दुनिया को और सुन्दर होना चाहिए लेकिन …..
गौहर रजा अपनी एक कविता में कहते हैं – “ये साल भी यारो बीत गया/ कुछ खून बहा कुछ घर उजड़े/कुछ कटरे जल कर खाक हुए/ एक मस्जिद की ईंटों के तले / हर मसला दब कर दफ्न हुआ.” ये काव्य पंक्तियाँ साल के गुजर जाने पर दुनिया को सुन्दर बनाने की उम्मीद में पिछड़ जाने की कसक हैं. एक कवि एक कविता नहीं चाहता, वह एक दुनिया चाहता है, एक ऐसी दुनिया जहां अमन हो, जहां न्याय हो, जहां कोलाहल न हो.. ऐसी ही भावभूमि के साथ जयशंकर प्रसाद ने भी औपनिवेशिक दुनिया का प्रतिसंसार रचते हुए कहा था – “ले चल मुझे भुलावा देकर / मेरे नाविक धीरे–धीरे.” जब भी साल गुजरता है मेरी जुबान पर सबसे पहले गौहर रजा की यह कविता आ जाती है.
चुनावों का साल
यह साल राम मंदिर अयोध्या में भगवान राम की प्राण प्रतिष्ठा की गहमागहमी के साथ शुरू हुआ. इसकी ताप लोकसभा चुनाव तक सबसे ज्यादा रही. राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा को लेकर शुरुआती मतभेद दिखे लेकिन अंततः भव्य तरीके से प्राण प्रतिष्ठा संपन्न हुआ. भारतीय जनता पार्टी को इस बात का आत्मविश्वास था कि ‘राम मंदिर’ आम चुनावों में रिकोर्ड तोड़ जीत का कारण बनेगा, लेकिन चुनाव परिणामों में ऐसा नहीं हुआ. यद्यपि भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में ही एनडीए की सरकार बनी लेकिन भाजपा अयोध्या की ही सीट जीतने में असफल रही. लोकसभा चुनाव के एजेंडों को देखा जाए तो विपक्ष ने ‘संविधान बचाने’ की जो कवायद की, उससे इस बार के लोकसभा में विपक्ष का मजबूत अस्तित्व उभरा, नहीं तो पिछली लोकसभा परिणाम के बाद सत्ता पक्ष के द्वारा कहा जा रहा था कि ‘विपक्ष है ही नहीं.’ कहा जा सकता है कि इस लोकसभा की आशाजनक स्थिति यह है कि अब विपक्ष मजबूती से दिख रहा है. चुनाव के नजरिये से देखा जाये तो इस वर्ष हरियाणा विधानसभा चुनाव में भाजपा की वापसी सुर्ख़ियों में रही. हरियाणा का चुनाव इसलिए भी चर्चा में रहा क्योंकि यह किसान आंदोलन का भी क्षेत्र है. यह पहलवानों के आन्दोलन का केंद्र भी था. विशेषज्ञ अनुमान लगा रहे थे कि अग्निवीर योजना का असर चुनाव परिणामों पर होगा. उम्मीद की जा रही थी कि इनसे कांग्रेस एवं अन्य विपक्षी दलों को लाभ मिलेगा. लेकिन नजदीकी मुकाबलों में कांग्रेस की अप्रत्याशित हार हुई. आंध्र प्रदेश के विधानसभा चुनाव में चंद्रबाबू नायडू की पार्टी टीडीपी ने बड़ी जीत हासिल की. यहां का परिणाम इस मायने में चौकाने वाला रहा कि पिछले विधानसभा चुनाव में वाईएसआर कांग्रेस पार्टी 151 सीटों पर जीत दर्ज कर भारी बहुमत हासिल की थी वही इस बार मात्र 11 सीटों में सिमट गयी.
इस साल के अन्य चुनावों में झारखंड और महाराष्ट्र के चुनाव सुर्ख़ियों में थे. झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को ईडी के द्वारा की गयी गिरफ़्तारी और उनके जेल में होने के दौरान मुख्यमंत्री बने चंपई सोरेन के भाजपा में शामिल हो जाने के बाद यहां चुनाव की सरगर्मी बनी. लेकिन आदिवासी बहुल राज्य झारखंड में भारतीय जनता पार्टी मात्र एक ही आदिवासी आरक्षित सीट बचा पाई और सभी आदिवासी आरक्षित सीटों पर हार गयी. इस चुनाव परिणाम को झारखंडी भावना की जीत की तरह देखा गया जो भाजपा द्वारा हेमन्त सोरेन को साजिशन जेल भेजवाने का जवाब था. महाराष्ट्र चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने बड़ी जीत हासिल की और प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र से आये परिणामों को देखकर कयास लगाया जा रहा था कि विपक्षी गठबंधन महा विकास आघाडी उलटफेर कर सकती है. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. जम्मू कश्मीर में धारा-370 हटने के बाद पहली बार विधानसभा चुनाव हुए. खबरों के अनुसार धारा-370 हटने के बाद लगभग तीन सौ राजनेताओं को हिरासत में लिया गया था. धारा-370 हटने के बाद जम्मू–कश्मीर में अनिश्चित काल के लिए चुनावों पर निलंबन था जिसके विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गयी थी. सुप्रीम कोर्ट ने भारत के चुनाव आयोग को जम्मू–कश्मीर में लोकतांत्रिक प्रक्रिया बहाल करने का आदेश दिया था, जिसके बाद यहाँ चुनाव हुए. चुनाव में जम्मू कश्मीर नेशनल कांफ्रेंस के नेतृत्व में इंडिया गठबंधन की सरकार बनी.
मणिपुर सुलगता रहा
चुनाव होते रहे और चुनावों से दूर मणिपुर सुलगता रहा. सबसे दुर्भाग्य की बात तो यह रही कि विभिन्न राज्यों के चुनाव में कहीं भी मणिपुर की हिंसा का मुद्दा शामिल नहीं रहा. चाहे वह सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, मणिपुर सबकी नजरों से ओझल रहा. यह सवाल है.. क्या मणिपुर से इतर समाज के लोगों के लिए मणिपुर का दुःख उनका दुःख नहीं है ? क्या हमारी भारतीयता इस तरह संकीर्ण है कि हम दूसरे प्रान्तों के दुःख में शामिल नहीं होते ? मणिपुर की हिंसा इस साल भी मणिपुरी लोगों के लिए दुःख का पहाड़ बनी रही. मणिपुर में अब तक लगभग ढाई सौ लोगों की हिंसा में मौत हो चुकी है और लगभग पचास हजार लोग विस्थापित हुए हैं. मई 2023 ई. से शुरू हुई हिंसा शांत नहीं हो रही है. विपक्ष मणिपुर की बात उठाता रहा है लेकिन ऐसा लगता है कि दिल्ली को इससे फर्क नहीं पड़ रहा है. कुकी और मैतेई समुदायों के बीच भड़की हिंसा को पुरानी जातीय हिंसा की तरह देखा जा रहा है. कई बार यह भी कहा गया कि यह सीमा पार के उपद्रवियों के कारण हो रहा है. लेकिन अगर वस्तुस्थिति देखें तो इसमें धर्म आधारित बहुलतावादी राजनीति का दुष्परिणाम ही दिखता है.
बहुसंख्यक मैतेई हिन्दू धर्मावलम्बी हैं और कुकी–नगा ईसाई धर्मान्तरित हैं. मणिपुर में जो घटना घटित हो रही है उसका लिंक हिंदुत्वादी राजनीति से भी जुड़ा हुआ है, वहां की हिन्दूवादी राजनीति ने मैतेई को आधार बनाकर कुकी और नगा समुदायों पर हमला करना शुरू कर दिया. उन्होंने कुकी को विदेशी मूल का कहना शुरू किया, कुकी समुदायों को उनके लिए निर्धारित संविधान की 5 अनुसूची के प्रावधानों से वंचित किया जाने लगा. एडिसी यानी स्वायत्तशासी जिला परिषदों को प्रभावी न बनाकर बहुसंख्यक मैतेई के वर्चस्व को बनाये रखने के लिए वन अधिनियम में बदलाव किया गया. वहां के आदिवासी समुदायों ने एडिसी को सशक्त बनाने का लम्बा संघर्ष किया. इसके लिए उन्होंने लगभग दो दशकों तक एडिसी के चुनावों का बहिष्कार किया था. उनकी मांग रही है कि उन्हें अनुच्छेद – 244 (2) की तरह स्वायत्तता दी जाये, जिसे अस्वीकार किया गया है. हालिया मणिपुर फारेस्ट रूल 2021 और गवर्नमेंट लैंड सर्वे ने वहां के कुकी–नगा आदिवासी समुदायों के पुश्तैनी अधिकारों पर दखल किया, वहां के आदिवासियों को लगा उनके जमीन और जंगल संबंधी कानूनों को कमजोर किया जाने लगा है. इससे आदिवासी समुदायों में पहले से नाराजगी थी. जब मैतेई को आदिवासी घोषित करने का फैसला आया तो यह नाराजगी गुस्से में बदल गयी. मैतेई समुदाय को आदिवासी घोषित करके हिंदुत्वादी राजनीति एक तीर से दो निशान लगा रही है – एक, कुकी जैसे ईसाई धर्म स्वीकार कर चुके आदिवासी समुदायों को सबक सिखाना. दूसरा, आदिवासियों को हिन्दू घोषित करने के एजेंडे को पूरा करना. इस पूरी प्रक्रिया में अंततः आदिवासी समुदाय के संवैधानिक अधिकारों और स्वयत्तता का हनन हो रहा है. इस सामुदायिक संघर्ष को पुराने जातीय संघर्षों की तरह देखने का मतलब है वहां के आदिवासियों के वस्तुगत हितों के संवैधानिक प्रावधानों को नजरंदाज करना. दुखद है कि इसे केवल जातीय हिंसा की तरह देखा जा रहा है.
बस्तर में होते मुठभेड़ और चुप होती आवाजें
इस साल छत्तीसगढ़ में माओवादियों से मुठभेड़ में सुरक्षाबलों को कथित बड़ी सफलताएं मिली हैं. अब सुरक्षा बल उन इलाकों तक घुस गए हैं जो माओवादियों के सबसे सुरक्षित इलाके माने जाते रहे हैं. सरकार कह रही है कि अब बहुत जल्दी माओवादी समस्या ख़त्म हो जाएगी, लेकिन इसके साथ ही कई सवाल हैं जो साथ–साथ चल रहे हैं. 11 दिसम्बर को अबूझमाड़ क्षेत्र में पुलिस के साथ मुठभेड़ में सात माओवादियों के मारे जाने की खबर आई, यह इस साल हुए मुठभेड़ों में सबसे हाल की घटना है. इस घटना के बारे में भी सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि मारे गए सात में से पांच स्थानीय ग्रामीण थे. सामाजिक कार्यकर्त्ता सोनी सोरी का कहना है कि ऑपरेशन में लगे फ़ोर्स ने उन ग्रामीणों को खेतों से उठाया था. इस मुठभेड़ में चार बच्चे घायल हुए जिन्हें गोली के छर्रे लगे थे. पुलिस का कहना है कि माओवादियों ने बच्चों को ढाल की तरह इस्तेमाल किया. ऐसे कई मुठभेड़ हुए हैं जिनपर सवाल हैं. लेकिन अब शायद इन सवालों को कहने वाले चुप होने लगे हैं. देखा जाये तो अब इस तरह की घटनाओं पर कम बात हो रही है. स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ताओं को छोड़कर और कहीं से आवाज नहीं मिलती है. जबकि ये सारे प्रसंग आदिवासी संवैधानिक प्रावधानों या मानवाधिकारों से जुड़े हैं. इसकी दो वजहें हो सकती हैं – एक, माओवादियों की हिंसात्मक रणनीति संभवतः उसे लोगों से दूर कर रही है. या, दूसरा, सरकार ‘अर्बन नक्सल’ के नैरेटिव से मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने में सफल हो गई है. जो भी हो, इन सारी प्रक्रियाओं में बस्तर की संवैधानिक और मानवीय स्थिति का हनन होता जा रहा है. संविधान की पांचवी अनुसूची, अनुच्छेद – 244 (1), पेसा अधिनियम-1996, ग्राम सभाओं के अधिकार सब नेपथ्य में चले गये हैं. कवि चन्द्रकांत देवताले की पंक्ति याद आती है – ‘बस्तर की पीठ पर चाबुक के निशान हैं.’
युद्ध में बीतता समय
राष्ट्रीय परिदृश्य से बाहर यह साल युद्ध के दलदल में फंसा रहा. फिलस्तीनी संगठन हमास से बदला लेने के नाम पर इस्रायल ने फिलिस्तीन पर ताबड़तोड़ हवाई और जमीनी हमले किये. इस्रायल पर हमास के एक हमले के बदले में 8 अक्तूबर 2023 से इस्रायल ने फिलिस्तीन के घेरेबंदी की घोषणा की. तब से अब तक एक साल से ऊपर हो गया है. इस युद्ध में इस्रायल ने सभी मानवीय और अंतरराष्ट्रीय मानकों का खुलकर उल्लंघन करते हुए फिलिस्तीन पर हर तरह से हमला किया है. हमास के खात्मे के नाम पर उसने स्कूलों और अस्पतालों में रोकेट से हमले किये. उसने फिलिस्तिनियों को पहुंचने वाले हर मानवीय राहतों से वंचित किया. यहां तक कि युद्ध पीड़ितों को खाना देने वाले संस्थाओं तक पर इस्रायल ने हमला किया. यह ऐसा जघन्यतम हमला था जिसके बारे सोचना भी विचलित कर देने वाला है. इस युद्ध में गाजा में लगभग 45 हजार फिलिस्तीनी मारे गये. इस युद्ध का सबसे शर्मनाक पहलू है बच्चों की हत्या. युद्ध दोनों तरफ से हुए, हमास के हमले ने ही सूरत बदली. लेकिन उसके बाद इस्रायल ने जो किया वह मानवता को शर्मसार करने वाला है. अल जजीरा में प्रकाशित के खबर के अनुसार इसरायल के हमलों में लगभग 16 हजार फिलिस्तीनी बच्चे मारे गये हैं और लगभग 10 हजार महिलायें मारी गयीं. बावजूद इसके इस संघर्ष को बेशर्मी से ‘मुस्लिम वर्सेज’ बनाकर प्रस्तुत किया गया. अमेरिकी गुटों द्वारा कूटनीतिक शक्ति प्राप्त इसरायल का जनसंहार कभी भी आतंकवादी कार्रवाई नहीं कहा जायेगा, न ही इसरायल कोई आतंकवादी देश कहा जायेगा. विश्व कूटनीति का यह औपनिवेशिक नैरेटिव है जिसके तले कमजोर देश शिकार होते हैं. फिलिस्तीन को उसी तरह शिकार बनाया गया, उसके लोग एक वतन की चाह में मरे जा रहे हैं. फिलिस्तीनी कवि महमूद दरवेश इसलिए अपनी कविता में कहते हैं –
“चमकते सूरज के नीचे
फ़िलिस्तीन मेरा है
चमकते चांद के नीचे
फ़िलिस्तीन तेरा है
फ़िलिस्तीन हमारा है, हमारा ही रहेगा”
युद्ध का दूसरा बड़ा मैदान यूक्रेन की जमीन पर भी है. रूस–यूक्रेन युद्ध के लगभग दो साल होने वाले हैं. राष्ट्रपति पुतिन ने कहा है कि वे उस ग्रह की कल्पना नहीं कर सकते हैं जिसमें रूस का अस्तित्व न रहे. पुतिन इसे रूस के भविष्य और उसके अस्तित्व की लडाई बता रहे हैं तो उसके विरोधी कहते हैं कि वह यूक्रेन पर कब्ज़ा करके उसकी संप्रभुता छीनना चाहता है. अब इस लड़ाई का परिदृश्य साफ हो चुका है. यूक्रेन अमेरिका और नाटो के समर्थन से युद्ध में हुंकार भर रहा है. उन्हीं के हथियारों से वह रूस को मुंहतोड़ जवाब भी दे रहा है. लेकिन कूटनैतिक नजरिये से देखें तो यह नाटो के विस्तार के विरुद्ध रूस का हस्तक्षेप है. रूस कभी नहीं चाहता था कि उसके पड़ोसी देश नाटो से नजदीकी रखें या उसके सदस्य बनें, जबकि इसके विरुद्ध नाटो की हमेशा कोशिश रही कि रूस के भू–राजनीतिक वर्चस्व को खत्म किया जाये. यह ऐसा संघर्ष है जिसकी जड़ें सोवियत रूस के समय से है जहां पूंजीवाद और मार्क्सवाद के बीच के झगडे हैं. पुतिन कम्युनिस्ट नहीं हैं लेकिन वे सोवियत रूस वाली अंतर्राष्ट्रीय हैसियत चाहते हैं. यही वजह है कि जब 2014 में अमेरिका और नाटो समर्थित विद्रोही सीरियाई गृहयुद्ध में असद की सरकार को उखाड़ने के लिए हमलावर हुए तब पुतिन ने कूटनीतिक दबदबा रखते हुए असद की सरकार का समर्थन किया और सरकार विरोधी विद्रोहियों को हवाई हमलों से धूल चटा दी. इस तरह उन्होंने असद का बचाव किया और विश्व कूटनीति के सबसे प्रभावी नेता बने. लेकिन इस साल के अंत तक जब यूक्रेन से उसका युद्ध जटिल और भारी होता गया तो उसने यूक्रेन युद्ध पर खुद को केन्द्रित करने के लिए असद का साथ छोड़ा. जिसका परिणाम यह हुआ कि इस दिसम्बर में असद विरोधी विद्रोहियों ने असद का तख्तापलट कर दिया. सीरिया फिर से एक दूसरी राजनैतिक स्थिति में पहुंच गया. सीरिया के गृहयुद्ध में पिछले एक दशक में लगभग तीन लाख लोग मारे जा चुके हैं. अरब के इस भूभाग में जो स्थिति है वह वहां की स्थानीय शक्तियों पर विदेशी नियंत्रण से इंकार नहीं है. वह ऐसा भूभाग बन चुका है जिसपर खड़े होकर युद्ध सरदारों को अपना वर्चस्व साबित करना है. चाहे इसके लिए आम आदमी को जो भी कीमत चुकानी पड़े. संयक्त राष्ट्र संघ और मानवाधिकार संगठनों का मानना है कि सीरिया एक ऐसा देश बन चुका है जहां आधे से अधिक जनसंख्या को अनिवार्य मानवीय सहायता की आवश्यकता है. सीरिया युद्ध का ऐसा मैदान है जहां शायद ही जमीन का कोई टुकड़ा बचा होगा जहां अंगूर या गेहूं की खेती के लिए जुताई हो तो बारूद न निकले.
हमारी इक्कीसवीं सदी युद्ध की सदी बन चुकी है. युद्ध के बीज अरब से लेकर अफ्रीका तक सब तरफ बिछ चुके हैं. कहीं आग की लपटें ज्यादा हैं तो कहीं आग सुलगाई जा रही है. इंसान की सभ्यतागत यात्रा तो ‘सभ्य’ और ‘अमन’ की यात्रा थी. दास युग की बर्बरता से लेकर आज तक बदला ही क्या ? सवाल उठता है. वैज्ञानिक आविष्कारों ने जीवन को सरल बनाया या जटिल? इंसानों की सुरक्षा सुनिश्चित हुई या भय बढ़ा है ? यह सभ्यता ऐसी सभ्यता बन चुकी है जहां एक ओर अकूत चमक दमक और वैभव है और दूसरी तरफ उतनी ही जहालत है. गरीबी, बीमारी और भुखमरी आज भी मिसाइलों से ज्यादा घातक हैं. ये वाजिब सवाल है अगर हम एक बेहतर दुनिया चाहते हैं तो. कवि और उसकी कविता यह सवाल जरूर करेगी. हिन्दी के युवा कवि कमलजीत चौधरी सवाल करते हैं –
‘जिसने ताला बनाया
उसने चाबी भी बनाई
जिसने दीवार बनाई
उसने खिड़की भी बनाई
जिसने धुरी बनाई
उसने यात्रा भी बनाई
जिसने हवा और पृथ्वी बनाई
उसने धूपभरे जल में स्नान करके उड़ती
चिड़िया भी बनाई
जिसने बन्दूक बनाई
उसने और क्या बनाया ?’
स्टॉकहोम पीस रिसर्च की सूची में हथियार बनाने वाले देशों और कंपनियों का नाम देखें तो पता चलता है कि युद्ध एक कारोबार है. इस कारोबार को मुनाफा युद्ध से ही होता है. एक ईरानी फिल्म का पात्र कहता है – ‘युद्ध में कोई जीतता नहीं, जीतते हैं केवल हथियार के कारोबारी.’ इन कारोबारियों के लिए ही सवाल है कि जिसने बन्दूक बनाई उसने और क्या बनाया? विडम्बना की बात यह है कि ये सारे कारोबारी लोकतंत्र की चुनावी व्यवस्था के बीच ठाठ से अपनी पहचान बनाते हैं. ये उसके हिस्से होते हैं और अंततः उसके नियन्ता बन जाते हैं.
इस साल के राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय खाते में बेहतरीन पल भी हैं. खुशनुमा और रोमांच से भर देने वाले.. लेकिन उसकी परिधि बहुत छोटी है. इतनी छोटी कि उससे इंसानियत के लिए कुरता सिला नहीं जा सकता है. इसलिए जरूरी है कि हम इस साल के बीते उन पन्नों को पलटें जहां हमारा आईना है. उसमें हम अपना चेहरा देखें, अपनी आँखों की नमी देखें. इंसानियत और करुणा की धारा अगर सूख रही है तो उसे बचाएं.. यह जितना खुद को बचाना है उतना ही दुनिया को बचाने का उपक्रम भी है.
(अनुज लुगुन भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार और साहित्य अकादेमी के युवा पुरस्कार से सम्मानित कवि और लेखक हैं. उनकी तीन काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुकी है- अघोषित उलगुलान, बाघ और सुगना मुण्डा की बेटी और पत्थलगड़ी.)