हमारे समय में ऐसा बहुत कम हुआ है कि किसी शास्त्रीय संगीतकार ने श्रेष्ठता और लोकप्रियता समान रूप से अर्जित की हो जैसी तबला-वादक ज़ाकिर हुसैन ने की. वे एक बेहद हंसमुख, विनयशील और गरमाहट भरे कलाकार थे. पिछले लगभग पचास वर्षों में शास्त्रीय संगीत और कथक नृत्य के किसी ऐसे मूर्धन्य का नाम नहीं है जिसके साथ ज़किर ने बेहद समरस संगत न की हो. उनकी संगत समझदार, सतर्क और सावधान, कल्पनाशील और मूल प्रस्तुति को सुंदर-सरस बनाती थी. स्वयं तबले को, जो ज़्यादातर संगत का वाद्य ही माना जाता रहा है, स्वतंत्र वाद्य के रूप में प्रतिष्ठित करने, लोकप्रिय और लोकग्राह्य बनाने में भी ज़ाकिर का बड़ा योगदान रहा है.
मुझे याद है एक बार भारत भवन में उनका एकल वादन था तो वहां का अंतरंग सभागार ठसाठस भर गया था और एकाध बड़े राजनेता को बैठने की जगह नहीं मिली थी. श्रोताओं में बड़ी संख्या में युवा लोग थे. ज़ाकिर के वादन ने युवाओं के बीच जो लोकप्रियता हासिल की वह भी शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में दुर्लभ उपलब्धि है.
एक और पक्ष है जिसे याद करना चाहिए. पंडित रविशंकर और उस्ताद अली अकबर ख़ां के साथ ज़ाकिर हुसैन ने पश्चिमी संगीत जगत में जगह बनाई. उनकी अथक प्रयोगशीलता और कल्पना-शक्ति, संगीत-लय-ताल की उनकी गहरी समझ ने उन्हें विश्वसंगीत और भारतीय संगीत के बीच संवाद और सहकार का एक स्थपति बनाया. उन्होंने अपने पिता-गुरु उस्ताद अल्ला रक्खा ख़ां से जो विरासत में पाया था उसे बखूबी सहेजा, सजीव और सक्रिय किया और उसमें सर्जनात्मक इज़ाफ़ा और विस्तार भी किया.
इसे परंपरा को आधुनिक और पुनर्नवा बनाने के जतन के रूप में देखा जा सकता है. ज़ाकिर जैसे संगीतकार ने हमें बताया कि शास्त्रीय परंपरा विजड़ित या रूढ़ नहीं है: वह जीवित है और नए प्रयोगों और विस्तार प्रति सहज उन्मुख है. आधुनिकता ज़ाकिर के यहां हस्तक्षेप नहीं है, वह निरंतरता का कल्पनाशील विस्तार है- सहज और अनिवार्य. यह इस बात से भी ज़ाहिर है कि दश्कों से विदेश में रहने के बावजूद उन्होंने अपनी शास्त्रीयता को शिथिल या मंद नहीं होने दिया. वे उस पर जमे रहे और उसका पश्चिमी शास्त्रीयता से संवाद और सहकार कराने में अग्रणी रहे.
ज़ाकिर का जाना इसलिए और दुखदायी है कि शास्त्रीय संगीत में मूर्धन्यता लगातार उतार पर है और उनका देहावसान शास्त्रीयता और मूर्धन्यता दोनों की समान क्षति है.
फिर कबीर
अभी हाल में बनारस में कबीर पर एकाग्र कोई समारोह संपन्न हुआ. कुछ महीने पहले दिल्ली सेंटर ऑफ स्टडी ऑफ डेवेलपिंग सोसाइटीज़ में कबीर का गहन पाठ किया गया जिसमें कबीर की अमेरिकी विशेषज्ञ लिंडा हैस भी आईं. लगभग दस दिन पहले कबीर पर दो नई पुस्तकें आईं: ‘कबीर के सौ पद: रवीन्द्रनाथ ठाकुर’ रणजीत साहा द्वारा अनूदित और संपादित (राधाकृष्ण प्रकाशन) और ‘द नोटबुक ऑफ कबीर’ आनंद लिखित (पेंगुइन वाइकिंग) लगता है कि कबीर हमारे यहां एक अविरल प्रवाह है जो देश-काल के पार बह रहा है और हम बार-बार अपने को उसके किनारे पाते हैं.
संयोग से अपने क्रूर-अत्याचारी-हिंसक समय ओर राजनीति में हमें बार-बार गांधी भी याद आते रहते हैं. लगता यह है कि कबीर और गांधी हमें विकल्प, राहत और शरण्य की तरह दिखायी देते हैं.
रवीन्द्रनाथ द्वारा अंग्रेज़ी में अनूदित कबीर के सौ पद पुस्तककार 1914 में प्रकाशित हुए थे. एक तरह से यह कबीर के विश्व-प्रवेश का पहला मुक़ाम है- इससे पहले व्यापक पश्चिमी जगत कबीर से अनजान था और इस पुस्तक के प्रकाशन के बाद कबीर के कई पदों का अनुवाद यूरोप की कई भाषाओं में होना शुरू हुआ. इसमें संकलित पहले ही पद की पहली दो पंक्तियां हैं:
‘मोको कहां ढूंढ़ो बन्दे, मैं तो तेरे पास में/ना मैं देवल ना मैं मसजिद, ना काबे कैलास में.’
और सौवें यानी संकलित अंतिम पद की पहली पंक्तियां हैं: ‘कोई प्रेम की पेंग झुलाओ रे.. भुज के खम्भ और प्रेम के रस से/तन मन आज भुलाओ रे..’
रणजीत साहा ने रवीन्द्रनाथ के अंग्रेज़ी अनुवाद का हिंदी अनुवाद दिया है और मूल पद भी सधुक्कड़ी में दिया है जिसे हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर की भाषा कहा था.
इस चयन में रवीन्द्रनाथ ने प्रायः वे सभी पद शामिल किए हैं जिनसे कबीर तुरत पहचाने जाते रहे हैं जैसे ‘संतन जात न पूछो निरगुनियां, ‘इस घट अन्दर बाग बगीचे’, ‘हंसा करो पुरातन बात’, ‘मन तू पार उतर कहं जैहो’, ‘मन मस्त हुआ तब क्यों बोले’, ‘साधो यह तन ठाठ तम्बूरे का’, ‘जाग पियारी अब का सोवै’, ‘पानी बिच मीन पियासी’, ‘सुनता नहीं धुन की ख़बर अनहद का बाजा बाजता’, ‘मन न रंगाये रंगाये जोगी कपड़ा’, ‘नैहर से जियरा फाट रे’, ‘गगन घटा घहरानी साधो’, ‘अवधू बेगम देस हमारा’, ‘साहब हममें, साहब तुम में’ आदि. मेरी बेहद प्रिय कबीर- पंक्ति’ ताते अनचिन्हार मैं चीन्हा’ वाला पद भी शामिल किया गया है.
यह रोमांचक है कि एक बड़े कवि का यह संचयन एक दूसरे बड़े कवि ने किया और ऐसे किया कि कबीर-संपदा का श्रेष्ठ उसमें शामिल है. उतना ही आश्वस्तिकर यह भी है कि कबीर आज के ज़हरीले माहौल में हमें एक निडर बेबाक साहसी आवाज़ की तरह सुनाई देते हैं. यह आवाज़ सिर्फ़ गगन-मंडल में नहीं गूंज रही है, यह आज सच्चे लोकतांत्रिक भारतीय के मन में अंतःकरण की तरह गूंज रही है.
कुमार गंधर्व की गाई एक कबीर-पंक्ति है: ‘वा घर सबसे न्यारा’. आनंद की पुस्तक कई अर्थों में न्यारी है. आनंद कबीर को सिर्फ़ पोथियों में नहीं पढ़ते, वे उन्हें लोकगायन, अनेक मिथकों और किंवदंतियों, भारत के आधुनिक चित्त में, इस समय देश में जो हिंसा-घृणा-झूठ-भेदभाव-अन्याय हो रहे हैं उनके पड़ोस में, दलित-विमर्श के अंतर्गत, बुद्ध और आंबेडकर की विरासत के सिलसिले में पढ़ते-पाते-सुनते-समझते-गुनते-गाते हैं.
उन्होंने जो लिखा है वह एक तरह का नया गद्य है जो समझ और संवेदना, स्मृति और व्याख्या से जितना संपन्न है उतना ही विचलन, बहकने-भटकने, रास्ता भूलने, पारंपरिक अर्थों से अलग नई प्रासंगिकता खोजने, पाने-न-पाने के जोखिम से भी भरा है.
मुक्ति और बंधन, प्रार्थना और मनन, प्रश्नांकन और उत्सव, रोज़मर्रा की ज़िंदगी और ठहराव, साधारणता और दिव्यता, अध्यात्म और राजनीति, धर्म और विधर्म, रूप और विद्रूप आदि अनेक युग्म इस गद्य में उभरते और विलीन हो जाते हैं. जो कबीर उभरते हैं वे थोड़े जाने-माने हैं पर ज़्यादातर अनजाने-ऐसे कबीर जो अप्रत्याशित हैं, अजनबी हैं, अपने से दूर हैं पर इतने अपने लगते हैं. ऐसे कबीर जो देश और काल से मुक्त हैं और जो आज और अभी के लगते हैं, जिन पर न प्राचीनता का बोझ है, न आधुनिकता का.
आनंद ने पचास कबीर पदों पर पचास अध्याय लिखे हैं: हर पद मूल में, अंग्रेज़ी अनुवाद में दिया गया है और हरेक पर आनंद की व्याख्या, प्रतिक्रिया आदि हैं. ये सभी पद गायन-परंपरा से उठाए गए हैं और इनके गायकों में प्रहलाद टिपनियां, फ़रीदुद्दीन अयाज़, कुमार गंधर्व, कालूराम बामनिया, महेश राम आदि हैं. पहला अध्याय है ‘कुएं रे किनारे अवधू’ जिसमें दिए गए पद की आरम्भिक पंक्तियां हैं:
कुएं रे किनारे अवधू इमली सी बोई रे
जारो पेड़ मछलियां छायो है लो
रमते जोगी ने आदेस केवणा रे
कुएं रे किनारे अवधू हिरणी सी ब्याही रे
हो जी पांच मिरगला लाई है लो…
आनंद ने मुझे इस पुस्तक की एक प्रति भेजते हुए लिखा है:
कहत कबीरा पढ़ो भाई नोटबुक
आओ मनाओ दुख कि सुख
कबीर को नए-ताज़े और प्रासंगिक ढंग से फिर हमारे बीच लाने के लिए हमें आनंद का आभार माना चाहिए. इस पुस्तक को जल्दी ही हिंदी अनुवाद में भी प्रकाशित होना चाहिए. अंतिम अध्याय में कुछ पंक्तियां हैं:
कहे आनंद कबीर जी सुनिए
सबद ये हमारे आप भी रटिए
देखो अपने लाश फ़कीरा
अब कौन है पूरा कौन अधौरा
देख शेरनी चरवे घास.
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)