आस्था अनुष्ठान में बदल रही है; धर्म का अज्ञान तेज़ी से बढ़ रहा है

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: हिंदी अंचल में साहित्य का धर्मों से संवाद लगभग समाप्त हो गया है. इस विसंवादिता ने साहित्य को उस बड़े सामाजिक यथार्थ से विमुख कर दिया जो अपने विकराल राजनीतिक विद्रूप में, बेहद हिंसक और क्रूर ढंग से हमें आक्रांत कर रहा है.

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(प्रतीकात्मक फोटो साभार: Gerd Altmann/Pixabay)

इन दिनों धार्मिकता, धार्मिक उन्माद, धार्मिक हिंसा, सभी बहुत उभार पर हैं. बेरोज़गारी के अभूतपूर्व विस्तार के समय, बहुतों को धर्म की रक्षा करने का रोज़गार मिल रहा है. देश और कई प्रदेशों की लोकतांत्रिक पद्धति से चुनी गई सत्ताएं बहुत दिखाऊ ढंग से धर्मपरायण हो गई हैं. विडंबना यह है कि यह सब कुछ अध्यात्म और आस्था को निरे अनुष्ठान और तमाशे में बदल रहा है और धर्म का अज्ञान तेज़ी से बढ़ रहा है.

ऐसे मुक़ाम पर धर्म और साहित्य के संबंध पर थोड़ा विचार करना प्रासंगिक है. दोनों का संग-साथ लगभग शुरू से है. बहुत से धर्मों के आदि और संस्थापक ग्रंथ, जिनमें वेद, कुरान, बाइबिल, गुरुग्रंथ साहिब शामिल हैं, कविता में रचे गए हैं. कई सदियों तक बहुत सारा साहित्य धार्मिक भावनाओं और कथानकों से प्रेरित होकर लिखा जाता रहा है: धर्म साहित्य का उपजीव्य रहा है.

दूसरी तरफ़, साहित्य का संघर्ष धर्म की रूढ़ियों, अन्याय-अतिचार, विपथगामिता, कट्टरता, जकड़बंदी, जड़ता आदि के विरुद्ध रहा है. महाभारत, भक्ति काव्य आदि ने धर्म के विचलन और पाखण्ड के विरुद्ध हस्तक्षेप किया है. यह भी कहा जा सकता है कि ऐसे मुक़ाम पर साहित्‍य ने एक तरह से स्वयं धर्म को स्वधर्म की याद दिलाई है.

धर्म का सत्ता और राजनीति से, स्थान और संपत्ति से, सामाजिक आचरण और व्यवहार से, विचार और चिंतन से, साहित्य और कलाओं से संबंध और सहकार रहा है. उनमें तनाव भी जब-तब आते रहे हैं. बुनियादी तनाव इससे उपजता रहा है कि धर्म सर्वग्रासी होना चाहता रहता है: वह अपने को मानव प्रयत्न के सभी उपक्रमों से ऊपर और व्यापक माने जाने पर इसरार करता रहा है.

भारत में आठ धर्म हैं: चार का हमने आविष्कार किया और चार बाहर से आए. यह धार्मिक बहुलता भाषाओं-भोजनों-वेशभूषाओं-रीति-रिवाज़ों आदि की बहुलता के साथ-साथ है. यह भी याद रखना चाहिए कि बौद्ध जैन और सिख धर्म बहुसंख्यक हिंदू धर्म से असहमति से उपजे धर्म रहे हैं और इन सभी ने भारतीय परंपरा में श्रेष्ठ साहित्य, कला और स्थापत्य, दर्शन और चिंतन को उत्प्रेरित किया है. उन चार ने भी जो बाहर से भारत में आए. इस अर्थ में भारतीय परंपरा और सभ्यता धर्मबहुल और धर्मसमृद्ध हैं.

हिंदी अंचल में साहित्य का धर्मों से संवाद, एक तरह से, दिनकर-अज्ञेय-वीरेन्द्र कुमार जैन-नरेश मेहता आदि के बाद लगभग समाप्त हो गया. इस विसंवादिता ने साहित्य को उस बड़े सामाजिक यथार्थ से विमुख कर दिया जो अपने विकराल राजनीतिक विद्रूप में, बेहद हिंसक और क्रूर ढंग से हमें आक्रांत कर रहा है. हम आस्था को अनुष्ठान में बदले जाने को लाचार देख भर रहे हैं.

मोटापे से मरते शहर

इस बार अपने घरू शहर सागर लगभग दस साल बाद गया. पिछली बार विश्वविद्यालय के किसी आयोजन में आमंत्रित था, सो गया था. विश्वविद्यालय को केंद्रीय हुए डेढ़ दशक तो हो ही गए होंगे और हालत यह है कि वह किसी क्षेत्र में किसी उपलब्धि या प्रयत्न के लिए नहीं जाना जाता.

एक छोटे से शहर में स्थापित इस विश्वविद्यालय की उस समय देशव्यापी कीर्ति थी जब मैं वहां 1959-60 में छात्र था. अनेक विषयों में श्रेष्ठ विद्वान अध्यापक थे जिनमें हिंदी, अंग्रेज़ी, गणित, भौतिकी, भूगर्भशास्त्र, दर्शन, काव्यशास्त्र आदि शामिल थे. 1960 में जब वहां से बीए करने के बाद में दिल्ली सेंट स्टीवेंस कॉलेज में एमए के लिए दाखिला लेने आया तो कुछ बीस मिनट में मुझे वह मिल गया: प्रिंसिपल के सचिव ने कहा आप सागर से आए हैं, आपको कैसे नहीं मिलेगा!

उस समय वहां हिंदी विभाग के बुलावे पर जैनेन्द्र कुमार और राहुल सांकृत्यायन और हमारे यानी बीए के छात्रों के निमंत्रण पर अज्ञेय और मुक्तिबोध के व्याख्यान हुए थे. 1958 में इसी विश्वविद्यालय में पढ़ रहे हम पांच छात्रों ने ‘समवेत’ नाम की पत्रिका निकाली थी जिस में शमशेर-अज्ञेय-मुक्तिबोध-भवानीप्रसाद मिश्र-नागार्जुन-गिरिजराज कुमार माथुर- प्रभाकर माचवे- केदारनाथ सिंह से लेकर निर्मल वर्मा, शानी, कमलेश्वर, विद्यानिवास मिश्र आदि की रचनाएं छपी थीं. आचार्य नंददुलारे वाजपेयी ‘आलोचना’ पत्रिका का संपादन करते थे. कान्ति कुमार जैन, धनंजय वर्मा, विजय बहादुर सिंह आदि अनेक लेखक उसी समय छात्र थे.

सागर अब स्मार्ट सिटी है और तरह-तरह की तोड़फोड़ हो रही है. वह बेहद जनाकीर्ण है और उसमें हर मुहल्ला बाज़ार हो गया लगता है. उसके प्रसिद्ध तालाब के ऊपर एक फ़्लाई ओवर बन गया है. हर जगह कुरुचिपूर्ण ढंग से रंगे नए-पुराने मंदिर हैं. कटरा बाज़ार की मुख्य सड़क कुछ चौड़ी हो गई है पर वहां से निकलने पर दोनों तरफ़ एक भी पुस्तक की दुकान नज़र नहीं आई जबकि पहले कम से कम दो-तीन थीं और साथी बुक डिपो तो हम युवा लेखकों का दैनिक अड्डा था.

चिरौंजी की बरफ़ी तो अब भी सौभाग्य से बनती-मिलती है. मस्जिद के पास जो मुंगोड़ेवाला बदमिजाज़ बैठता था, उसकी याद आई. पता नहीं अब मुंगोड़े वैसे स्वादिष्ट स्मार्ट सिटी में कहां बनते हैं. सागर एक साफ़-सुधरा शहर था जो ख़ासा मैला-कुचैला लग रहा था. हमारे सरकारी हाई स्कूल की पत्थर की इमारत में विस्तार हो गया है और पुराना सौम्य स्थापत्य भड़कीले विस्तार में सहमा सा खड़ा है. सरकारी अस्पताल भी लगा कि पीछे ढकेल दिया गया है और प्राइवेट वार्ड की पथरीली सड़क कुछ संकरी लग रही थी जिससे मां का शव हम नीचे सम्हालकर उतार लाए थे, अंतिम यात्रा के लिए.

सागर इतना बदल गया, मोटा गया है कि हम जैसों को सागर ही नहीं लगता. वहां की साहित्य-धारा भी सूख सी गई है और पुराना शहर अब भौतिक रूप से नहीं उसके कवियों की कविता में ही बचा है और उसकी याद भी सागर के नागरिकों को शायद नहीं है.

एक त्रयी यह भी

दिन भर लंबा आयोजन सागर जैसे शहर में अब भी संभव है और उसमें डेढ़ेक सौ लोग मौजूद रहे यह सुखकर और उत्साहजनक था. शहरों में पहले के कवियों की स्मृति जगाने के अभियान का यह दूसरा आयोजन था जिसे ‘साहित्य सागर: दो’ नाम से युवा कवि-आलोचक मिथलेश शरण चौबे और श्यामलम संस्था ने संभव किया.

तीन दिवंगत कवियों आग्नेय, जितेन्द्र कुमार और रमेशदत्त दुबे पर लोगों ने अरुणाम सौरभ, मदन सोनी, संगीता गुन्देचा, शशि कुमार सिंह, शशिभूषण मिर आदि के सुचिंतित विचार सुने. इस अवसर पर प्रकाशि पुस्तिका ‘पुनरपि’ से तीन छोटी कविताएं देखें:

सूर्यास्त में एक छोटा स्मरण

उंगलियां धूप की नहीं होतीं/धूप वसन्त की नहीं होती/ वसन्त सूर्य का नहीं होता/सूर्य आकाश का नहीं होता/आकाशः नेत्रों का होता है.

(आग्नेय)

एक कविता

इसके सिवा कुछ और बाक़ी नहीं था,/आवाज़ें उस वक़्त भी/मेरे क़रीब आ रही थीं,/पर उनका कोई मतलब नहीं रह गया था./मैंने खिड़की की सलाख़ों के बाहर झांका/वहां आकाश और पेड़ छाये हुए थे/बेमतलब आवाज़ें मेरे क़रीब तक आईं./और बेवजह मैंने खिड़की के बाहर झांका,/वहां पेड़ और पेड़ छाये हुए थे/और आकाश छाये हुए थे.

(जितेन्द्र कुमार)

एक दिन ऐसा होगा

एक दिन ऐसा होगा/चन्द्रमा टकरायेगा/उसके सिर से/सूर्य/उसकी मोतियाबिन्द आंखों में/चकाचौंध भर देगा/आकाश के तारों को/चुन-चुनकर तोड़ लेगी वह फूलों की तरह./एक दिन ऐसा होगा/वह लीपेगी अपना आंगन/तो पूरी पृथ्वी लिप जाएगी.

(रमेशदत्त दुबे)

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)