कौशल किशोर हमारे समय के एक ऐसे कवि-संस्कृतिकर्मी हैं जो अपनी सोच-समझ और विचारधारा में बिल्कुल साफ और पारदर्शी हैं. उनकी हाल की प्रकाशित कृति ‘भगत सिंह और पाश: अंधियारे का उजाला’ में आजादी के बाद से आज तक की सत्ता, व्यवस्था और छलावों से भरी भारतीय सामाजिकता की पड़ताल है. और इस पड़ताल में कौशल किशोर आजादी के बाद से आज तक देश के भाषा-क्षेत्रों के जन आंदोलनों और रचनाकारों की सक्रिय भूमिका का उल्लेख करते हैं.
और पाते हैं कि इस लंबे दौर में लड़ाई बखूबी लड़ी गई है और आगे भी इतनी ही शिद्दत से लड़ी जाएगी. वह लू शुन और फैज़ के बहाने यह साफ कर देना चाहते हैं कि इस देश में ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय धरातल पर भी, जहां भी दुनिया में अवाम को वैचारिक छल-छद्म या सत्ता की ताकत से दबाया, डराया गया है, साहित्य वहां प्रतिरोध की मशाल जलाकर, जनता के समर्थन में खड़ा हुआ है.
भगत सिंह और पाश ने अपनी शहादत से इस देश की सामाजिकता में मशाल जलाई है. भगत सिंह जहां राजनीतिक सरोकारों के पहरुआ रहे हैं, वहीं पाश हमारी सांस्कृतिक चेतना के संवाहक. दोनों की शहादत अपने अवाम को न्याय देने को प्रतिबद्ध रही है. पाश भगत सिंह की विरासत को लेकर आगे बढ़े थे और अपनी विरासत हमारे लिए छोड़ गए.
आजादी के बाद से आज तक इस देश का मजदूर, किसान और मेहनतकश हैरान है कि हमें कौन सी आजादी मिली? क्या इसी आजादी के लिए हमारे पुरखों ने अंग्रेजों से लोहा लिया? क्या इसी के लिए हमारे अनगिनत जननायकों ने अपने प्राणों की आहुतियां दीं? क्या यही था, जिसके लिए इस देश में लाखों जानें गईं? क्या इसी के लिए इतने-इतने जलियांवाला बाग जैसे नरसंहार हुए?
इन सवालों के जवाब कौशल किशोर ने बहुत साफगोई से इस किताब में दिए हैं कि भगत सिंह और गांधी आजादी की लड़ाई में दो ऐसी विचारधाराओं के अग्रदूत थे, जो उस देशकाल में परस्पर टकराती हुई आगे बढ़ती हैं.
भगत सिंह दुनिया के अनेक क्रांतिकारी आंदोलनों से ऊर्जा लेकर एक ऐसे जन आंदोलन की ओर बढ़ रहे थे जो साम्राज्यवाद और सामंतवाद के खिलाफ एक शोषण मुक्त समाज की रचना कर सके. इसके लिए वह एक क्रांतिकारी पार्टी की जरूरत महसूस कर रहे थे. वह रूसी क्रांति और सोवियत समाजवादी व्यवस्था से प्रभावित होकर मार्क्सवाद की ओर उन्मुख हुए थे. भगत सिंह को विश्वास था कि क्रांतिकारी आंदोलन से मजदूर-किसानों को न्याय मिलेगा. और आजादी के बाद हम एक शोषण मुक्त समाज की रचना कर सकेंगे.
क्या ऐसा हुआ?
कौशल किशोर लिखते हैं कि भगत सिंह और उनके साथियों ने आजादी का जो सपना देखा था, जिस संघर्ष और क्रांति का आह्वान किया था, वह अधूरा ही रहा. भारतीय जनता के गौरवशाली संघर्षों और विश्व पूंजीवाद के आंतरिक संकट के परिणाम स्वरूप जो राजनीतिक आजादी 1947 में मिली उसका लाभ केवल इस देश के पूंजीपतियों, सामंतों और उनसे जुड़े मुट्ठी भर लोगों ने ही उठाया. सातवां दशक आते-आते आजादी से मोह भंग की प्रक्रिया शुरू होती है. भारत के नए शासक वर्ग के खिलाफ असंतोष तेज होता है जिसकी सबसे मुखर अभिव्यक्ति चौथे राष्ट्रीय आम चुनाव में सात राज्यों में गैरकांग्रेसी सरकारों के गठन और नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन के रूप में होती है.
कौशल किशोर यह मानते हैं कि नक्सलबाड़ी किसान विद्रोह ने उस दशक में भारतीय समाज को जिस गहराई तक प्रभावित किया, उसके चलते सारा देश जैसे आंदोलित हो उठा. तरह-तरह के विमर्शों द्वारा भगत सिंह की विरासत फिर जीवित हो उठा. यह विमर्श देश के अलग-अलग हिस्सों की जनता तक तो गया ही, उसने उन रचनाकारों और संस्कृतिकर्मियों को भी अपनी लपेट में ले लिया जो अपने-अपने भाषा-क्षेत्रों के जन संघर्ष में शामिल थे.
परिणाम यह हुआ कि सभी भारतीय भाषाओं में ऐसे रचनाकारों का उदय हुआ जिन्होंने भगत सिंह की विरासत को मुखरित करना शुरू किया. पंजाब के कवि अवतार सिंह पाश उसी विरासत के पहरुआ थे, जिन्हें पहले तो व्यवस्था द्वारा गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया. बाद में खालिस्तान समर्थकों ने उन्हें गोली मार दी. पाश की यह शहादत 23 मार्च को ही हुई, जो भगत सिंह की शहादत का दिन है. यह भी एक संयोग ही है कि दोनों पंजाब से थे.
जो भी हो, यह किताब इस बात का सिलसिलेवार दस्तावेज है कि इस देश के जन-आंदोलनों, संस्कृतिकर्मियों और रचनाकारों के पास भगत सिंह और पाश की विरासत है, जिन्होंने जनता की लड़ाई पूरी ताकत और ईमानदारी से लड़ी है. हमें इस विरासत के उजाले में, इस कठिन समय के अंधेरे से लड़ना है. हमारी लड़ाई सत्ता और पूंजीवाद से तो है ही, हम एक ऐसे अंधेरे की ओर लगातार बढ़ रहे हैं, जो धर्म के ‘सांप्रदायिक उजाले’ की बात कर रहा है. हमारी यह व्यवस्था अब उस मुकाम पर है, जहां जनता को धर्म के कवच में लपेटकर, उसे सोच समझ से परे किया जा रहा है. हमें इस कुचक्र से भी धारदार तरीके से लड़ना होगा.
इस किताब में कविता में पाश के उदय से लेकर उनकी शहादत तक एक संपूर्ण सिलसिलेवार यात्रा का उल्लेख है. साथ ही उनकी कविता के उस तेवर का भी, जो उनकी दिशा तय करती है – ‘जिस दिन फांसी दी गई/उनकी कोठरी में लेनिन की किताब मिली/जिसका एक पन्ना मुड़ा हुआ था/पंजाब की जवानी को/उसके आखिरी दिन से/उस मुड़े पन्ने से बढ़ना है आगे/चलना है आगे.’
भगत सिंह और पाश अंधियारे का उजाला इसलिए भी हैं कि भगत सिंह की विरासत की रोशनी में इस देश के अलग-अलग हिस्सों में समय-समय पर जन आंदोलन हुए. चाहे वह तेलंगाना आंदोलन हो, चिपको आंदोलन या कई कई बार, कई संदर्भों में किसान आंदोलन. यहां तक कि आठवें दशक का जयप्रकाश आंदोलन भी इस विरासत का परिणाम है.
कौशल किशोर इन आंदोलनों को इनकी संपूर्णता में याद करते हुए, उनमें रचनाकार की हिस्सेदारी दर्ज करते हैं. विशेषकर तेलंगाना आंदोलन के अनेक कवियों के साथ महाकवि श्री श्री और चेराबण्डा राजु के कवि-कर्म को दो अलग-अलग अध्यायों में वह रेखांकित करते हैं. इस विरासत की रोशनी में वह चेराबण्डा राजु के रचनात्मक संघर्ष को रेखांकित करते हैं, जिसमें राजु को उनकी क्रांतिधर्मी कविताओं के चलते, आपातकालीन दौर में निवारक नजरबंदी कानून और मीसा के तहत जेल में डाल दिया गया. उनकी नौकरी छीन ली गई. उन्हें ‘सिकंदराबाद षड्यंत्र’ में फंसाया गया. इन यातनाओं के कारण ला-इलाज हालत में जेल से बाहर आते ही उनकी मृत्यु हो गई.
इसी विरासत की रोशनी में ‘तेलंगाना आंदोलन में कविता की उड़ान’ शीर्षक से 52 कवियों के सामूहिक संग्रह ‘उड़ान’ पर विस्तार से आलेख है.
आज साहित्य की जमीन पर जहां भी अपनी जनता के न्याय के लिए रचनाकारों का संघर्ष है, वह उसी रचाव के लिए है जो भगत सिंह और पाश का सपना रहा है. उस सपने के आसपास गोरख पांडे, अदम गोंडवी, वीरेन डंगवाल, मंगलेश डबराल, पंकज सिंह, मुद्राराक्षस, राम निहाल गुंजन और लालसा लाल तरंग जैसे रचनाकार संघर्षरत रहे हैं. उसी के आसपास सफदर हाशमी, गुरशरण सिंह और अनिल सिन्हा का संस्कृतिकर्म पूरी तन्मयता और वैचारिकता के साथ निरंतर सक्रिय रहा है. इन रचनाकारों के उदय से लेकर उनके अंतिम दिनों तक की पड़ताल करते हुए कौशल किशोर उन आत्मीय क्षणों को भी रेखांकित करना नहीं भूलते जो उन्होंने उनके साथ बिताए हैं, और अब जो उनके पास है, उन सृजनधर्मी रचनाकारों की बची और सजोई हुई थाती है. इस संदर्भ में कौशल किशोर की कचोट के एक दो उदाहरण जरूरी हैं.
अदम गोंडवी की बीमारी की हालत में कहां-कहां से पैसे एकत्र किए गए? सरकार के किन-किन संस्थानों ने सहयोग का आश्वासन दिया? लेकिन आश्वासन आश्वासन ही रहा. उनसे जिस सहयोग की अपेक्षा थी, उन्होंने रत्ती भर भी नहीं दिया. कुछ सहयोग आया भी तो पच्चीस हजार रुपये का सहयोग. अदम उन पैसों का क्या करते? सरकार चाहती तो अपने एक आदेश से उनके इलाज की पूरी जिम्मेदारी ले सकती थी. लेकिन वह यह बोझ क्यों लेती? कौशल किशोर बहुत तकलीफ से बयां करते हैं,
‘17 दिसंबर की रात हम पीजीआई से चले तो बस यही सोचते रहे कि आज की रात अदम जी के लिए बड़ी कठिन रात है. जीवन की आशा बहुत क्षीण थी. कड़ाके की ठंड थी. अदम जी उस रात, सुबह से पहले ही चल दिए. …वह धुंध और कोहरे से भरी सुबह थी. हमारे अंदर से बार-बार यही आवाज उठ रही थी कि हम अदम को बचा नहीं सके.’
इसी तरह वीरेन डंगवाल के अवसान पर उनके घर पहुंचने की तड़प में कौशल किशोर याद करते हैं कि जिन दिनों वन विधायक के खिलाफ ‘चिपको आंदोलन’ चल रहा था, पूर्वी उत्तर प्रदेश से लेकर तराई तक किसानों का आंदोलन जारी था, यही समय था जब मध्यवर्ती सामाजिक शक्तियों का अभ्युदय हो रहा था. इन बिखरी हुई ताकतों को इंडियन पीपुल्स फ्रंट के तहत संगठित करना था. उसका सम्मेलन उत्तर प्रदेश की किसी ऐसी जगह पर होना था जो इन आंदोलनों का मिलन स्थल हो. यह स्थल बरेली हो सकता था लेकिन वहां संगठन का कोई ढांचा मौजूद नहीं था. अधिकांश राजनीतिक साथी भूमिगत थे. जब सत्ता से लेकर खुफियातंत्र तक की पूरी निगाह हो और नक्सलवादी कहकर दमन उत्पीड़न चल रहा हो, यह साहसिक जिम्मेदारी थी, जो खतरे से भरी थी. वीरेन और जावेद ने यह जिम्मेदारी ली और बरेली में आईपीएफ का पहला दो दिन का राज्य सम्मेलन हुआ. सम्मेलन ऐतिहासिक रूप से कामयाब हुआ तथा आईपीएफ को उत्तराखंड से लेकर तराई तक विस्तार मिला.
वीरेन डंगवाल जैसे जुझारू कवि को लेखक-पत्रकार अनिल सिन्हा के अवसान पर रोते देखकर कौशल किशोर कहते हैं,
‘जैसे आंखों से कविता छलछला रही हो. सब कुछ जैसे गले में ही अटक कर रह गया है. यह कौन सी कविता? समझ से परे थी, पर वह कविता ही थी जो वेगवान नदी की तरफ बह रही थी. इतना आवेग. सीधे दिल में उतर जाए. आंसुओं के रूप में बहती कविता को सब महसूस कर रहे थे. क्या प्रकृति का कमाल है कि जहां शब्द साथ छोड़ देते हैं, शब्दों का भाव से ताल-मेल नहीं बैठ पाता, वहां हमारी इंद्रियां विचारों-भावों को व्यक्त करने का माध्यम बन जाती हैं.’
इन सारी कचोट को कौशल किशोर इस किताब में सिलसिलेवार गूंथते जाते हैं जिससे इस संघर्ष को निरंतर गति दी जा सके. इस कोशिश में वह दो खण्डों में शमशेर बहादुर सिंह का साक्षात्कार लेते हैं जिसमें जन आंदोलनों के तहत सभी भारतीय भाषाओं के रचनाकारों का संघर्ष, उनके उठने-गिरते विवाद, समाधान और निरंतर आगे बढ़ाने की प्रक्रिया का उल्लेख है. कई बार इस सफर में हिंदी उर्दू का विवाद भी सामने आया. लेकिन शमशेर जी यह पाते हैं कि हिंदी उर्दू की लड़ाई के पीछे शासक वर्ग का बहुत बड़ा हाथ है. यह उर्दू की परंपरा के द्वारा हिंदी के निर्माण की सच्चाई को दरकिनार कर भाषाई आधार पर लोगों को लड़ाने की कोशिश है.
इस कोशिश में एक ओर हिंदी की कुलीनता के पक्षधर जातीय रचनाकार हैं, वहीं कुछ शुभचिंतकों के द्वारा यह सवाल भी उठाया गया कि उर्दू उनसे दूर होती जा रही है. शमशेर जी यह स्वीकार करते हैं ‘जहां जीवंत भाषा लाई जाएगी, वहां हिंदी उर्दू के झगड़े कम होंगे क्योंकि पाठक जीवंत भाषा को जल्दी ग्रहण करता है. पिछले 20-25 वर्षों में कहानियों की भाषा बहुत बदल गई है. इस अर्थ में हिंदी ही नहीं रह गई. हिंदी-उर्दू का भेद ही खत्म हो गया.’
इसी कोशिश में कौशल किशोर नाटककार गुरशरण सिंह को याद करते हैं. ‘गुरशरण सिंह होने का मतलब हिंदुस्तान को इंकलाब की शक्ल में देखा जाए’ शीर्षक से वह उनकी उस भूमिका को रेखांकित करते हैं जो पंजाब में उनके द्वारा ‘इप्टा’ की स्थापना से शुरू होकर जिंदगी भर रंगकर्म को ओढ़ती-बिछाती रही. गुरशरण सिंह एक ओर जहां क्रांतिकारी राजनीतिक आंदोलन से गहरे स्तर पर जुड़े थे, वहीं दूसरी ओर उन्होंने सांस्कृतिक आंदोलन संगठित कर पंजाब से लेकर उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे कई राज्यों में किसानों के बीच जाकर अपनी टीम के साथ नाटक प्रस्तुत किया. उनका कहना था कि इससे किसानों के आंदोलन को एक दिशा और गति मिलेगी. गुरशरण सिंह जिंदगी की अंतिम सांस तक यह अलख जगाते रहे कि एक दिन जरूर इस अंधियारे से निजात मिलेगी. हमें मशाल जलाए रखना है.
इस अध्याय में गुरशरण सिंह के संपूर्ण संस्कृतिकर्म पर बात करते हुए कौशल किशोर उनसे भी एक साक्षात्कार करते हैं. इसमें वह बताते हैं कि किस तरह गांव-गांव जाकर नाटक करने से उन्हें पता चलता है कि हमें जिस जागरूक दुनिया की तलाश है, वह हमारे गांव-गिराओं से बन सकती है. वहां मौसम की मार सहकार 10-10 मील दूर से आए हुए लोग नाटक के प्रति जितने उत्सुक होते हैं, वह उस जागरूक दुनिया का एक बहुत बड़ा उदाहरण है क्योंकि भारत की आत्मा गांवों में बसती है. गुरशरण सिंह कहते हैं कि मैं इतिहास के सकारात्मक पहलुओं को तात्कालिक परिस्थितियों के साथ जोड़ते हुए नाटक करता हूं.
इस कोशिश में ही कौशल किशोर ‘यह ऐतिहासिक पाप होगा अगर हम चुप रहे’ शीर्षक लेख में मुद्राराक्षस के उस रचनात्मक संघर्ष को याद करते हैं जो लेखक, रंगकर्मी और आंदोलनकर्ता से लेकर चुनाव में उतरकर अपने हथियारों को आजमाता है. तंग गलियों और बस्ती से निकलकर बोटैनिकल गार्डन में बैठकर कविता रचने वाले मुद्राराक्षस जीवन से लड़ते हुए बहुत जल्दी यह समझने में कामयाब रहे कि ‘हमारे समाज में जो दलित, वंचित, शोषित, कामगार हैं, वह हमारे विचार के केंद्र में है. वह निरीह नहीं बल्कि संघर्षरत-युद्धरत आदमी हैं जिनके अंदर बदलाव की उत्कट आकांक्षा है. इसी बुनियाद पर खड़े होकर उन्होंने समाज को देखा-परखा और समझा. दुबले-पतले और छोटी कद-काठी वाले मुद्रा जी के अंदर हम जिस आग का अनुभव करते हैं, वह इसी आदमी की है. इस जांबाज योद्धा और सर्जक के पास जबरदस्त मेधा और मजबूत कलेजा था.’
जहां भी दुनिया में जन-सरोकारों और उनके पक्षधरों पर हमले हुए, वहां यह चीख सत्ता के विरोध में उठ खड़ी हुई है. यह चीख फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की थी. यही लू शुन और सईद शेख की थी. ‘फ़ैज़ इंकलाब का शायर या मोहब्बत का?’ शीर्षक आलेख में कौशल किशोर साफ़ शब्दों में कहते हैं,
‘हम उनकी पूरी कविता यात्रा पर गौर करें तो पाएंगे कि फ़ैज़ का यह रूप अर्थात मोहब्बत के शायर का रूप समय के साथ निखरता गया.’
फ़ैज़ अपने अवाम को मोहब्बत से देखते हैं. सारी दुनिया के कवि-शायर दुनिया में मोहब्बत ही देखना चाहते हैं. लेकिन जब सत्ता की सोची-समझी चालाकियों से आवाम लहूलुहान होकर, नर्क की जिंदगी जीने को विवश हो जाए, फैज कह उठाते हैं- ‘ए ख़ाकनशीनों उठ बैठो/वो वक्त करीब आ पहुंचा है/जब तख्त गिराए जाएंगे/जब ताज उछाले जाएंगे.’
जाहिर है कि फ़़ैज़ को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी. उन्हें सत्ता द्वारा कई कई बार, कई वर्षों तक जेल में डाल दिया गया.
इसी तरह ‘लू शुन: जीवन संघर्ष और साहित्य’ शीर्षक आलेख का यह संदर्भ देखने योग्य है कि जब 17 जनवरी, 1931 को वामपंथी लेखक संघ के तीन युवा सदस्यों को सत्ता द्वारा गिरफ्तार कर गुप्त रूप से उनकी हत्या कर दी गई तो उस पर लू शुन की प्रतिक्रिया थी- ‘हमारे कॉमरेडों के खून ने यह साबित किया है कि मजदूरों का क्रांतिकारी साहित्य वैसा ही आतंक और दमन का शिकार है, जैसा कि मेहनतकश वर्ग. दोनों की लड़ाई एक है. दोनों एक ही परिणति के हिस्सेदार हैं.’
इस किताब में जितने भी आलेख हैं, हर कहीं एक सूत्र है, आजादी के बाद से आज तक के दौर को पिरोता हुआ. भगत सिंह और पाश के विचारों की रोशनी में इस अंधियारे से लड़ता हुआ. ‘दूर से आती एक प्रवासी की आवाज’ में फिनलैंड में जा बसे भारतीय कवि-चित्रकार सईद शेख के बहाने, अपने वक्त के सवालों से जूझते साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों की नागरिक स्वतंत्रता का दमन करने वाली सत्ता का भरपूर विरोध है.
कौशल किशोर स्पष्ट रूप से सवाल उठाते हैं- ‘आखिर यह कैसी व्यवस्था है जो न्यूनतम सुरक्षा की गारंटी नहीं दे सकती है? यह कैसी प्रगतिशीलता, जनवाद और वामपंथ है, जहां लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता को समर्पण करना पड़ता है और कट्टरता व सांप्रदायिकता जो तय करती है, उसके आगे सत्ता अपना सर झुका देती है. वह पागल हाथी बन जाती है, जिसे सब कुछ नष्ट कर देने की स्वतंत्रता है.’
यह विरोध केवल सईद शेख के लिए ही नहीं, मकबूल फिदा हुसैन, तस्लीमा नसरीन के बहाने उन सारे सत्ताधीशों, सारी व्यवस्थाओं से है जो कृतिकार की रचनात्मकता को अपनी पूंजी समझ कर, किसी निषेध की स्थिति में उस पर जुल्म करने के लिए सदैव तत्पर है.
‘मैं 1857 बोल रहा हूं’ शीर्षक से बीएन गौड़ विप्लव बिड़हरी के प्रबंध काव्य की चर्चा है. गौड़ जी ने इसमें उस दौर को ही नायक बनाया है. नायक कहता है – ‘मुक्ति युद्ध जारी है/और जारी रहेगा/मैं मारूंगा नहीं/क्रांति का इतिहास इतनी जल्दी नहीं मारता/बलिदान के रक्त की ललाई को/ना धूप सुख सकती है/ना हवा और ना वक्त /इसलिए मैं फिर कहता हूं/मैं जिंदा हूं/जिंदा रहूंगा.’
विप्लव बिड़हरी कहते हैं – ‘कारतूस की चर्बी से भड़का था यदि समर/जान हथेली पर ले कूदा था रण में क्यों शाह जफर/ पूंजीवादी सत्ताधीशों ने लिखवाए जो इतिहास/पूरा सत्य नहीं है उनमें/सच का है उपहास.’ 1857 अभी मरा नहीं है. अभी मरी नहीं है सफदर हाशमी की आवाज. वह नुक्कड़ नाटकों का आंदोलन जन सांस्कृतिक आन्दोलन का रूप ले चुका है. हजारों-हजार लोग उस आवाज को बुलंद कर रहे हैं कि हम सब सफदर हैं. तुम हमें मारोगे? आओ मारो. तुम हमें मार नहीं पाओगे. हम मरकर भी जिंदा रहेंगे.
इस तरह कौशल किशोर साफ तौर पर या घोषित करते हैं कि आजादी के बाद से आज तक के जन आंदोलन और जन-सरोकारों का लेखन, भगत सिंह की वैचारिक विरासत को धार देकर, उसे आगे बढ़ाने की भूमिका में सक्रिय रहा है. उस दौर के जितने भी रचनाकार रहे हैं, सबने आजादी के छद्म को स्वीकार करते हुए, न्याय के लिए जनता की लड़ाई में अपनी कलम से हिस्सेदारी की है. उन्होंने कलबुर्गी और गौरी लंकेश की हत्या के खिलाफ जन आंदोलन किए हैं.
पाश उस विरासत के लड़ाकू योद्धा थे. उन्होंने भगत सिंह की तरह ही लड़कर आगामी रचनाकारों को अपनी विरासत सौंप दी. और आज जबकि सत्ता द्वारा जनता पर दमन, अत्याचार के साथ धर्म की आड़ में वैचारिक हमला किया जा रहा है, तथाकथित इतिहास लिखवाया जा रहा है, सांप्रदायिकता को पोषण देने वाले रचनाकार पैदा किया जा रहे हैं- चारों ओर बेखौफ अंधेरे का साम्राज्य है. भगत सिंह और पाश इस अंधेरे का उजाला है.
उनकी वैचारिक रोशनी में हमें आगे बढ़ाना है. हमें समय से जूझना है और अपने संघर्ष को धार देनी है. हमें अवाम को जागरूक करना है कि ऐसे खतरनाक समय में हमारा रास्ता क्या होगा? हमें कैसे यह लड़ाई जारी रखनी होगी? इस किताब के बहाने कौशल किशोर आजादी के बाद से आज तक के समय की पड़ताल करते हुए बदलाव के संघर्ष और विचार को भगत सिंह और पाश की शहादत के क्रम में देखते हैं.
(शैलेश पंडित कवि-साहित्यकार हैं और दूरदर्शन के पूर्व महानिदेशक रह चुके हैं.)