हिंदी साहित्य के गणतंत्र में पुरस्कारों का मौसम बहुत ही क्रूर और सामाजिक अन्याय पर टिका हुआ है. पुरस्कारों की घोषणाएं आजकल के चुनाव परिणामों जैसी ही हैरान करने वाली होती हैं. साहित्य के पुरस्कार काला जादू जैसी ऐंद्रजालिक विशेषताएं लिए रहते हैं. लेकिन आज तक किसी ने भी हिंदी साहित्य के पुरस्कार तय करने वालों के चयन व्यवहार का अध्ययन नहीं किया है.
इस बार यह पुरस्कार सघन संवेदनाओं के आबशार के साथ हिंदी में उतरी कवयित्री गगन गिल को उनके कविता संग्रह ‘मैं जब तक आई बाहर’ के लिए दिया गया है. यह संग्रह 2018 से हिंदी आकाश में आकर्षण का विषय बिना हुआ था. आख़िर इसे छह साल प्रतीक्षा क्यों करनी पड़ी?
हिंदी साहित्य के पुरस्कारों का चयन करने वाले लोगों की वह प्रजाति आख़िर साहित्य और कविता की परख के वे मानदंड कहां से लेकर आती है, जहां 70 साल में सिर्फ़ दो महिलाएं कवि के तौर पर पुरस्कृत हो पाती हैं?
गगन की शुरुआती कविताओं से लेकर अब तक रची गई कविताओं को बहुत बारीकी से देखने पर साफ़ हो जाता है कि वे अपने रचनाकर्म से शुरू से चौंकाती रही हैं. उनकी कविता मानो पंजाबी लोकसाहित्य से अक्षुण्ण रूप से हिंदी में चली आई है और उसे समृद्ध कर रही है. भाव, भाषा, छंद, बंद, लय, ताल, रूपक, स्वरों की कोमला से लेकर उसके भीतर की पीड़ाएं, वेदनाएं, संताप, तड़प और विकलताएं साफ़ बताती हैं कि कैसे एक भाषा से विदा होकर एक बेटी दूसरी भाषा के अपने घर में पहुंच गई है.
पंजाबी के पुराने सूफ़ी कवियों बाबा फ़रीद, बुल्लेशाह, वारिस शाह, शाह हुसैन, सुलतान बाहू, हाशिम शाह आदि के लफ़्ज़ों की प्रतिध्वनियां गगन के काव्य आकाश में पग-पग पर अपनी अलग ख़ूबियों के साथ टिमटिमाती हैं.
आज से छत्तीस साल पहले उन्होंने प्रसिद्ध पंजाबी कवि हरिभजनसिंह के काव्यसंग्रह ‘जंगल में झील जागती’ का भावानुवाद किया था. अगर उस कविता संग्रह की ज़मीन से झांककर देखें तो कविता का पढ़ना किसी की दैहिक नग्नता में झांकना है. लेकिन अगर गगन की कविता की ख़ामोश कराहों को सुनें तो दृष्टिगोचर होता है कि उनकी कविताओं को पढ़ना उनकी आत्मा के रुपहले पर्दों को हटाकर उसके भीतर जाना है.
गगन गिल समकालीन भारतीय कविता की एक उज्ज्वल और नफ़ासत से आमेज़ आवाज़ हैं. उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिलना ‘आत्मिक यात्रा की पगध्वनियों का काव्योत्सव’ है.
आत्मनिरीक्षणात्मक शैली और भावनात्मक गहराई गगन गिल की ख़ास पहचान हैं. उनकी कविताओं के भीतर का उत्कट उद्वेलन मानवीय भावनाओं को एक ख़ास आकार देता है और प्रेम, वासना, सुख-दुख और विरह से उपजते ताप को हृदय के भीतर गहरे तक पिघला-पिघलाकर बहाता है. उनकी कविता का यह अंदाज़ हिंदी साहित्य के उन लोगों को महादेवी वर्मा की याद दिला सकता है; जिन्हें पंजाबियत के लोकजीवन में एक स्त्री के हृदय में उमड़ते तूफ़ानों, उदासियों और आत्मसंत्रासों की जानकारी नहीं है.
विश्व की शायद ही किसी भाषा में महिलाओं की इतनी सघन और भीतर तक हिला देने वाली हूक फूटती हो, जैसी पंजाबी लोकगीतों में ध्वनित होती है. गगन ने इस हूक को उस हेक में बदलने का क़माल किया है, जो हिंदी में अब तक दुर्लभ था. उन्होंने सदियों से पंजनद की धरती पर गूंजती स्त्री की सिसकियों को हिंदी की परंपरागत और आधुनिकता वाली शैली से बिलकुल अलग साना, गूंथा, बेला, सेका और परोसा है. पंजाबी कविता जिस पर शुद्ध दरवेशों की विरासत है, उसी तरह गगन की कविताएं अपनी शिल्पकार के भीतर एक स्त्री दरवेश से रूबरू करवाती हैं. गगन की कविता मानो किसी स्त्री के भीतर के सघन बीहड़ से आती हुई एक सुरीली हेक है, जो सुनने वाले को भीतर तक बेचैन कर देती है.
उनका नैरेटिव स्टाइल हिंदी की पहले से बनी हुई सरहदों को लांघता हुआ हिंदी में एक अनूठी आवाज़ का रूप लेता है. गगन गिल की काव्य यात्रा एक स्त्री हृदय की मानवीय स्थितियों को गहरी ईमानदारी और आंसुओं से तरबतर संवेदनशीलता के साथ खोजती हैं.
समकालीन कवियों और कवयित्रियों से अलग गगन आंतरिक संघर्ष, आध्यात्मिक पिपासा और अस्तित्व संबंधी प्रश्नों जैसे विषयों को खोजती हैं. वे आत्मिक द्वंद्वों को जिस मेधावी तरीक़े से बुनती हैं, वह उन्हें एक अलग जे़हनी क्षितिज पर ले जाता है. रूमानियत और रूहानियत का ऐसा मेल भी अन्य जगह दुर्लभ है.
उनकी प्रसिद्ध काव्य कृतियों, मसलन एक दिन लौटेगी लड़की, अंधेरे में बुद्ध, यह आकांक्षा समय नहीं, थपक थपक दिल थपक-थपक और मैं जब तक आई बाहर से लेकर दिल्ली में उनींदे, अवाक्, देह की मुंडेर पर जैसी गद्य कृतियों की उनकी रचना यात्रा बहुत लंबी है. उन्होंने अक्का महादेवी के वचनों के संग्रह ‘तेजस्विनी’ का अद्भुत भावरूपांतरण किया है.
गगन की कविता की कुछ और भी ख़ास ख़ूबियां हैं. उनमें आत्मनिरीक्षण गहराई बहुत है. गिल की कविताएं अक्सर आत्मा के साथ एक अंतरंग संवाद के रूप में उभरती हैं. उनकी आत्मा के घाट में एक घट के उतरने जैसी लयात्मक गहराई उनकी कविताओं को मांस-स्वाद-लोलुप आत्माओं को प्रफुल्लित नहीं करती; क्योंकि इस गहराई का चेहरा बहुत उदासियां लिए हुए है. वे अस्तित्व संबंधी विषयों को भी छूती हैं. उनका काम अक्सर अस्तित्व संबंधी सवालों को छूता है. भले उनकी कविता आधुनिकतावाद के प्रगतिशीलतावादी मानदंडों से बहुत दूर हो; लेकिन नारीवादी संवेदनशीलता के हिसाब से देखें तो उनकी कविताओं में एक मजबूत नारीवादी स्वर है.
उनकी कविता जहां परंपरा और आधुनिकता का मेल है, वहीं उनकी लेखनी हिंदी कविता की समृद्ध परंपरा में निहित है और वह उसे एक और संवेदन से समृद्ध करती है. उनका प्रतीकात्मकता का उपयोग बेहद प्रभावी है. इमेजरी और सिंबोलिज़्म के मामले में वे एक अनूठा आश्चर्यलोक रचती हैं, जहां अतृप्त कामनाएं अंत:करण में घुलकर सम्मोहन बिखराती हैं.
कोई भी देश, समाज और इहलोक संत्रस्त हो तो वह अपनी पीड़ाएं प्रतीकों में अभिव्यक्त करता है. उनके दर्द कुछ अलग तरह की गीतात्मक सुंदरता लिए होते हैं. पीड़ाओं का अपना स्वाद और आह्लाद होता है. इसी तरह गगन की कविताएं एक संगीतात्मक लय के साथ प्रवाहित होती हैं. उनकी कविताओं में पंजाबी लोकगीतों जैसा ही लिरिकल ऐलिगेंस है. ठीक वैसी ही भावनात्मक प्रतिध्वनियां. उनकी हर कविता में एक अनूठी भावनात्मक प्रतिध्वनि है, जो अंत:करण में एक कलरव पैदा करती है. हृदय के अंतराल में डूबते उनके आत्मनिवेदन और उनकी ध्यानात्मक स्वरावली एक ख़ास टोन को पैदा करती है और इस तरह उनका काव्य उस सार्वभौमिक पुकार को रचता है, जो भारतीय लोक काव्य का ख़ास पहचान रही है.
साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त करना गगन गिल के शानदार करिअर में एक मील का पत्थर है. उनका काम युवा कवियों को अपनी भावनाओं की गहराई में जाने और अभिव्यक्त करने के लिए प्रेरित करता है. जैसे-जैसे साहित्यिक दुनिया इस सम्मान का जश्न मना रही है, पाठकों और आलोचकों को कविता की परिवर्तनकारी शक्ति और समाज की सांस्कृतिक और भावनात्मक बनावट को आकार देने में कवियों की भूमिका की याद दिलाई जाती है.
गगन गिल का यह सम्मान हिंदी साहित्य के लिए गर्व का क्षण है. उनकी कविता केवल छंदों का संग्रह नहीं है, बल्कि रूह की भूलभुलैयाओं की यात्रा है. मनुष्य जब किसी सुंदर देह को देखता है तो वह उस सौंदर्य की ऊष्मा का ताप सहन नहीं कर पाता. मनुष्य में एक हिंसा जागती है. गगन के काव्य जीवन की यात्रा के प्रारंभिक दिनों में हिंदी साहित्य के पौरुषपूर्ण समाज की प्रतिक्रिया हिंसक न हो तो भी वह लिजलिजी अवश्य थी. अब उस दैहिक सौंदर्य की श्वेत कपास आत्मसंघर्ष और आत्मचैतन्य के तकले से उतरकर एक नए सौंदर्यशास्त्र के काव्य की डोर बन गई है, जिससे समय के चरखे पर नए राग मंढ़ गए हैं और पौरुषपूर्ण समय की सिहरती चांदनी ने साहित्य के सुरीलेपन के लिए द्वार खोल दिए हैं, जो जाने कब से उसे रोके हुए था.
गगन को मिला यह पुरस्कार हिंदी साहित्य के नेपथ्य में डमाडम बजते उस पुरुष वर्चस्ववाद को भी एक चेतावनी है, जो आज तक न ब्राह्मणवाद से आगे निकल पाया है और न ही मनुवाद से. सोशल मीडिया में झांकें तो आज भी बहुत से प्रगतिशील आलोचकों को गगन को यह पुरस्कार मिलना अच्छा नहीं लगा है. आज राजनीति में तो स्त्री अधिकारों का प्रश्न बहुत सशक्त ढंग से उठ रहा है, लेकिन साहित्य का संसार इससे अछूता है.
गगन कहती हैं कि उनकी कविताएं उनके भीतर की अनुगूंज से बुनी हुई हैं. इन्हें लिखते समय मैंने हेक और हूक का अनुभव किया है. हेक, जो बाहर से रेगिस्तान में पुकारती है और हूक, जो भीतर के बियाबान को चीरती हुई ऊपर आती है. हेक और हूक से भरी इन कविताओं के भीतर एक स्त्री का जो हाहाकार है, उसकी अनुगूंजें हिंदी साहित्य के भीतर भी हैं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)