जयंती विशेष: राधामोहन गोकुल, जिनकी विलक्षण तार्किकता ने उन्हें हिंदी नवजागरण का अनन्य नायक बनाया

गोकुल भारतीय चिंतन परंपरा की प्रतिगामी धारा को पूरी तरह खारिज करते हुए भी उसकी प्रगतिशील धारा की विरासत को आत्मसात करने में हिचकिचाते नहीं थे. उनका कहना था कि इस विरासत को पाश्चात्य चिंतन के क्रांतिकारी, जनवादी, वैज्ञानिक और प्रगतिशील मूल्यों से जोड़कर भारतवासी अपने भविष्य का रास्ता हमवार कर सकते हैं.

राधामोहन गोकुल. (फोटो साभार: नई किताब)

इसे विडंबना ही कहेंगे कि आज इस देश में बढ़ते पाखंड व पोंगापंथ के दौर में, जब हिंदी नवजागरण के विलक्षण नायक स्मृतिशेष राधामोहन गोकुल (15 दिसंबर, 1865-03 सितम्बर, 1935) के हर तरह के पाखंड व पोंगापथ का प्रतिकार करने वाले विचार उनके दौर से भी ज्यादा जरूरी हो चले हैं, खुद को प्रगतिशील व परिवर्तनकामी कहने वाली जमातें भी उनकी बहुत चर्चा नहीं करतीं.

उनके लेखन तो लेखन, स्वतंत्रता संघर्ष में उनकी क्रांतिकारी भागीदारी को भी भुला दिया गया है. इसको भी कि फारसी, हिंदी, अंग्रेजी व बही-खाते की पढ़ाई-लिखाई के कुछ ही दिनों बाद, जब उन्हें अपने जिले इलाहाबाद में ही महालेखाकार कार्यालय में सुभीते की सरकारी नौकरी मिल गई थी, एक क्रूर अंग्रेज अफसर द्वारा किए गए अपमान ने उनके जीवन की दिशा बदल डाली.

इस अफसर को लगता था कि बीस रुपये के (उन दिनों बेहद आकर्षक माने जाने वाले) मासिक वेतन के बदले वे अपने साथ उसके कितने भी खराब सलूक को बर्दाश्त करते रहेंगे. लेकिन नौ महीने भी नहीं बीते थे कि उनकी सहनशक्ति जवाब दे गई और एक दिन उन्होंने उस अफसर की रूल से जमकर पिटाई के बाद प्रतिज्ञा कर डाली कि कुछ भी हो जाए, अंग्रेजों की चाकरी नहीं करेंगे. साथ ही उन्हें देश से निकालने के क्रांतिकारी संघर्ष में कुछ भी उठा नहीं रखेगे. अनंतर, इस प्रतिज्ञा के पक्के पालन के लिए उन्होंने अपने सभी शैक्षणिक प्रमाण-पत्र जला डाले थे.

दोजख सही पै…

इस सिलसिले में जानना जरूरी है कि अपने स्वाभिमान और आत्मसम्मान को लेकर वे बहुत सजग रहते थे और किसी उर्दू शायर की निम्नलिखित काव्य पंक्तियां उनका कंठहार थीं- सिजदे से गर बहिश्त मिले दूर कीजिए, दोजख सही पै सर का झुकाना नहीं अच्छा.

आगे चलकर उन्होंने कर्म व विचार की एकता पर जोर देते हुए अनेकानेक संकीर्णताओं का अतिक्रमण कर वैज्ञानिक विचार व चेतना की ऐसी परंपरा डाली, जो और तो और, अपने आड़े आने वाली धर्म व ईश्वर की सत्ता को भी खुली चुनौती देती और मानती थी कि देश के पुराने भौतिकवादी चिंतन की जिस जुझारू व गौरवशाली परंपरा को साजिशन भुला दिया गया है, उसे इसी तरह आगे बढ़ाया जा सकता है.

ऐसे में स्वाभाविक ही था कि उन्हें अपने समय में ही राष्ट्रीय जागरण का अनन्य शलाका पुरुष माना जाने लगे. लेखक व संपादक किशन कालजयी की मानें, तो गोकुल हिंदी नवजागरण के ऐसे तेजस्वी नायक हैं, जिनका लेखन दबी-कुचली जनता की मुक्ति कामना व संघर्षों का जीवित साक्ष्य है. वे बताते हैं कि गोकुल को बेचैन किए रखने वाली देशभक्ति ने उन्हें उनके समय में ही बुनियादी उलटफेर के जज्बे से भरे जिद्दी योद्धा में बदल दिया था.

दूसरी ओर, प्रेमचंद के अनुसार, उनके विचारों में मौलिकता तो थी ही, गहरा अन्वेषण और हर किसी को कायल कर देने वाली सच्चाई भी थी. इसलिए किसी के लिए भी उनके तर्कों के सामने सिर न झुकाना कठिन था और लगता था कि उनके रूप में महात्मा चार्वाक ने ही फिर से अवतार लिया है.

यों, यह भी एक विडंबना ही है कि उन्हें ईश्वर को कल्पित पदार्थ मानकर उसका बहिष्कार करने वाले गोकुल में चार्वाक का अवतार दिखाई दे रहा था. हालांकि, अपने इस मूल्यांकन में वे पूरी तरह सही थे कि गोकुल ने धार्मिक, सामाजिक व नैतिक विषयों पर न सिर्फ स्वतंत्र विचार किया बल्कि निडर होकर उन विचारों का अनुपालन भी किया. वे जात-पांत, छूतछात, धर्म, सम्प्रदाय व स्त्री-पुरुष गैरबराबरी सभी को समाज के लिए घातक व उसकी स्वाभाविक प्रगति में बाधक समझते थे.

आजीवन बालविधुर

प्रसंगवश, गोकुल का जन्म 15 दिसंबर, 1865 को उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद के पास स्थित भदरी रियासत के लाल गोपालगंज गांव के एक धर्मभीरु परिवार में हुआ था. उनके पूर्वज तत्कालीन जयपुर राज्य के खेतड़ी से चलकर वहां आए थे. परिवार में चली आती परंपरा के अनुसार 13 वर्ष की उम्र में ही राधामोहन की शादी कर दी गई थी और इस बाल विवाह का कुफल उन्होंने इस रूप में भोगा कि 1883 में उनके 18 वर्ष के होते-होते उनकी पत्नी का निधन हो गया और उन्होंने नया विवाह रचाने के बजाय आजीवन विधुर रहने का संकल्प ले लिया.

1880 के आसपास बहुत छोटी उम्र में ही वे हिंदी ‘प्रदीप’ के संपादक बालकृष्ण भट्ट और भारतेंदु मंडल के दूसरे सदस्य प्रतापनारायण मिश्र के संपर्क में आ गए और जाति प्रथा व कूपमंडूकता पर चोट करने वाले लेखन में प्रवृत्त हो गए थे. औपनिवेशिक दासता के विरुद्ध तो उन्होंने जीवन भर संघर्ष किया. लेखन व पत्रकारिता इस संघर्ष में उनके दो बड़े हथियार बने. अलबत्ता, राजनीतिक सक्रियता का हथियार भी वे आजमाते ही रहते थे. उनका मानना था कि भारतवासियों की रूढ़ियों व अन्धविश्वासों में फसन्त, अज्ञान और मानसिक दासता सब अंग्रेजों की औपनिवेशिक गुलामी के चलते ही है.

उन्होंने अपने समय की प्रायः सभी पत्रिकाओं में भरपूर लेखन किया. सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ (जो उन्हें गुरुतुल्य मानते थे) के पत्र ‘मतवाला’ में उनके लेख ‘प्रत्यक्षवादी’ छद्मनाम से भी छपते थे. उन्होंने ‘ब्राह्मण’, ‘समाजसेवक’ और ‘प्रणवीर’ नामक ऐतिहासिक दायित्व निभाने वाली पत्रिकाओं का संपादन भी किया था.
रूढ़ियों के विरोध की अपनी यात्रा में उन्होंने आर्यसमाज में सक्रियता तक पहुंचकर भी दम नहीं लिया था. 1920 तक वे कट्टर निरीश्वरवादी, जुझारू भौतिकवादी और उत्कट जनवादी व्यक्तित्व के तौर पर सामने आ चुके थे. राजनीतिक सक्रियताओं के क्रम में कांग्रेसी राजनीति के सीमान्तों का अतिक्रमण करते हुए वे क्रांतिकारी बने और साम्यवाद के प्रचार व कम्युनिस्ट पार्टी के गठन में भी भूमिका निभाई.

समाजवाद के सारथी

सत्यभक्त (जिन्हें डाॅ. रामविलास शर्मा भारत में कम्युनिस्ट पार्टी का संस्थापक होने का श्रेय दे गए हैं) की ही तरह गोकुल की भी मान्यता थी कि भारत के समय व समाज को बदलने में सबसे कारगर साम्यवाद की राह ही है. इसलिए वे अपने विचारों, भावों व कार्यों से भारतीय परंपराओं की आधुनिक, प्रगतिशील व तार्किक व्याख्या, जड़ परंपराओं को तोड़कर नई परंपराओं के निर्माण व भारतीय परिवेश में साम्यवाद के अपेक्षित स्वरूप की तलाश के सत्यभक्त के प्रयत्नों में लगातार उनके साथ रहे. कहते हैं कि सत्यभक्त के चिंतन पर साप्ताहिक ‘सत्य सनातन धर्म’ में व्यक्त गोकुल के विचारों का गहरा असर था. गोकुल अरसे तक इस पत्र से जुड़े रहे थे.

उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे भारतीय चिंतन परंपरा की प्रतिगामी धारा को पूरी तरह खारिज करते हुए भी उसकी प्रगतिशील धारा की विरासत को आत्मसात करने में हिचकिचाते नहीं थे. उनका कहना था कि इस विरासत को पाश्चात्य चिंतन के क्रांतिकारी, जनवादी, वैज्ञानिक और प्रगतिशील मूल्यों से जोड़कर भारतवासी अपने भविष्य का रास्ता हमवार कर सकते हैं. अपने इन विचारों के लिए उन्होंने कई बार बड़ी-बड़ी कीमतें चुकाईं, जेल गए और नाना यंत्रणाएं व त्रासदियां भोगीं.

कई विद्वानों का मानना है कि उन्होंने नास्तिकता व तार्किकता की जिस अग्निधर्मी परंपरा का प्रवर्तन किया, उसे उनके बाद महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने आगे बढ़ाया.

इन विद्वानों के अनुसार गोकुल इस देश में समाजवाद के प्रचारकों की पहली पीढ़ी की रीढ़ थे, तो भगत सिंह व शिव वर्मा समेत हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन/ आर्मी से जुड़े कई क्रांतिकारियों को वैज्ञानिक समाजवाद के विचारों तक पहुंचाने में भी उनकी अहम भूमिका थी. रासबिहारी बोस, शचीन्द्रनाथ सान्याल, चन्द्रशेखर आजाद, श्यामसुन्दर दास, गणेश शंकर विद्यार्थी, महावीर प्रसाद सेठ, मुंशी नवजादिकलाल श्रीवास्तव, शिवपूजन सहाय, किशोरीदास बाजपेयी और निराला से उनका निकट संपर्क पूरे जीवन बना रहा, जबकि प्रेमचंद से उनकी गहरी आत्मीयता थी.

यहां यह भी उल्लेखनीय है कि विचारों के स्तर पर उन्हें इस संसार में प्रकृति ही सबसे श्रेष्ठ और सुपाठ्य लगती थी और उनका मानना था कि उसके विरुद्ध जितने भी नियम हैं, वे सब तिरस्कार के साथ ठुकरा देने योग्य हैं. वे कहते थे कि मनुष्य सोच-समझकर अपने समाज का संगठन करे तो ईश्वर, राजा और कानून के बिना भी आनन्द के साथ रह सकता है.

अंतिम सांस तक सक्रिय

1935 में बुंदेलखंड के उत्तर प्रदेश स्थित हमीरपुर जिले के सुदूर खोही गांव में अंतिम सांस लेने से पहले उन्होंने वहां अपने कई वर्ष क्रांतिकारी जनजागरण करते हुए गुजारे थे. वहां जिस विद्यालय से जुड़कर वे नवयुवकों, साथ ही मजदूरों को क्रांति कर्म की ओर प्रेरित करते और बम व अस्त्र-शस्त्र चलाने का प्रशिक्षण देते थे, हमीरपुर के तत्कालीन कलेक्टर ने उसको बंद तो करा ही दिया था, उनकी वृद्धावस्था के बावजूद उनको तलब कर धमकाया भी था. लेकिन वे न डरे थे, न ही रुके.

इस अदभुत स्कूल की स्थापना का सिलसिला कानपुर में 1930 में हुई उनकी गिरफ्तारी से जुड़ा हुआ है. कानपुर की जेल में दो साल की कैद की सजा काटते वक्त वे हमीरपुर जिले के स्वतंत्रता सेनानी स्वामी ब्रह्मानंद के संपर्क में आए तो स्वामी ने उनसे कहा कि वे अपने क्षेत्र में एक स्कूल खोलेंगे बशर्ते वे चलकर उसके छात्रों को अंग्रेजी पढ़ाएं. गोकुल मना नहीं कर पाए तो उनकी रिहाई के बाद स्वामी ने हमीरपुर के राठ क्षेत्र के इटौरा गांव में एक जमीनदार द्वारा दी गई जमीन पर स्कूल खुलवाया, जो बाद में खोही गांव में स्थानांतरित कर दिया गया. इस स्कूल की एक खास बात यह थी कि न इसमें किसी छात्र से कोई फीस ली जाती थी, न ही किसी शिक्षक को कोई वेतन मिलता था.

लेकिन कानपुर में गोकुल को मिली दो साल की सजा उन्हें मिली इकलौती सजा नहीं थी. उससे पहले 1914 में जर्मनी में हथियारों से भरे बक्से को लूटने में उनको राजद्रोह का मुकदमा चलाकर एक साल की कैद की सजा दी गई थी. 1923 में आगरा में मुकदमा चलाकर भी उन्हें सजा दी गई थी. ऐतिहासिक काकोरी ट्रेन ऐक्शन में 1927 में रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खां, रौशन सिंह व राजेंद्र लाहिड़ी की शहादतों के बाद क्रांतिकारी नवयुवकों को फिर से संगठित करने में भी गोकुल ने बड़ी भूमिका भूमिका निभाई थी.

इससे पहले उन्होंने अपने फतेह बहादुर नामक मित्र को डेढ़-डेढ़ सौ रुपये में राजस्थान से दो विदेशी पिस्तौलें खरिदवाई थीं. इनमें एक पिस्तौल, मणिनाथ बनर्जी ने इलाहाबाद में सीआईडी के एसपी पर गोली चलाने में इस्तेमाल की थी, जबकि दूसरी पिस्तौल भगत सिंह ने सांडर्स की हत्या के ऑपरेशन में इस्तेमाल की थी.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)