ईश्वर अल्ला तेरे जहां में, नफ़रत क्यों है जंग है क्यों?/तेरा दिल तो इतना बड़ा है, इंसां का दिल तंग है क्यों?/कदम कदम पर सरहद है क्यों, सारी जमीं तो तेरी है/ सूरज के फेरे करती है, फिर भी कितनी अंधेरी है!/ इस दुनिया के दामन पर, इंसां के लहू का रंग है क्यों?
अयोध्या (फ़ैज़ाबाद): नर्मदा बचाओ आंदोलन की संस्थापक और प्रख्यात गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर ने अयोध्या स्थित फैजाबाद प्रेस क्लब में सैकड़ों साहित्य व संस्कृति कर्मियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और गणमान्य नागरिकों की सभा में यह गीत सुनाया तो उसमें कुछ देर को सन्नाटा छा गया. लगा कि जैसे उपस्थित लोग चुप रहकर उनके सुनाए इस गीत के सवालों के गूढ़ार्थ समझने की कोशिश कर रहे हों.
पाटकर स्वतंत्रता संग्राम के दौरान सौ साल पहले क्रांतिकारियों द्वारा लखनऊ में काकोरी के पास अंजाम दिए गए ऐतिहासिक ट्रेन एक्शन के शहीदों रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्लाह खां और रोशन सिंह के शहादत दिवस (19 दिसंबर) पर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने के बाद बोल रही थीं.
इस अवसर पर उन्होंने अशफाकउल्लाह खां मेमोरियल शहीद शोध संस्थान द्वारा पिछले कई दशकों से हर साल तीन शख्सियतों को दिए जाने वाले ‘माटी रतन’ सम्मान भी वितरित किए.
उन्होंने अपने संबोधन में देश व समाज से जुड़े कई और गंभीर प्रश्न उठाए और कई चिंताएं साझा कीं. लेकिन खुद को मुख्य धारा कहने वाले मीडिया ने (जिसकी सच्चे सवालों से कतराकर निकल जाने की आदत अब न सिर्फ पुरानी बल्कि आम भी हो गई है) उनकी पूरी तरह अनसुनी कर दी.
आज अशफाक होते तो…
पाटकर ने कहा, ‘मैं अयोध्या फैजाबाद आई, तो जेल में जहां 1927 में काकोरी ट्रेन एक्शन में अशफाकउल्लाह खां को फांसी दी गई थी, वहां गई. अपने अनुभव से मुझे अंदेशा था कि शायद मुझे वहां जाने से रोका जाएगा. इसलिए कि हम सबको किसी न किसी दिन जेल में डालने के लिए कतार में खड़ा ही कर दिया गया है. रोका तो फिलहाल नहीं गया मुझे, लेकिन मुझे लगा कि आज जो हालात हो गए हैं, अशफाक होते तो उन्हें देखकर फिर से शहीद हो जाते.’
उन्होंने आगे कहा, ‘मैं समझती हूं कि अयोध्या में विकास, सुंदरीकरण और सड़कें चौड़ी करने के नाम पर पिछले दिनों जिन अनेक लोगों को विस्थापित किया गया है, एक फैक्ट फाइंडिंग टीम बननी चाहिए और उसके द्वारा उनका सर्वेक्षण किया जाना चाहिए. इस विस्थापन के खिलाफ आवाज जरूर उठाई जानी चाहिए. ऐसी आवाज उठाना हर नागरिक का अधिकार है और कर्तव्य भी.’
‘विडंबना यह कि दूसरे राज्यों के धनाढ्य लोग अपने धनबल से अयोध्या में जमीनें खरीद कर कब्जा कर ले रहे हैं, लेकिन जिन स्थानीय लोगों के घर व दुकानें वगैरह तोड़ दी गई हैं, उनकी कोई सुनने वाला नहीं है, जबकि उन्हें समुचित मुआवजा देकर उनका पुनर्वास किया जाना चाहिए था. लेकिन यहां तो विस्थापित दुकानदारों को देने के लिए बनी गिनती की दुकानें भी एक तो उनके व्यवसाय के लिए उपयुक्त स्थल पर नहीं हैं, दूसरे उनकी क्रयशक्ति से भी बाहर हैं.’
नफ़रत को हिम्मत से नकारना होगा
उन्होंने यह भी कहा, ‘अरसा पहले मैंने ‘देश बचाओ, देश बनाओ’ यात्रा निकाली, तो वह साठ दिनों में साठ जगह गई थी. अयोध्या भी आई थी. तब मुझे पता चला था कि यहां मुस्लिम भी अपने घरों में राम व केवट के चित्र रखते हैं तो एकबारगी मुझे विश्वास नहीं हुआ था. तब मैंने खुद कई मुस्लिम घरों में जाकर अपनी आंखों से ऐसा देखा और सुखद आश्चर्य से भर गई थी.’
‘मैंने यह भी जाना था कि अयोध्या में हिंदू-मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन और बौद्ध सारे धर्मों के लोग मेलजोल से सौमनस्यपूर्वक रहते आए हैं. यहां मुस्लिम बुनकर राम नामी गमछे बुनते व छापते और मुस्लिम माली मन्दिरों में भगवानों व देवी देवताओं को चढ़ाए जाने वाले फूल उगाते हैं. अयोध्या के इस सौमनस्य को नष्ट करने के लिए 1950 (जब बाबरी मस्जिद में मूर्ति रखी गई) से अब तक जो कुछ किया गया, उसकी क्रोनोलाजी पढ़कर दिल भर आता है. इस दिल दहला देने वाली हकीकत को हमें हमेशा याद रखना होगा.’
उन्होंने जोड़ा, ‘जिलों, शहरों व रेलवे स्टेशनों के नाम बदले जा सकते हैं. बदले जा रहे हैं. ऐसा करके इतिहास बदलने का भ्रम भी पाला जा सकता है, लेकिन उस इतिहास को बदलना किसी के वश की बात नहीं, जिसमें अयोध्या का अर्थ होता है जहां युद्ध न होता हो और अवध का अर्थ जहां किसी का वध न किया जाता हो. आज की तारीख में नफ़रत को हिम्मत से नकारना हमारा प्राथमिक कर्तव्य है. इसके लिए प्रतीकात्मक आंदोलनों से काम नहीं चलेगा. आजादी की लड़ाई के दौरान हमारे नौजवानों ने जिस जिद से शहादत दी, उसके पीछे की प्रेरणा और समर्पण को याद रखकर काम करना होगा.’
जान नहीं तो जीवनदान
उनका आगे कहना था, ‘आज देश की मांग है कि उससे प्रेम करने वाले लोग उसके भविष्य निर्माण के लिए शहादत नहीं तो अपना योगदान दें. जान नहीं तो जीवन जरूर दें. जहां भी अन्याय, अत्याचार व हिंसा होती हो, उसके विरुद्ध प्राण-प्रण से आवाज उठाएं. वॉट्सऐप यूनिवर्सिटी और विभिन्न सोशल मीडिया मंचों से हमें असामाजिक बनाने की जो कवायदें की जा रही हैं, उनके खिलाफ भी.’
उन्होंने कहा, ‘मैं मध्य प्रदेश से आई हूं. वहां देखा है मैंने कि रघुवंशी समाज के लोग तो अपनी रामनवमी की यात्राएं चुपचाप मंदिरों तक ले जाते हैं, लेकिन एक पार्टी के नुमाइंदे इस अवसर पर दूसरी यात्रा ले जाते हैं जो अंधेरा होते-होते शुरू होती है. उसमें ऊपर चढ़कर हरा झंडा नीचे गिराने जैसी वारदातें होती हैं, तो खून खराबा होता है. कभी कोई फिल्म आती है कश्मीर फाइल्स. गुजरात फाइल्स तो बनती ही नहीं. जाने-माने इतिहासकार और विशेषज्ञ कश्मीर फाइल्स की पोल खोल देते हैं तो भी रामनवमी से पंद्रह दिन पहले उसे दिखाकर लोगों को भ्रमित किया जाता है. फिर भ्रमित लोगों की ही अगुवाई में हड़बोंग किया जाता है. साफ कहें तो राम या हिंदुत्व के नाम पर देश में हिंसा का जो साम्राज्य बनाया जा रहा है, वह बहुत घातक है.’
देश को उल्टी दिशा में ले जाया जा रहा
नर्मदा बचाओ आंदोलन की पहचान रहीं मेधा ने बात पूरी करते हुए कहा, ‘सौ साल पहले काकोरी के शहीदों ने शोषक व अन्यायी गोरी सरकार का खजाना लूटकर उसी से उससे लड़ने का निश्चय किया था. पर आज के हालात में किसी का खजाना लूटने की जरूरत नहीं. इतना भर कर दिया जाए कि बेईमानी से अर्जित संपत्तियां जब्त कर ली जाएं और देश के ज्यादातर धन व संसाधनों पर कुंडली मारे बैठे एक प्रतिशत अमीरों की संपत्तियों पर समुचित कर लगा दिया जाए, तो सरकार को हर साल इतने रुपए मिलने लगेंगे कि किसानों को उनकी फसलों का सही दाम और मजदूरों को उनकी मेहनत की सही मजदूरी मिलना कठिन नहीं रह जाएगा.’
‘लेकिन अभी तो देश को इसकी ठीक उलटी दिशा में ले जाया जा रहा है. गलत कराधान के चलते आवारा पूंजी बढ़ रही है, जबकि पलायनवादी अर्थ व्यवस्था विस्थापन और विषमता बढ़ाने वाले जिस विनाशकारी विकास को प्रोत्साहित कर रही है, उससे और तो और देश की हवा और पानी तक बरबाद होकर रह गए हैं.’
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)