अपने लिखने को लेकर लेखकगण बहुत सारे दावे करते आए हैं: हम यथास्थिति या समाज को बदलने के लिए लिखते हैं; हम अपने आत्म को खोजने के लिए लिखते हैं; हम लिखकर भाषा में अनुभव और दृष्टि का भूगोल बढ़ाना चाहते हैं, हम लिखते हैं पर जानते हैं कि लिखने से कुछ नहीं बदलता फिर भी हम ऐसे लिखते हैं मानो कि हमारे लिखने से फ़र्क पड़ता है; हम लिखते समय पाठकों को ध्यान में रखते हैं; हम लिखते समय पाठक का ख़याल नहीं करते, हम स्वान्तः सुखाय लिखते हैं, हम बहुजन हिताय लिखते हैं आदि.
दावे तो दावे होते हैं और कई बार अपना मनोबल ऊंचा रखने के लिए किए जाते हैं. लेकिन उनमें कुछ न कुछ सचाई भी होती है. साहित्य के उद्देश्य या लक्ष्य को लेकर लंबी बहस होती आयी है. यह भी सही है कि हर लिखनेवाला कभी-न-कभी इस सवाल से निपटता है कि वह क्यों लिखता है. उसके लिखने का, हो सकता है, शुरू में कारण वह खुद भी न समझता हो. दूसरी तरफ़ यह भी सचाई है कि तरह-तरह के लिखने वाले होते हैं और वे तरह-तरह की प्रेरणा से लिखते हैं, तरह-तरह का लिखते हैं और उन्हें किसी स्पष्ट लक्ष्य के बाड़े में महदूद नहीं किया जा सकता.
आख़िर गुरुगंभीर लेखन है तो खिलंदरा लेखन भी है: आत्मग्रस्त लेखन है तो समाज-संबोधितत भी. विचारधारी लेखन है तो मुक्त विचार का लेखन भी. जैसे जीवन में वैसे ही साहित्य में हमें बहुलता चाहिए: उसी से हम रस, दृष्टि, विचार, जिजीविषा पाते हैं.
ऐसा कुछ भी अक्सर लिखा जाता रहा है जो अपनी दृष्टि या अभिव्यक्ति में मनुष्य-विरोधी, घृणा-उपजाऊ, सिरे से झूठ आदि होता है. ऐसा लेखन अंततः जीवित नहीं रहता और देर-सबेर ख़ारिज कर दिया जाता है. किसी राजनीति के समर्थन में लिखा गया लेखन भी उस राजनीति के समाप्त होने का अप्रासंगिक हो जाता है.
यह भी याद रखना चाहिए कि बहुत सा लिखना सरसरी तौर पर होता है और ज़्यादा समय मौजूद नहीं रह पाता. लिखकर अपने आत्मा को खोजनेवाले अक्सर उस आत्म को पाने-थामने में सफल नहीं होते और समाज को बदलने के लिए लिखने वाले पाते हैं कि समाज रत्ती भर नहीं बदला; कई बार तो वह बिल्कुल विपरीत दिशा में चला जाता है, ऐसे लेखन को एक तरह से धता बताते हुए.
एक और पक्ष है: जीवन, समय, समाज, आत्म सभी लेखन से बड़े, जटिल और कठिन होते हैं और लिखना उन्हें पूरी तरह से समोने या चरितार्थ करने में कभी सफल नहीं होता. इस अर्थ में लिखना अपर्याप्त होने के लिए अभिशप्त है. लिखना अंततः हारना और विफल होना है, अपने अपर्याप्त होने की नियति का सामना करता है.
अलबत्ता यह सही है कि अगर न लिखते हो सका पता न चलता: लिखना पर्याप्त होने, सफल और सार्थक होने के भ्रम को ध्वस्त करता है और मनुष्य होने की अनिवार्य ट्रैजडी के रू-ब-रू खड़ा करता है. हम आधे-अधूरे हैं यह साहित्य के ट्रैजिक उजाले में हम कुछ साफ़ देख पाते हैं. जीवन को लेकर साहित्य कभी पूर्णकाय नहीं हो सकता.
इसे देखने का एक और तरीका भी मुमकिन है. हम जीवन या सचाई को उसकी समग्रता में नहीं समा-सहेज पाते लेकिन उन्हें छोटे-छोटे संपुंजनों में शायद ऐसे रूपायित कर पाते हैं कि उनके अपने जीवन में पूर्णता लगे. ‘महाभारत’, ‘रामचरितमानस’, कबीर और सूरदास की कविता, ‘कामायनी’, ‘राम की शक्तिपूजा’, शमशेर और मुक्तिबोध की कविताएं, ‘असाध्य वीणा’ शायद इसी अर्थ में पूर्ण लगती हैं.
बीता-आता
जो वर्ष बीत रहा है उसमें सार्वजनिक जीवन और हिंसक-आक्रामक-अभद्र हो गया. झगड़े-झांसे, झूठ और घृणा लोकप्रिय बने रहे. पाखंड बढ़ते गये, धार्मिक आचरण और अधम अध्यात्महीन हुए. मीडिया की स्वामिभक्ति और कायरता बरक़रार रही. सत्तापरक क्रूरता और दमन, षड्यंत्र और अन्याय, छापे और ज़्यादतियां पहले जैसे ही चलती रही. झूठ और नफ़रत के प्रभाव से कुछ लोग मुक्त हुए.
अकादेमिक स्वतंत्रता में कटौती बढ़ती रही. हिंदू धर्मनेता अधिकतर राजनीति के पालतूओं की तरह मुखर और सक्रिय रहे. वेतनभोगी वर्ग में पचास प्रतिशत लोगों की वास्तविक आय में तेरह प्रतिशत की कटौती हुई. विषमता का बढ़ना और कुछ गिने-चुने धनवानों की दौलत में कई गुना बढ़ोतरी होती रही. लोगों को हिंदू-मुसलमान में उलझाना और बढ़ा. भुखमरी की विश्वसूची में भारत और बहुत नीचे आ गया. यह सब इतना सामान्य होता गया कि लगभग स्वाकार्य हो गया लगता है.
जो नया वर्ष आ रहा है उसमें किसी बेहतर की उम्मीद करना कठिन है. सही है कि बीते साल में विपक्ष सशक्त और आक्रामक हुआ है. पर स्थिति में जल्दी कोई मौलिक परिवर्तन हो पायेगा, ऐसा नहीं लगता.
संस्कृति और राजनीति में इस समय जो शत्रुता सी ठन गई है वह शिथिल पड़ेगी ऐसा नहीं कहा जा सकता. फिर भी, संस्कृति को अपनी स्वप्नशीलता स्थगित नहीं करना चाहिए. हमें इस यक़ीन से भी अपसरण नहीं करना चाहिए कि सच और सचाई अंततः जीतेंगे और झूठ के व्यापार का भंडाफोड़ हो जाएगा. कौन जाने ज़्यादा लोग नए बरस में सपनों और सच की ओर लौट आएं!
‘कौन जान सकता है पत्थर की तकलीफ़!’
ज्वायस मंसूर मूलतः सीरियाई यहूदी थीं और राज परिवार से अपनी नजदीकी के कारण उन्हें साठ के दशक में मिस्र से फ्रांस भागना पड़ा था. वे पेरिस में उस समय सक्रिय अतियथार्थवादी प्रवृत्ति में शामिल हुईं और अतियथार्थवाद के प्रमुख प्रस्तोता आन्द्रे ब्रेबॉ ने उन्हें बढ़ावा दिया और उनकी प्रशंसा की. मंसूर की मूल भाषा तो अंग्रेज़ी थी पर उन्होंने फ्रेंच में सोलह कवितासंग्रह, कुछ गद्य और रंगमंच से संबंधित सामग्री प्रकाशित की.
उनकी चुनी हुई कविताओं का अंग्रेज़ी अनुवाद में एक संचयन ‘इन द ग्लिटरिंग मा’ शीर्षक से वर्ल्ड पोएट्री ने प्रकाशित किया है, इसी वर्ष. इसी प्रकाशन से हिंदी कवि लीलाधर जगूड़ी की कविताओं के अंग्रेज़ी अनुवाद का एक संचयन ‘व्हाट ऑफ द वर्ल्ड वाज़ सेव्ड’ आया है.
ज्वायस की दृष्टि हिंसक-आक्रामक थी; उसमें विचित्रता और बेबाकी एक साथ थीं. वे ज़िंदगी, रूढ़ियों, समाज, सेक्स, प्रेम आदि सभी के बारे में लगातार प्रश्नवाचक थीं. वे कहती थीं कि ‘मैं कहां जाऊंगी जब रास्तों पर निगरानी है?’ और कि ‘अंधेरी धरती की ख़ामोशी में/मैं सुनती हूं एक मरी हुई चीख़’. उन्हें सुनाई देता है ‘एक हज़ार गलों का चीत्कार’ और वे देख पाती हैं कि ‘सेक्स का राजपथ बनी रहती है घृणा’.
वे यह विचित्रता दर्ज़ करती हैं कि ‘कुचाग्र से चूता है पसीना/दूध की तरह’ और आत्मप्रश्न करती हैं कि ‘क्या मैं आख़िरकार सीख पाऊंगी कि इस क्षण को बीत जाने दूं/अपने को और लड़ने के लिए वैध्य बिना बनाये.’ कई बार उनकी काव्योक्तियां विचलित करती हैं जैसे यह कि ‘शोक मनाओ ताकि हंस पाओ’.
ठीक से तो नहीं मालूम पर ऐसा लगता है कि अतियथार्थवादियों को भारतीय अध्यात्म और उससे जुड़े प्रतीकों-बिंबों का कुछ पता था. उसका एक अप्रत्याशित प्रमाण ज्वायस की एक लंबी कविता के इस अंश में मिला जो उतने ही अप्रत्याशित ढंग से इस समय समकालीन भारत का एक चित्रांकन भी लगता है:
अपनी आंखें मूत्र से धोओ
अपने गले साफ़ करो मूत्र से
अपनी पवित्र गायों का मूत्र पियो
एक पैरहीन व्यक्ति के गोपनीय जूते में
भूल जाओ पूर्व को
यह जीवन है
गोधूलि एक गधे की तरह बैंच पर फैली है
हर जगह खूबसूरत दोपहर मरती है…
. . . .
कुंडलिनी खिसकती है
गुलामी की चर्बी में
भारी लिपटी हुई
वह कांप रही है अब तक
काफ़ी समय से
हमें क़ब्रगाहों में दीवारें खींच देना चाहिए
सारे निश्चयों को तोड़ देना चाहिए…
यह कविता 1981 में प्रकाशित हुई थी.
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)