरी का हर शनिवार या रविवार इस राज्य में पिकनिक का दिन बन जाता है. आप जिस किसी दिशा में जाएं, रास्ते में कई मिनी बसों, बसों, मिनी ट्रकों, ट्रकों और अन्य गाड़ियों में लोग खाते, गाते, बाजे बजाते और पिकनिक रचाने के लिए जाते दिख जाएंगे. कई गाड़ियों में लाउडस्पीकर या डीजे से नए युग के बजते गाने भी दूर से ही पिकनिक दलों को चिह्नित कर देते हैं. ऐसे दिनों पर नदियों और झीलों के तीर पिकनिक मनाने वालों से भरे मिलेंगे.

सबसे रुचिकर बात जो मुझे दिखती हैं कि वह यह कि बच्चे और महिलाएं तो किसी खेल या अन्य रोचक कार्यकलाप में व्यस्त दिखते हैं परंतु अधिकतर पुरुष खाना पकाने का आनंद ले रहे होते हैं. उस दिन खुले आकाश के नीचे भोजन बनाने का दायित्व पूरी तरह पुरुषों का होता है. चाहे प्याज़ काटना हो या आलू धोना हो, सब्ज़ी बनानी हो या पुलाव, पूरी तलनी हो या पकौड़ी, या फिर मांस मछली पकाना हो सारी ज़िम्मेदारी पुरुषों की होती है- बस उस दिन के लिए. पार्श्व में चीख रहे लाउडस्पीकर के गानों से वातावरण गुंजायमान रहता है. औसतन सारे पकवान बनते -नते तीन बज ही जाते हैं और फिर सभी मिलकर भोजन का आनंद लेते हैं. वस्तुतः उस दिन भोजन का नहीं भोज का आयोजन रहता है.

मज़े की बात यह है कि पिकनिक का प्राथमिक शाब्दिक अर्थ है ‘अनौपचारिक हल्का-फुल्का भोजन जो कि कहीं बाहर ले जाकर खाया जाए’ या ‘वनभोज’. बताया जाता है कि इस चलन की उत्पत्ति फ्रांस में अठारहवी शताब्दी में हुई. उन्नीसवीं सदी में मोने, माने और रेनवा जैसे कई विख्यात चित्रकारों ने पिकनिक पर चित्र भी बनाए. विशेष रूप से मोने का चित्र ‘घास पर भोजन‘ बहुत प्रसिद्ध भी हुआ तथा चर्चित भी.

फ्रांसीसियों की देखा-देखी पिकनिक बाकी यूरोप और इंग्लैंड में भी प्रचलित हुई और अंग्रेजों के साथ भारत में सर्वप्रथम बंगाल पहुंची. अंग्रेज़ों के लिए बंगाल में सर्दियों में ही वन भोज संभव था. शीतकाल बंगालियों के पिकनिक का भी समय बन गया. समय के साथ अंतर आया है. जब वन ही लुप्त होते जा रहे हैं तो वन भोज कैसे हो?

(चन्दन सिन्हा पूर्व भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी, लेखक और अनुवादक हैं.)

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