डॉक्टर मनमोहन सिंह से सीधी मुलाक़ात का एक मौक़ा मिला था. वह सुखद न था. लेकिन उससे उनके सोचने का तरीक़ा मालूम होता है. दिल्ली विश्वविद्यालय में 4 वर्षीय पाठ्यक्रम बिना व्यापक विचार विमर्श के, हड़बड़ी में लागू किया जा रहा था. हम अध्यापक उसका विरोध कर रहे थे. डॉक्टर सिंह के मंत्री उसका समर्थन कर रहे थे. हम उस परिवर्तन को रोकने के लिए कोशिश के क्रम में प्रधानमंत्री डॉक्टर सिंह से मिले.
हमारे प्रतिनिधिमंडल में अर्थशास्त्री पुलिन नायक भी थे. प्रधानमंत्री उन्हें देखते ही पहचान गए और उन्होंने स्नेह से उनका हाल चाल पूछा. प्रोफेसर कृष्ण कुमार ने उन्हें पाठ्यक्रम की समस्याओं से अवगत कराया. हम उनसे हस्तक्षेप की मांग कर रहे थे. एक सहकर्मी ने कहा कि हमने सुना है कि आप इस कार्यक्रम के पीछे हैं. डॉक्टर सिंह ने कहा कि वे इसके बारे में कुछ नहीं जानते और आख़िर वे एक स्वायत्त शिक्षा संस्थान के कार्य में क्यों और कैसे दखल दे सकते हैं. हमें शायद विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के पास जाना चाहिए.
आयोग के पतन की तब शुरुआत हो चुकी थी. आयोग के अध्यक्ष ने खुलेआम इस पाठ्यक्रम का समर्थन किया था. उसी अध्यक्ष ने सरकार बदलने के बाद इस पाठ्यक्रम के विरोध में बयान दिया. हमने प्रधानमंत्री को बतलाया कि आयोग का अध्यक्ष अब मनमोहन सिंह के स्तर का नहीं है. कभी वे भी उसके अध्यक्ष थे. प्रोफेसर यशपाल के बाद. हमने यह भी कहा कि प्रधानमंत्री के रूप में वे देश के नौजवानों के लिए ज़िम्मेदार हैं और उनकी शिक्षा के साथ खिलवाड़ की इजाज़त नहीं दे सकते. लेकिन मनमोहन सिंह इससे सहमत न थे कि वे दिल्ली विश्वविद्यालय के मामले में दख़ल दें. यह सिद्धांतत: ग़लत होता.
हम निराश और क्षुब्ध निकल आए. पाठ्यक्रम बहुत बुरा था. उसे नहीं लागू किया जाना चाहिए था. लेकिन मनमोहन सिंह एक सिद्धांत की रक्षा कर रहे थे. वह था विश्वविद्यालयों की स्वायत्तता का सिद्धांत. इसका वे कुछ नहीं कर सकते थे कि ख़ुद अध्यापक और अध्यक्ष या डीन अपनी स्वायत्तता कुलपति के हवाले कर दें और वह अपनी मनमानी कर सके.
कुलपति के एक बुरे फ़ैसले के बावजूद दख़ल देने से इनकार का महत्त्व तब समझा जा सकता है जब हम यह याद करें कि उनके बाद नई सरकार आते ही तत्कालीन शिक्षा मंत्री की एक डांट पर कुलपति ने यह पाठ्यक्रम वापस ले लिया. यूजीसी के उसी अध्यक्ष ने, जिसने इस पाठ्यक्रम की प्रशंसा और रक्षा की थी, पलट गए. इससे हमारे शिक्षित अभिजन की कायरता का ही पता चलता है. डॉक्टर सिंह जिस स्वायत्तता का उल्लंघन नहीं करना चाहते थे, हमने ख़ुद उसकी धज्जी उड़ा दी.
डॉक्टर मनमोहन सिंह से बहस की जा सकती थी और वे अपना विचार बदल भी सकते थे. शिक्षा के अधिकार संबंधी क़ानून को लेकर उनसे हुई बहस का एक क़िस्सा शिक्षाविद विनोद रैना और अनीता रामपाल ने सुनाया था. प्रधानमंत्री इस क़ानून के आर्थिक पक्ष को लेकर आश्वस्त न थे. योजना आयोग ने मोंटेक सिंह आहलूवालिया ने क़ानून की आत्मा ही मार डाली थी. विनोद और अनीता उनसे मिले. डॉक्टर सिंह ने कहा कि इसके लिए पैसा कहां से आएगा! क्षुब्ध होकर उन्होंने कहा: देश ऐसे चल नहीं सकता. देश का दिवाला पिट जाएगा. राज्य सरकारें लोगों को टीवी दे रही हैं! अनीता ने कहा कि लेकिन देश के आधे बच्चे अगर स्कूल से बाहर हों तब भी तो देश नहीं चल सकता.
डॉक्टर सिंह ने यह सुनकर उनसे तुरत कहा कि वे इस पर अपना नोट भेजें. और वह भेजा गया. क़ानून बना. आज भाजपा सरकार ने उसे लगभग अर्थहीन कर दिया है.
शिक्षा के अधिकार की तरह ही ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिकार, सूचना के अधिकार, खाद्य सुरक्षा अधिकार, वन अधिकार संबंधी क़ानून मनमोहन सिंह की सरकार के दौरान बने. इन क़ानूनों के लिए श्रेय सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली राष्ट्रीय सलाहकार समिति को दिया जाता है. वह ग़लत नहीं है लेकिन यह न भूलना चाहिए कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इन सारे प्रस्तावों को स्वीकार किया और उन्हें क़ानून बनवाने में पहल ली. उनके साथ काम करने वाले प्रत्येक व्यक्ति ने समानता के सिद्धांत के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को नोट किया है.
वे मानते थे कि उनकी आर्थिक नीति ही यह कर सकती है और इसे लेकर ख़ासा मतभेद है. लेकिन यह भी सच है कि उसके समानांतर कोई ठोस वैकल्पिक आर्थिक कार्यक्रम प्रस्तावित नहीं किया जा सका. यह सब मानते हैं कि उनकी नीतियों के कारण भारत में मध्य वर्ग का न सिर्फ़ आकार बड़ा हुआ बल्कि उसका जीवन स्तर भी पहले के मुक़ाबले काफी ऊंचा उठ गया. यह भी सच है कि करोड़ों भारतीय ग़रीबी रेखा से ऊपर उठाए जा सके.
मनमोहन सिंह के कार्यकाल को इसके लिए भी नोट किया जाना चाहिए कि वह नीतियों के मामले में ख़ासी वैचारिक उत्तेजना और बहस मुबाहसे का दौर था. योजना आयोग इस बहसों का मंच बन गया था. उसके दरवाज़े सिविल समाज के लोगों के लिए खोल दिए गए थे और वे वहां मंत्रियों और नौकरशाहों से बहस कर सकते थे. हमने लेख के शुरू में शिक्षा के अधिकार वाले क़ानून की चर्चा की है. इस पर परस्पर विरोधी मत थे और वे सार्वजनिक स्तर पर ज़ाहिर किए जा रहे थे. यही दूसरे क़ानूनों के बारे में कहा जा सकता है.
यह समय राजकीय संस्थाओं की सक्रियता का भी था. राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, महिला आयोग, अल्पसंख्यक आयोग, बाल अधिकार संरक्षण आयोग: तक़रीबन सब राज्य को इन क्षेत्रों में उसकी ज़िम्मेदारी के प्रति लगातार सावधान कर रहे थे. ये राज्य के अनुचर नहीं थे जैसे आज बन गए हैं.
स्कूली शिक्षा के लिहाज़ से उनका कार्यकाल अत्यंत उर्वर था. शिक्षा के अधिकार को स्वीकार करने के साथ स्कूली पाठ्यचर्या के निर्माण की नई पद्धति अपनाई गई. मांग की जा रही थी कि अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में पाठ्यचर्या और पाठ्यक्रम या किताबों पर जो भगवा रंग चढ़ा दिया गया था उसे उतारा जाए.
मनमोहन सिंह की सरकार इस प्रलोभन में नहीं पड़ी और उसने एनसीईआरटी को निर्देश दिया कि पाठ्यचर्या और किताबें बनाते वक्त नए शिक्षा शास्त्रीय शोध और सिद्धांतों को ध्यान में रखना चाहिए और 1992 -93 की यशपाल रिपोर्ट को संदर्भ बिंदु बनाना चाहिए जिसने सुझाव दिया था कि असल चिंता यह होनी चाहिए कि बच्चों के सीखने की प्रक्रिया सुचारु, सुगम हो और वह ख़ुद सीखने में दिलचस्पी ले सके. प्रत्येक विषय में, चाहे वह गणित हो या इतिहास या राजनीति शास्त्र या भूगोल, ध्यान विचारधारा का नहीं, इस बात का रखा जाना था कि बच्चे को समझ का चस्का कैसे लगे.
पाठ्यचर्या से किताब बनाने तक की यह यात्रा बहुत वैचारिक रूप से अत्यंत उत्तेजनापूर्ण थी. यह उच्च शिक्षा के लिहाज़ से भी परिवर्तनों से भरा हुआ दौर था. नए केंद्रीय विश्वविद्यालय, आईआईटी या आईआईएम की स्थापना की बात लोग भूल गए है क्योंकि अब हमारी महत्वाकांक्षा पुराने देवालयों की खोज की है, शिक्षालय की नहीं.
उसके साथ ही उच्च शिक्षा में आरक्षण को भी याद किया जाना चाहिए. उसने परिसरों को बदल दिया. लेकिन उसके विरुद्ध पुराने अभिजन ‘उच्च जातियों’ के प्रबल विरोध को भी नहीं भूलना चाहिए. इस विरोध ने बाद में भारतीय जनता पार्टी को सत्ता में लाने का रास्ता कितना साफ़ किया, इस पर विचार नहीं किया गया है. क्यों ‘उच्च जातियां’ वैचारिक रूप से कांग्रेस विरोधी हो गईं जबकि डॉक्टर सिंह की आर्थिक नीतियों का सबसे अधिक लाभ उन्होंने उठाया था, इसका विश्लेषण हमने नहीं किया है.
हमने इसके महत्त्व पर भी विचार नहीं किया है कि उन्होंने एक दलित को विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का अध्यक्ष बनाया. यही वक्त था जब विश्वविद्यालयों में सामजिक भेदभाव और लगाव के अध्ययन के लिए केंद्र स्थापित किए गए. अवश्य ही अर्जुन सिंह को इसका श्रेय मिलना चाहिए लेकिन वह यह सब डॉक्टर सिंह की स्वीकृति के कारण और उनके नेतृत्व में कर पाए.
मनमोहन सिंह एक ताकतवर कैबिनेट का नेतृत्व कर रहे थे. उनके मंत्री उनकी छाया न थे. उन सबके अपने व्यक्तित्व थे और स्वायत्तता भी. उनमें मतभेद भी थे. इससे नीति बनाने का तरीक़ा जनतांत्रिक हो पाया. अलग-अलग मत व्यक्ति किए गए और उन पर ध्यान दिया गया जिसके कारण नीतियां अधिक समावेशी बनीं. यहां तक कि एक ही सरकार में दो तरह के विचारों की टकराहट भी छिपाई नहीं जाती थी. एक ही उदाहरण इसके लिए पर्याप्त है.
डॉक्टर सिंह ने राष्ट्रीय ज्ञान आयोग बनाया. उसकी सिफ़ारिशों के बाद अर्जुन सिंह की पहलकदमी पर उच्च शिक्षा में परिवर्तन के लिए सुझाव देने को यशपाल समिति भी बनाई. इन दोनों के दृष्टिकोण में अंतर था. डॉक्टर सिंह संभवतः नीति निर्माण में दोनों प्रकार के नज़रियों का लाभ लेकर एक सर्वसम्मति बनाना चाहते थे. लेकिन 2009 के बाद कुछ हुआ कि यशपाल समिति की रिपोर्ट को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया. प्रोफेसर यशपाल अपनी मृत्यु तक इस बात को लेकर निराश रहे कि मनमोहन सिंह ने उन्हें इस समिति की रिपोर्ट पर चर्चा के लिए समय नहीं दिया और इसे लागू करने के लिए कदम नहीं उठाए.
यह क्या इसलिए हुआ था कि यह समिति अर्जुन सिंह की पहलकदमी पर बनी थी और 2009 के बाद वे शिक्षा मंत्री नहीं रह गए थे?
मनमोहन सिंह ने सच्चर समिति का गठन करके साहस का काम किया था. इस समिति ने मुसलमानों की आर्थिक, सामाजिक दशा का पता किया. इसने भारतीय राज्य और नीति तंत्र में पैठे मुसलमान विरोध को उजागर किया. समस्या संरचनात्मक थी और उसे उसी स्तर पर हाल किया जा सकता था. पहली बार मुसलमान को मात्र सांस्कृतिक नहीं, विकासात्मक इकाई के रूप में पहचाना जा रहा था. तलाक़, क़ब्रिस्तान, मस्जिद की जगह राज्य शिक्षा, रोज़गार, बैंक के कर्ज़े, सार्वजनिक सुविधाओं के संदर्भ में मुसलमान की स्थिति पर विचार किया जाना महत्त्वपूर्ण था.
मनमोहन सिंह ने अपनी शांत मुद्रा में लेकिन दृढ़ता से यह बात कही थी कि राज्य के संसाधनों पर पहला अधिकार वंचित समुदायों का है, अनुसूचित जाति, जनजाति, पिछड़ी जातियों और मुसलमानों का. यह कहना भारत में राजनीतिक रूप से जोखिम भरा काम था. मनमोहन सिंह ने यह जोखिम उठाया.
डॉक्टर मनमोहन सिंह के कार्यकाल में वैचारिक उत्तेजना तो थी लेकिन सामाजिक स्तर पर अपेक्षाकृत शांति थी. 2002 के गुजरात जनसंहार के बाद समाज में तापमान को नीचे लाना आवश्यक था और वह उनकी सरकार ने किया.
जब हम मनमोहन सिंह को याद करें तो याद रखा जाए कि प्रधानमंत्री के तौर पर उन्होंने राज्य-नीति को राजनीति से अलग नहीं किया. उन्होंने सोनिया गांधी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय सलाहकार समिति के साथ तालमेल बिठाया. इसका कारण था कि वे जानते थे कि पूंजीवाद को राज्य का बेलगाम इस्तेमाल नहीं करने दिया जा सकता वरना वह जनता को कुचल डालेगा.
और यह सिर्फ़ इस कारण नहीं कि वे एक गरीब परिवार में पैदा हुए थे बल्कि इसलिए कि उनकी शिक्षा ने उन्हें यह दृष्टि दी थी. यह बात कम मानीखेज नहीं है कि अपना बचाव करने के लिए उन्होंने कभी अपने बचपन की ग़रीबी और संघर्ष की दुहाई नहीं दी.
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं. )