रचनाकार का समय: ‘जात से कायनात तक, कहानी के देश में प्रवासी हूं मैं’

रचनाकार को अक्सर यह मुगालता होता है कि वह अपने समय को दर्ज कर रहा है, और दर्ज भी ऐसे कि गोया अहसान कर रहा है. और गोया ऐसे भी कि सिर्फ वही कर रहा है, अगर वह नहीं करेगा तो समय दर्ज हुए बिना ही रह जाएगा. इस चमकीले मुहावरे से खुद को बचा लेना चाहता हूं कि मैं अपने समय को दर्ज करने के महान काम में लगा हुआ हूं.

दुष्यंत. (फोटो साभार: फेसबुक/पेंटिंग: Books are the key of eternity By David Telia)

पहले कहानी-संग्रह के बाद, दूसरा आने में समय लगा. यह दूसरा, ‘किस्से कॉफियाना’, भी पेंगुइन से ही आया. इस किताब के साथ लेखकीय जीवन की यात्रा में दर्जन भर किताबें हो गई हैं. उसमें कितना याद रखने लायक, सहेजने लायक हो पाया है, यह फैसला तो समय के ही हाथ में है, मेरे हाथ तो लिखना ही है. कहने को इन्हें पिछले दो दशकों के समय का दस्तावेज भी कहा जा सकता है, पर यह जल्दबाजी होगी.

ऐसा क्यों भला?

इसका जवाब थोड़ा जटिल है. तो थोड़ा इधर- उधर की बात करते हैं, फिर बीच में आपको लग जाएगा कि इस सवाल का जवाब आपको मिल गया है.

यूं तो कई विधाओं में लिखता रहा हूं, लेकिन खुद को कविता के द्वीप का स्थाई निवासी मानता हूं, पर जैसे वहां से देश निकाला मिला हुआ व्यक्ति हूं तो कहानी आदि विधाओं के देश में प्रवासी के रूप में जी रहा हूं. हालांकि प्रवास में भी बहुत आनंद महसूस करता हूं, पर अपने देश की याद किस परदेसी को नहीं आती. कई विधाओं में सक्रियता मुझे ‘राइटर्स ब्लॉक’ से बचा लेती है तो खुद की नजर में कुछ न कर पाने या ‘बॉडी ऑफ वर्क’ के मामले में कम होने की संभावना से खुद को बचा लेता हूं, कई बार कुछ लोग स्टीरियोटाइप या खांचे में कैद करने के लिए या तंज करते हुए कहते हैं कि आपको क्या मानें, तो कहता हूं कि आपको मेरा जो रूप पसंद हो उससे प्यार कर लो, बाकी रूपों को इग्नोर कर दो.

पर, दरअसल उन्हें तो कम प्यार करने की वजह ढूंढनी होती है शायद.

अपने कहानियां लिखने के विकास क्रम में अपने समय को संबोधित करती हुई मेरी अब तक की सबसे बेबाक कहानी को अलक्षित रह जाने का दंश भी झेला है. कहानियों में बेशुमार प्रयोग किए हैं. छवि की परवाह किए बग़ैर किए हैं. खुद बार बार अपनी छवि तोड़ी है. और किस्सागोई के इस सफ़र में जो जितना हासिल हुआ है, उसी तोड़फोड़ से ही हुआ है. अब जिस जगह खड़ा हूं, यह यक़ीन बना और पुख़्ता हुआ है कि किस्सागोई का कोई भी प्रयोग कहानीपन की कीमत पर नहीं होना चाहिए.

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समतावादी और उत्तरोत्तर अधिक लोकतांत्रिक समाज का सपना हर लेखक की तरह मेरा भी है, मगर कभी यह मुगालता नहीं रखा कि लेखक समाज में कोई बड़ी चीज़ होता है. वह कुछ खास बदल भी नहीं सकता. हद से हद, वह इशारे भर कर सकता है. उसके लिखे में भविष्य के लिए कुछ रास्ते, कुछ सीखें, कुछ मोमबत्तियां हो सकती हैं, उनसे मशाल की उम्मीद करना कुछ ज्यादा ही चाहना है, दरअसल यह चाहना लेखक खुद को बड़ा मानने के कॉम्प्लेक्स से जुड़ी हुई लगती है.

इतिहास के विद्यार्थी के रूप में जानता हूं कि दुनिया और खास तौर पर समाज बहुत मंथर गति से बदलता है. आज के भारतीय समाज का निर्माण कोई 5-7 या 10-20 साल की बात नहीं है. इस समाज की राजनीतिक प्रवृत्तियां भी कम से कम सौ साल के कैनवस पर उकेरी हुई हैं. मेरी राय है कि लेखक जब राजनीति या भविष्य के सपने को 2-4 साल या 5-10 साल या सत्ता के बदलने तक सीमित करके देखता है, तो अव्यवहारिक तो होता ही है, अपनी भूमिका को भी नहीं समझ रहा होता है. उसके हथियार की सीमा है कि उसका नतीजा आने में कम से कम कुछ दशक या कई सदियां लगनी ही होती हैं. लेखक के रूप में मेरी राजनीति इसी खयाल से जन्म लेती है, खाद-पानी लेती है.

मेरा लिखा किसी सामूहिक क्रांति का आधार तो क्या ही बनेगा, एक पाठक किसी कहानी को पढ़कर किसी छोटे से बदलाव चाहे वह समाजी स्तर पर हो, रिश्तों के स्तर पर हो के लिए कोई ट्रिगर पा ले, यह कोशिश करता हूं. छोटे-छोटे बदलावों से दुनिया के धीरे धीरे और बेहतर, और सुंदर, और जीने लायक हो जाने का ख़्वाब देखता हूं.

आसपास लेखकों को देखता हूं तो लाड़ आता है कि सब के सब कितने गंभीर हैं, जैसे हम लेखकों से ही दुनिया चलती हो, हमीं दुनिया बदल देंगे, और अगर मोमबत्ती जितनी हैसियत हमारी है भी तो इसके लिए हमारी बात की पहुंच बढ़ाने को हम राजी नहीं हैं. पहुंच बढ़ाने को बाजार का साधन बनना करार देने लगते हैं.

खैर, उन्हें अपना मार्ग, पसंद चुनने का पूरा और वाजिब हक़ है, पर मेरी कोशिश रहती है कि जो लिखना चाहता हूं, लिखूं, जो कहना चाहता हूं, अपने लिखे में कहूं और फिर उसे अधिकतम लोगों तक पहुंचाने में जी जान लगा दूं.

मेरे दादा एक बात कहते थे कि बात ज्यादा लोगों तक पहुंचाने के लिए पहले ऊंची जगह खड़े होना पड़ता है, साफ और ऊंची आवाज़ में बोलना होता है, कंटेंट का नंबर उसके बाद आता है कि क्या कहना है. जीवन में जब उनके आप्त वचन को वास्तव में महसूस किया तो जद्दोजहद यही हुई है कि ऊंचा टीला दिखे और फिर उसके ऊपर पहुंचे, तब कुछ बोलें.

दुष्यंत की पुस्तकें. (फोटो साभार: संबंधित प्रकाशन)

यहां यह भी कहना, दोहराना जरूरी लगता है कि मेरे लिए वाल्मीकि रचित रामायण भारत का सृजनात्मक शीर्ष है (महाभारतकार वेद व्यास के साथ). इनसे बेहतर किसी रचना की लोकस्वीकृति क्या हो सकती है! लोकस्वीकृति यानी लोक सिद्धि. भरत के नाट्यशास्त्र के पहले ही श्लोक में लोकसिद्धि को नाट्य की प्रथम कसौटी माना गया है-

‘लोकसिद्धं भवेत् सिद्धं नाट्यं लोकात्मकं तथा’,

मुझे लोकसिद्धि का चरम रामायण की लोकस्वीकृति/प्रतिष्‍ठा में प्रकट होता प्रतीत होता है. ( मुझे नाट्य विद्या की लोकसि‍‍द्धि वाली इस कसौटी का विस्‍तार साहित्य सहित तमाम कलाओं में करना तार्किक लगता है), ये अलग बात है ‍कि लोगों को लोकप्रतिष्‍ठा और लोकप्रियता में अंतर बताने के लिए अब दो सिर चाहिए. बेशक, सहयात्री इरा ने मेरे लेखन में लोकसिद्धि को साधने में बड़ी भूमिका निभाई है.

लेखक का समय व्यक्ति के रूप में उसके समय से कहीं बड़ा होता है, ऐसा उसे मानना ही चाहिए, और ऊपर से, मुझ जैसे इतिहास के विद्यार्थी की तो समस्या और बड़ी हो जाती है कि वह सौ-पचास साल को भी कुछ नहीं गिनता. समय के छोटे दायरे का सही-सही दस्तावेजीकरण या तो पत्रकार करते हैं या थोड़ा ठहरकर इतिहासकार.

रचनाकार को तो ज्यादातर यह मुगालता ही होता है कि वह अपने समय को दर्ज कर रहा है, और दर्ज भी ऐसे कि गोया अहसान कर रहा है. और गोया ऐसे भी कि सिर्फ वही कर रहा है, अगर वह नहीं करेगा तो समय दर्ज हुए बिना ही रह जाएगा.

उस चमकीले मुहावरे से खुद को बचा लेना चाहता हूं कि मैं अपने समय को दर्ज करने के महान काम में लगा हुआ हूं. क्या ही मेरी नज़र, क्या ही मेरी बिसात, और क्या ही मेरे उपकरण है कि इतने महान काम को कर सकूं!

दशकों बाद, यूटोपियन खयालों की बारादरी से फिसलकर सच की ज़मीन पर अब लगता है कि मेरा लिखना खुद के लिए है, कि लिखते- लिखते थोड़ा दुनिया को समझने लगता हूं कि बेहतर जी पाऊं. उस थोड़ी- मोटी समझ का विस्तार उस प्रक्रिया में पाठक तक पहुंचता है, शायद उसके भी कुछ काम आ जाए, शायद न भी आए. मेरी अपने लिए की गई कोशिश प्रकारांतर से किसी के लिए उपयोगी हो जाए तो वह मेरा बोनस ही है.

किसी दिन अगर मैं दर्ज करने जैसे महनीय भाव से अभिभूत हो जाऊंगा तो जरूर अपने आग्रह से समय को देख भर रहा होऊंगा. वह मेरी निजी राय ही होगी, उसका वस्तुनिष्ठ मूल्य मानने जितना मूर्ख मैं कभी होना नहीं चाहूंगा. दुआ कीजिएगा.

मुझे लगता है कि लेखक की आज़ादी कई बार इस बात से सीमित होती है कि बाकी लोग उससे अपेक्षा करते हैं कि वह ऐसा बोले, ऐसा लिखे, ऐसे नहीं बोलता या लिखता तो लेखक कैसे हुआ. पाठक से ज़्यादा यह अपने साथियों का दबाव होता है, कई बार लेखक को पता ही नहीं चलता कि उसका लिखना, बोलना ‘ट्राइब अपीजमेंट’ में बदल गया है, उसकी मौलिक आवाज़ कहीं खो गई है या उस मौलिक आवाज़ की तलाश ही उसने भुला दी है.

ये संयोग या दुर्योग बना है कि लेखन मेरा पेशा भी है तो जीवन बाकी लेखकों से अलग होना ही है, यह व्यक्तिगत चुनाव है तो इसकी शिकायत क्या ही करनी, इसकी परेशानियां क्या ही बतानी. साहिर के शब्दों में शायद कहना ठीक लगे कि

… तुम लोगों पर क्या इल्ज़ाम
तुम आबाद घरों के बासी मैं आवारा और बदनाम’

तो बाकी लेखक शरीफ परिवार वालों की तरह हैं, और हम कुलवक्ती लेखक आवारा. तो हमारी चुनौतियां भी बहुत हैं, सुख भी अलहदा. तारीफें भी अलग हैं, गालियां तो पूछिए ही मत.

(दुष्यंत लेखक हैं, हिंदी फिल्म जगत से जुड़े हैं.)