तुम सूई में से निकलती हो
मैं धागे में से मां
कभी सूई में से मैं
कभी धागे में से तुम
कौन सी बखिया, मां
हम सिले जा रही सदियों से
कौन सा यह टांका
पूरा होने में नहीं आता.
गगन गिल के पुरस्कृत संग्रह ‘मैं जब तक बाहर आई’ की इन पंक्तियों को पढ़ते हुए कंठ में कुछ फंसता सा लगता है. मन करता है, कुछ देर चुप रहें, आगे कुछ पढ़ने को न मिले. लेकिन कवयित्री यह छूट देने को तैयार नहीं. अगली ही कविता में वह पूछ रही है-
कुछ देर बुझ जाऊं, मां?
फिर साफ़ दिखें
रात और चांद
साफ़ दिखें
तारे आसमान में
आकाशगंगाएं जाती हुई मांएं
किसी ओट हो जाऊं
कुछ देर मां?
गगन गिल कई मायनों में हिंदी की विरल लेखिका हैं- एक बहुत कोमल और रहस्यमय उपस्थिति का नाम- बल्कि एक दमक रही अनुपस्थिति का. इस अनुपस्थिति को भी वे शब्द देती हैं- ‘धार की तरह है यह अनुपस्थिति / अदीख व छाया-रहित / जिस पर वह चलती है.
उनकी कविता कम से कम दिखने की, कम से कम बोलने की चाहत से बनी है-वह जहां हो, वहीं विलीन हो जाना चाहती हो, जैसे वह मौन से ही पूरी भाषा का काम ले लेना चाहती हो. अपने प्रश्नों की ओट में अपने दुख छुपा लेना चाहती हो. उनकी कविता चुप्पी और करुणा के पड़ोस में बसती है.
यह बसावट आज की नहीं बरसों पुरानी है. अस्सी के दशक के आख़िरी बरस उनका पहला कविता संग्रह आया था- ‘एक दिन लौटेगी लड़की’. तब से ही मौन का यह स्थापत्य दिखने लगा था. यह लड़की दरअसल मौजूद थी- उसे लौटना नहीं था, लेकिन वर्तमान को किसी भविष्य के लिए सुरक्षित रखकर, अनुपस्थिति की आभा में लीन होना था.
गगन गिल की कविताओं की संवेदना इतनी अंतर्मुखी है कि मितकथन में ही व्यक्त हो सकती है, इतनी तरल कि विस्मृति में ही सुरक्षित बस सकती है और इतनी सघन कि आत्मा को छूने की विकलता के बीच ही प्रेम कर सकती है और फिर भी विहंसते हुए कह सकती है कि ऐसे प्रेम से खुदा ही बचाए. एक अनवरत संवाद इन कविताओं में चलता रहता था जो आने वाले वर्षों में उनके दूसरे संग्रहों में भी दीखता रहा, लेकिन इतनी लघु-भाषा में, इतनी न्यूनतम शब्दावली में कि लगता है कि ज़ोर से बोलते ही शब्द चटख जाएंगे और अर्थ उनसे निकलकर किसी शून्य में खो जाएंगे.
कामना, प्रेम, दुख, मृत्यु, शोक- इन सबके बीच बहुत दबे पांव चलती, इन्हें बहुत मद्धिम आवाज़ में व्यक्त करती यह कविता अभिव्यक्ति के कई रेशे खोलती मिलती है.
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इस शोर भरे समय में गगन गिल की कविता चुप्पी का प्रतिरोध रचती है. वह आत्मनिर्वासन में अपने लिए शरण खोजती कविता है. वह एकांत को अपना साथी बनाती है. चाहें तो इस कविता की आलोचना कर लें कि ऐसा आत्मनिर्वासित एकांत किस काम का जिसमें समाज ध्वनित न होता हो, उसकी विकलताएं व्यक्त न होती हों. लेकिन इन कविताओं को पढ़ते-पढ़ते हम महसूस करते हैं कि जो चुप्पी वे रचती हैं उसमें भी बहुत गहरा संवाद है, जिस एकांत का वह संधान करती हैं उनमें बहुत सारे संबंध समाए हुए हैं और जिस मितकथन को साधते हुए कविता करती हैं, उसमें भी बहुत सारी गूंजें-अनुगूंजें हैं.
इन कविताओं में ईश्वर है, मां है, दोस्त है, प्रेम है, शोक है, पिता हैं, बुद्ध हैं, स्त्रियां हैं और इन सबको आपस में जोड़े रखने वाली एक मद्धिम लय है- असंदिग्ध रूप से यह मद्धिम लय ही गगन गिल की अपनी आवाज़ है और इसे उनके पहले संग्रह से आख़िरी संग्रह तक सुना जा सकता है. एक अलिखित करुणा इनमें लगातार व्यक्त होती है.
यह अनायास नहीं है कि हमारे समय में करुणा के सबसे बड़े प्रतीक बुद्ध को कवयित्री संबोधित करती हैं और अपने संग्रह का नाम ही रखती हैं- ‘अंधेरे में बुद्ध’. लेकिन यह कवयित्री के अपने बुद्ध हैं- जो अंधेरे में अपनी प्रतिमा से निकलते हैं, माया की मोक्ष की पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं और ‘अपनी जगह बदलते हैं / जैसे यह उनकी नहीं / दुख की जगह हो.’
लेकिन इस समूची चुप्पी के बावजूद एक निस्संग पुकार जैसे गगन गिल की कविता का स्वभाव है. यह कंठ से नहीं, हृदय से निकलने वाली पुकार है. वह मां को आवाज़ देती है, वनकन्या से संवाद करती है, ईश्वर से प्रश्न पूछती है और दोस्तों की तलाश करती है. ‘यह आकांक्षा समय नहीं’ में इस तलाश के कई रूप हैं. उन जैसी सजग कवयित्री ही लिख सकती है, ‘शहर में उसके दोस्त नहीं / उनके न होने का दुख बसता है…’
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गगन गिल का कवि व्यक्तित्व इतना प्रबल है कि यह भुला दिया जाता है कि उनके हिस्से गद्य की कुछ किताबें भी हैं. ‘दिल्ली में उनींदे’ को पढ़ने का अपना सुख है और अवाक का अपना जादू. कैलास-मानसरोवर यात्रा के अनुभव पर लिखी गई यह किताब उनकी कविता के विस्तार की तरह ही सामने आती है, दार्शनिक-आध्यात्मिक प्रत्ययों से बनी हुई. यह एक बहुत निजी दुख की उंगली पकड़कर की गई यात्रा है- निर्मल वर्मा की स्मृति से लिपटी यात्रा.
उन्हें निर्मल का पहना हुआ अंतिम वस्त्र कैलास पर्वत को सौंप कर आना है. लेकिन यह यात्रा एक सामाजिक-राजनीतिक अनुभव की यात्रा भी बन जाती है. यह धार्मिकता के छोर छूती हुई भी- कहीं-कहीं अधार्मिक पाठकों को कुछ असमंजस में डालती हुई भी- ऐसी संयत यात्रा है जिसमें कवयित्री अकेले नहीं चल रही है.
वे लिखती हैं- अक्का महादेवी के वचन मेरे साथ लगभग पूरी यात्रा करते रहे, महाभारत की उक्तियां भी, बादलेयर और ओडेन की कविताएं भी. जो मन यात्रा करने गया था, वह सभ्यता, शिक्षा-दीक्षा, पूर्वजों के लेखन-कथन से सींचा मन था. उसमें उतनी तरह की खाद-मिट्टी न होती न तो ‘अवाक्’ भी न होती.
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गगन गिल का एक आभामंडल है जिसकी द्युति में निर्मल वर्मा के साहचर्य का कुछ प्रकाश भी शामिल है. मगर गगन गिल के कृतित्व और व्यक्तित्व की अपनी बहुत अलग-सी कांति भी है, जो उनके शब्दों को निरंतर आलोकित करती चलती है.
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क्या गगन गिल को सामाजिक-राजनीतिक दुख भी व्यापते हैं? या वे उनसे पूरी तरह मुंह मोड़ कर खड़ी हैं? जब किसान आंदोलन चल रह था तो 30 जनवरी, 2021 को उनका बेचैनी से भरा एक संदेश आता है. उनका आग्रह है कि किसानों के पक्ष में लेखकों का एक साझा बयान जारी किया जाए. यह 26 जनवरी, 2021 के बाद के दिन थे जब लाल किले पर अलग झंडा फहराने के मामले में किसानों को बिल्कुल खलनायक की तरह प्रस्तुत किया जा रहा था. कुछ दिन बाद यह बयान जारी होता है.
फिर अगस्त 2022 में जब बिलकीस बानो के गुनहगार रिहा कर दिए जाते हैं तो फिर एक के बाद एक उनके संदेश आते हैं- इस आग्रह के साथ कि इस फैसले के ख़िलाफ़ लड़ना चाहिए. लड़ाई का वे एक अलग सा मानवीय तरीक़ा भी सुझाती हैं- इन लोगों की पत्नियों से बात करनी चाहिए. मैं समझाने की कोशिश करता हूं कि उनकी पत्नियों से उम्मीद करना बेमानी है, लेकिन वे चाहती हैं कि कुछ हो- कोई न कोई करे.
इन प्रसंगों का उल्लेख यह साबित करने की कोशिश नहीं है कि गगन गिल सामाजिक-राजनीतिक मोर्चों पर सक्रिय लेखक हैं- ऐसा कुछ साबित किए जाने की कामना उनको या उनके शुभचिंतकों को नहीं होगी, लेकिन इस घनघोर सांप्रदायिक समय में जब लेखक और विचारक या तो निष्ठाएं बदल रहे हैं या चुप हैं, गगन गिल किनारे रहते हुए भी अपने पक्ष को लेकर सचेत हैं, संवेदनशील हैं.
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बीते कुछ वर्षों में साहित्य अकादेमी ने अपनी स्वायत्तता को तिलांजलि देते हुए जिस तरह एक अधिनायकवादी प्रवृत्ति की सरकार की आकांक्षाओं और प्राथमिकताओं के आगे आत्मसमर्पण किया है, वह इस कदर निराश करने वाला है कि उसकी हर गतिविधि को संदेह से देखने की इच्छा होती है.
अकादेमी की इस प्रवृत्ति के विरुद्ध लेखकों के पुरस्कार वापसी अभियान को अब लगभग एक दशक होने जा रहा है. लेखकों के इस प्रतिरोध से खीझी और नाराज़ सरकार और उसके नुमाइंदे पुरस्कार वापस करने लेखकों को ‘गैंग’ की संज्ञा देकर अपनी मानसिकता का प्रदर्शन करते रहे हैं. इसके बावजूद साहित्य अकादेमी की अपनी पारंपरिक प्रतिष्ठा का बल इतना इतना बड़ा है कि हर वर्ष उसके पुरस्कारों पर नज़र रहती है. अंततः मामला लेखकों का है और उन्हीं के बीच है, इसलिए सारी निराशा और शिकायत के बावजूद लोग इन पुरस्कारों को महत्व देते हैं.
कई बार ये पुरस्कार उन लेखकों को मिल जाते हैं जिनका सम्मान हिंदी का व्यापक वर्ग करता है. इत्तिफ़ाक़ से बीते तीन साल से अकादेमी की चयन समितियों ने ऐसे ही निर्णय किए हैं. प्रख्यात कथाकार संजीव और आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल के बाद इस साल यह सम्मान गगन गिल के नाम गया है. इस बार का निर्णय मृदुला गर्ग, प्रोफेसर रामवचन राय और डॉ. कृपा शंकर उपाध्याय की समिति ने किया है. यह हिंदी के लिए सुख का विषय है.
(प्रियदर्शन वरिष्ठ पत्रकार हैं.)