भारत में सचाई की इतनी बहुलता है कि उससे आक्रांति में हम भूल जाते हैं कि हमारे यहां कल्पना में भी बहुलता ही है. यहां तक कहा जा सकता है कि अगर कल्पना में इतनी बहुलता न होती तो सचाई में भी नहीं हो पाती. बरसों पहले जब भारत भवन के कुछ पुनराविष्कार की सम्भावना प्रगट हुई थी जो, दुर्भाग्य से, जल्दी ही समाप्त भी हो गई, तब मैंने यह प्रस्ताव किया था कि हमको वहां भारत की राजनीतिक, दार्शनिक, सामाजिक, ऐतिहासिक, आध्यात्मिक कल्पना पर विचार-विनिमय के लिए बौद्धिक आयोजनों की एक सीरीज़ चलाना चाहिए.
यह भी कि ऐसा विचार-विनिमय सिर्फ़ परंपरा और अतीत पर केंद्रित नहीं होना चाहिए बल्कि उसमें आधुनिक काल में परिवर्तन-परिवर्द्धन-संशोधन आदि हुए हैं उनको भी पूरी तह से हिसाब में लेना चाहिए.
यह संदर्भ इसलिए ज़रूरी है कि हमारा भारतीय जीवन अब जिन कल्पनाओं से शासित-नियमित हैं वे अपने मूल में हमारी कई पारंपरिक कल्पनाओं से बहुत अलग और दूर हैं और हमने उन्हें अपना लिया है. इनमें से बहुत सारी कल्पनाएं बहुलता का या तो निषेध करती हैं या उसको घटाती हैं. अनेक क्षेत्रों में भारतीय एकता की बात की जाती ही है और उसे ऐसे परिभाषित किया, लादा जा रहा है कि वह हमारी बहुलता से मेल नहीं खाता. वह उस समावेशिता, सहकार, संवाद और विविधता से काफ़ी अलग है, उसके लगभग विपरीत है जो हमारा उजला उत्तराधिकार रहा है.
इस समय की बड़ी सचाई यह है कि उनका घोषित विश्वास कुछ भी हो, हमारे समय में, असल में लगातार राजनीति, धर्म, मीडिया, बाज़ार, आर्थिकी, टेक्नोलॉजी एकसेपन की तानाशाही को फैलाने, पुष्ट और सशक्त करने, अनिवार्य और मानव हित और विकास के लिए ज़रूरी बताने में लगे हैं. सारी बहुलता सिर्फ़ स्वाद परिवर्तन का मामला बनकर रह गई है. धीरे-धीरे ऐसा माहौल बनता जा रहा है कि जैसे इस एकसेपन का कोई विकल्प नहीं है. हम देश बदल सकते हैं, अपना काम-धंधा बदल सकते हैं, जीवनयापन के तरीके बदल सकते हैं, जीवन-शैली बदल सकते हैं पर एकसेपन की ओर बढ़ने से अपने को रोक-थाम नहीं सकते.
इस समय कल्पना-सृजन-विचार का लगभग ज़रूरी कर्तव्य हमें आश्वस्त करना है कि हम अपनी बहुलता बचा सकते हैं; कि हम विकल्पों को सोच और रूपायित कर सकते हैं, कि हमारे पास ऐसे बौद्धिक-सर्जनात्मक उपकरण हो सकते हैं जो हमें प्रतिरोध के लिए सन्नद्ध करें. अगर राजनीति, टेक्नोलॉजी में तरह-तरह के नवाचार हो रहे हैं तो साहित्य और विचार में, कलाओं और संस्थागत ढांचों में नई कल्पना क्यों जन्म नहीं ले सकती, फूल-फल सकती? ऐसी कल्पना का नवाचार सिर्फ़ आज और अभी पर एकाग्र नहीं होगा, उसे स्मृति का भी पुनराविष्कार करना होगा.
घोषणापत्र
उन्हें मैनिफेस्टो कहा जाता है जबकि हम उन्हें घोषणापत्र कहते हैं. सबसे प्रसिद्ध घोषणापत्र ‘कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो’ है जो मूलतः एक राजनीतिक दस्तावेज़ है पर मार्क्स और एंगेल्स ने इसे बहुत सुंदर काव्यात्मक गद्य में लिखा था. जिन कृतियों के संसार भर की लगभग सभी लिखित भाषाओं में अनुवाद हुए उनमें यह मैनिफेस्टो शामिल है. अपने व्यापक विश्वव्यापी प्रभाव में भी यह बहुत सफल दस्तावेज़ माना जाता है.
राजनीतिक घोषणापत्रों की बाद में अलग लंबी परंपरा बन गई. मैनिफेस्टो की विधा साहित्य और कलाओं में प्रवेश कर गई और उसे अपनी कल्पना-शक्ति के कारण ‘पहली महान आधुनिकवादी कलाकृति’ तक कहा जाने लगा. पिछले सौ बरसों से ऐसे सौ घोषणापत्र चुनकर एलेक्स डनचेव से संपादित किया है और पेंगुइन बुक्स ने हाल ही में ‘100 आर्टिस्ट्स मैनिफेस्टोज’ शीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित किया है. भूमिका में यह भी याद किया गया है कि स्वयं मार्क्स ‘क्रांति की कविता’ में गहरी दिलचस्पी रखते थे.
प्रायः सभी मैनिफेस्टो अपनी समवर्ती स्थिति और प्रचलन की तीख़ी आलोचना करते आए हैं. उनमें सिर्फ़ साहित्य और कलाओं में नए विकल्प नहीं सुझाये जाते बल्कि अकसर इस पर भी इसरार होता है कि ये नए विकल्प जीवन-शैली के भी हैं. सभी का स्व प्रखर रूप से हस्तक्षेपकारी होता आया है और उनमें परंपरा, इतिहास, आर्थिक-राजनीतिक शक्तियों, वर्चस्वशाली संस्कृति पर तीखे प्रहार भी होते हैं.
भविष्यवादी कला का 1910 में जो मैनिफेस्टो प्रकाशित हुआ था उसमें कहा गया कि उसके कलाकार ‘एक नई संवेदनशीलता के आदिवासी हैं’; ‘अनुकरण के सभी रूपों की निंदा की जानी चाहिए और मौलिकता का महिमामंडन’. ‘यह ज़रूरी है कि सुरुचि और सुसंगति को किनारे किया जाये तभी रेम्ब्राण्ट, गोया और रोदां की कलाकृतियों को ध्वस्त करना आसान होगा’.
फ्रांस में कवि-चित्रका एपोलोनेयर ने एक निबंध लिखा जो अवां गार्द का मैनिफेस्टो बन गया. उसमें कहा गया कि आधुनिक कला उन सभी उपायों को ख़ारिज करती है जो अतीत के महान् कलाकारों ने आनंदित करने के लिए काम में लिए जैसे मानव आकृति का परिपूर्ण प्रतिनिधित्व, विलासी दिगंबराएं, सावधानी से बनाए गए ब्यौरे. सादृश्य का कोई महत्व अब नहीं रह गया है: विषय का कोई महत्व नहीं है. ‘वह शुद्ध कला होगी जैसे संगीत शुद्ध साहित्य है’. यह भी कि ‘पिकासो किसी वस्तु का वैसे ही अध्ययन करते हैं जैसे एक डाक्टर शव की चीर-फाड़ करता है’.
1913 में ‘वासना का भविष्यवादी मैनिफेस्टो’ ज़ारी हुआ. उसमें घोषणा की गई कि ‘कला और युद्ध मांसलता की महान् अभिव्यक्ति हैं और वासना उसका पुष्प है.’ कामना को हिकारत की नज़र से देखने पर चिंता करते हुए यह चाहा गया कि ‘हमें वासना का पूरे चैतन्य से सामना करना चाहिए और उसे कलाकृति में रूपांतरित करना चाहिए. हमें वासना से उसे विकृत करने वाली सब भावुकताओं को हटा देना चाहिए.’
1913 में ही मास्को में भविष्यवादियों का एक और मैनिफेस्टो प्रकाशित हुआ. उसमें कहा गया कि ‘कला जीवन के लिए है और उससे भी अधिक जीवन कला के लिए है’. 1914 में लिखे लेकिन 1982 में प्रकाशित ‘फेमिनिस्ट मैनिफेस्टो’ में कहा गया कि ‘पुरुष और स्त्री शत्रु हैं जिनकी शत्रुता परजीवी की शोषित के प्रति और शोषित की परजीवी के प्रति शत्रुता है.’ उसमें इस भ्रम को भी नष्ट करने का आह्वान किया गया कि स्त्री का प्रेमिका और माता में विभाजन अनिवार्य है.
1946 के ‘इनवेंशनिस्ट मैनिफेस्टो’ में प्रतिनिधिमूलक कला में अंतर्भूत कई भ्रम बताए गए जिन्हें स्पेस, अभिव्यक्ति, सचाई, गति के भ्रम कहा गया. यह आग्रह किया गया कि कला को किसी तरह की निष्क्रियता का बचाव नहीं करना चाहिए, उल्टे उसे मनुष्य अपने समाज में सक्रिय हो इसमें सहायक होना चाहिए. आत्मनाशी (ऑटो-डिस्ट्रक्टिव आर्ट) के तीन मैनिफेस्टो 1959-60-61 में प्रकाशित हुए. इनमें कला को सार्वजनिक कला बताते हुए इसरार किया गया कि औद्योगिक समाजों में स्थायी कला न हो सकती है, न होना चाहिए. हमें कला की, जैसे कि जीवन की भंगुरता को ध्यान में लेना चाहिए. यह दावा किया गया कि आत्मनाशी कला परिवर्तन, प्रगति और गतिशीलता की कला है: वह पूंजीवादी मूल्यों और आणविक नाश वृत्ति पर प्रहार है.
इस संचयन में शामिल आख़िरी मैनिफेस्टो 2008 में प्रकाशित ‘मैनिफेस्टो टुवर्ड्स ए ह्यूमनिज़्म’ है. अपने स्वर में काफ़ी आक्रामक, उसमें कहा गया है कि मानवीय इतिहास में पहली बार संसार की आधी आबादी शहरों में रह रही है. पर बजाय इस ऐतिहासिक नागर क्षण पर खुशी मनाने के, लगातार हाथ मले जा रहे हैं. वह अपने को नई संकीर्णता, निश्चेष्ट स्थापत्य औरर आत्म-पर्याप्त गांवों के विरुद्ध अवस्थित करता है. उसमें स्थापत्य की सरहदें बढ़ाने का जानने का जोखिम, प्रयत्न करने का जोखिम और विफल होने का जोखिम उठाने का आह्वान है. ऐसा स्थापत्य विकसित करने का है जो भूमंडल पर अपनी इच्छा लागू करे बजाय ऐसे स्थापत्य के जो धरती पर हौले से पांव धरे!
एक और मैनिफेस्टो में, जिसे एक फ़िल्मकार ने तैयार किया, यह उम्मीद जताई गई है कि ‘वर्ष 4000 में न संगीत, न रंगमंच, न कला होंगे. सिर्फ़ ध्वनि, रंग, प्रकाश, स्पेस, समय और गति होंगे’. इसका कोई विस्तृत अध्ययन या विश्लेषण अभी तक मेरे ध्यान में नहीं आया है जो इन तमाम मैनिफेस्टो के प्रस्तावकों ने अपनी कलाओं में क्या अर्जित किया, कितना अपने आग्रहों को साकार किया और उनका कितना व्यापक प्रभाव पड़ा इन सबका आकलन करे. पर इतना तो समझ में आता है कि कला-परिदृश्य इन मैनिफेस्टों ने ख़ासा क्षुब्ध, आंदोलित और उत्तेजित बनाए रखा है.
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)