‘रघुपति राघव राजाराम’ से चिढ़ने वाले ‘राम मोहम्मद सिंह’ से कुछ सीख सकेंगे?

बापू के नाम पर बने सभागार में उनका प्रिय भजन गाने से रोकने वालों को शायद भान नहीं कि 'ईश्वर अल्ला तेरो नाम-सबको सन्मति दे भगवान' की संस्कृति इस देश की परंपरा में रही है. 1940 के दशक में बस्ती में 'निजाई बोल आंदोलन' में सक्रिय किसान नेता राम मोहम्मद सिंह इसकी बानगी हैं.

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(इलस्ट्रेशन: परिप्लब चक्रबर्ती/द वायर)

गत 25 दिसंबर को भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के जन्म शताब्दी वर्ष और ‘महामना’ मदनमोहन मालवीय की जयंती पर भाजपाई जड़ों वाली अटल विचार परिषद व दिनकर न्यास समिति द्वारा पटना के बापू सभागार में कई वरिष्ठ भाजपा नेताओं की उपस्थिति में आयोजित कार्यक्रम में बापू के प्रिय भजन ‘रघुपति राघव राजा राम…’ के गायन को लेकर ऐसा हंगामा बरपा कि इसे गाने वाली लोकगायिका देवी को माफ़ी मांगनी पड़ी.

हंगामा करने वालों ने देवी का यह कथन स्वीकार करना भी गवारा नहीं किया कि भगवान तो एक ही हैं और उक्त भजन गाने के पीछे उनका उद्देश्य केवल भगवान राम को याद करना था.

यहां यह विश्वास करने के पर्याप्त कारण हैं कि हंगामा करने वालों के निकट इस भजन की ‘ईश्वर अल्ला तेरो नाम’ वाली पंक्ति ही सबसे ज्यादा नागवार थी और वे अपनी हनक दिखाकर जिन्हें वह पसंद थी, उन्हें दबाना व जताना चाहते थे कि जहां तक सन्मति की बात है, भगवान ने अभी भी उन्हें उससे उपकृत नहीं किया है.

इस हंगामे के बाद बहुत से लोगों को याद आया कि 1992 में 6 दिसंबर को अयोध्या में बाबरी मस्जिद के ध्वंस के कुछ दिनों बाद देश के विभिन्न अंचलों से वहां पहुंचे सर्वोदय कार्यकर्ताओं ने राम की पैड़ी पर जैसे ही यह भजन गाना शुरू किया, उग्र कारसेवकों ने उन्हें बेरहमी से पीट डाला था.

इन दोनों घटनाओं में बस इतना-सा फर्क है कि तब सर्वोदय कार्यकर्ता पिटकर भी सन्मति की बात करते रहे थे, जबकि लोकगायिका ने तुरत-फुरत माफी मांग लेने में ही भलाई समझी.

बहरहाल, इस सिलसिले में सबसे ज्यादा चिंता की बात यह है कि इस बहुभाषी-बहुधर्मी देश में जो बातें कभी समन्वय के रास्ते उसे एक सूत्र में बांधने और एक रखने के लिए बहुत सोच-समझकर प्रयोग में लाई गईं, अब उनके प्रति भी विद्वेष फैलाया और चरम पर पहुंचाया जा रहा है.

अन्यथा यह कैसे होता कि बापू के नाम पर बने सभागार में भी उनका प्रिय भजन गाने से रोक दिया जाए और रोकने वालों का इसलिए बाल तक बांका न हो कि हालात ‘सैंया भये कोतवाल, अब डर काहे का’ वाले हो गए हैं यानी वे सत्तासेवी हैं और उनके रहते बाड़ बार-बार खेत खाने के दुस्साहस करती रह सकती है.

खेत खा लेगी बाड़?

निस्संदेह, यह सत्ता-सेवन से पैदा हुआ उन्माद ही है, जो उन्हें न इस देश को समझने देता है, न इसके उदार व उदात्त मूल्यों और परंपराओं को. इसके उस सांस्कृतिक ताने-बाने को तो कतई नहीं समझने देता, जिसने लंबे इतिहास में उसे ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा’ गाने तक पहुंचाया है.

फिर वे भला यह भी क्योंकर समझने लगे कि ‘ईश्वर अल्ला तेरो नाम’ की परंपरा अकेले महात्मा गांधी की पुष्ट की हुई नहीं है. संत कवियों के साहित्य में तो यह इस तरह समाहित है कि उसे उससे अलग करना गुल से लिपटी हुई तितली को गुल से अलग करना है.

और जहां तक इस परंपरा की स्वीकृति की बात है, वह इतनी व्यापक व अमोघ है कि ऐसे हंगामों से सनसनीखेज हेडलाइनें और वीडियो कितने भी बनाए जा सकते हों, उसे उखाड़ा या किसी और संस्कृति से विस्थापित तो किसी हाल में नहीं किया जा सकता.

प्रसंगवश, गहराई तक समाई हुई इस परंपरा की जड़ों की एक अद्भुत मिसाल किसानों द्वारा अपनी जोत की भूमि का स्वामित्व पाने के लिए किए गए उस ‘निजाई बोल आंदोलन’ में भी बनी थी, जो बीती शताब्दी के चौथे-पांचवें दशक में उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में खासा जोर पकड़ गया था.

तब धार्मिक व सांप्रदायिक आधार पर विभाजित वहां के किसानों के एक नेता ने उनको एक करने के लिए ‘ईश्वर अल्ला तेरो नाम’ की राह पर चलते हुए अपना नाम राम मोहम्मद सिंह रख लिया था. और उसे इतनी स्वीकृति मिली थी कि उसके माता-पिता द्वारा उसे दिया गया नाम किसी को याद नहीं रह गया था.

कभी दिल्ली विश्वविद्यालय के स्कूल आफ सोशल वर्क में प्रोफेसर रहे राजेन्द्र सिंह द्वारा किए गए एक अध्ययन (पीजेंट मूवमेंट इन यूपी: ए स्टडी इन पॉलिटिक्स आफ लैंड एंड लैंड कंट्रोल इन बस्ती डिस्ट्रिक्ट: 1801-1970) के अनुसार यह राम मोहम्मद सिंह बस्ती में किसानों द्वारा निजाई बोल आंदोलन शुरू करने के कुछ वर्षों बाद अचानक धूमकेतु की तरह सक्रिय हुए और पहली बार अक्टूबर, 1944 में व्यापक चर्चा में आए.

तब, जब उनके अनुयायी कोई पांच सौ सशस्त्र किसान लड़ाकों ने डेढ़ हजार के आसपास सामान्य किसान पुरुषों, महिलाओं व बच्चों के साथ एक राजपूत जमींदार की कोठी घेर ली. यह जमींदार कृषि भूमि पर उसे जोतने वालों के कब्जे और तालाबों के पानी से फसलों की निर्विघ्न सिंचाई के आड़े आ रहा था, जबकि उसके कारिंदे किसानों व मजदूरों से मारपीट व गाली-गलौज करते व मजदूरी करने वाली महिलाओं से बदतमीजी से पेश आते थे और उनके इस बर्ताव के खिलाफ कहीं कोई सुनवाई नहीं होती थी- ‘न दलील, न वकील, न अपील’ वाली स्थिति थी.

इससे किसान बिफर पड़े थे और उन्होंने दल-बल के साथ उसकी कोठी घेरकर नारे लगाने शुरू कर दिए थे. उनके नारे थे: अत्याचार नहीं चलेगा, जमीन (का मालिकाना न देने) का बदला जान से लेंगे और खून चूसने वाले को मिट्टी में मिला देंगे. हालांकि जमींदार ने गोली मारकर इन किसानों का नेतृत्व कर रहे एक किसान की हत्या करके उक्त घेराव को विफल कर दिया था, लेकिन इससे किसानों का ग़ुस्सा शांत होने के बजाय और भड़का ही था.

प्रो. सिंह के मुताबिक, राम मोहम्मद सिंह नेताजी सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिंद फौज के सैनिक थे, जो बर्मा (अब म्यांमार) में उसके बैनर पर कई युद्धों में लड़े थे और स्वदेश लौटे तो बस्ती में किसानों के आंदोलन में सक्रिय हो गए थे. उन्होंने वहां किसानों की एक क्रांतिकारी पार्टी भी बना ली थी.

उन्होंने देखा कि धार्मिक व सांप्रदायिक विभाजन किसानों की एकता में बाधक बन रहे हैं तो उन्होंने उन विभाजनों को खत्म करने के लिए अपने नाम में हिंदू भगवान राम के साथ इस्लाम के पैगंबर मोहम्मद का नाम भी जोड़ लिया. इससे उन्हें विभाजनों के खात्मे में भरपूर मदद मिली और वे कोई पांच सौ गांवों में किसानों का मजबूत संगठन खड़ा करने में सफल हो गए.

मंदिर से चलती थी क्रांतिकारी पार्टी

मजे की बात यह कि उनकी क्रांतिकारी पार्टी का कार्यालय एक मंदिर से संचालित होता था. वैसे ही, जैसे अयोध्या के कई मंदिर क्रांतिकारियों के आश्रय स्थल हुआ करते थे.

लेकिन दोनों स्थितियों में एक फर्क था. अयोध्या के साधु स्वयं क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग नहीं लेते थे, लेकिन बस्ती के इस मंदिर के साधु जरूरत के वक्त बिगुल बजाकर किसानों को मंदिर में बुलाते और उनकी बैठकों व रणनीतियों के निर्धारण में सहभागी होते थे.

आजादी के बाद 1950 में भानपुर के बहुचर्चित किसान विद्रोह के बाद, जिसमें किसानों ने वहां के राजपूत जमींदार परिवार के दो भाइयों की हत्या कर दी थी, एक साधु पकड़ा गया तो पुलिस द्वारा कथित रूप से उसके पास से बरामद एक डायरी में उन राजाओं व जमींदारों के नाम दर्ज थे, जिनका ‘क्रांतिकारी सफाया’ किया जाना था.

बहरहाल, किसी साधु को राम मोहम्मद सिंह के इस नाम से कोई एतराज़ नहीं था. किसानों के दूसरे स्थानीय संगठनों को भी नहीं और उनका राम मोहम्मद की पार्टी से गहरा समन्वय था. राष्ट्रीय स्तर पर अहिंसक आंदोलनों की पैरोकार और हिंसक कार्रवाइयों के समर्थन या पोषण से परहेज़ रखने वाली कांग्रेस के कई स्थानीय नेता भी उनके उठाए किसानों के मुद्दों को नैतिक समर्थन देते थे. मिसाल के तौर पर स्थानीय कांग्रेसी भी इसके हामी थे कि कृषि भूमि का स्वामित्व उसे जोतने वाले के पास होना चाहिए.

इससे पहले राजपूत जमींदार की कोठी के जिस घेराव का ज़िक्र कर आए हैं, उसकी योजना बनाने और उस पर अमल करने में कांग्रेस का एक ग्रामस्तर का कार्यकर्ता भी शामिल था, सवर्ण होने के बावजूद.

अलबत्ता, यह कहना कठिन था कि आंदोलित किसान किसी एक पार्टी या संगठन की रीति-नीति के प्रति पूरी तरह समर्पित हैं. उनके लिए हर हाल में उनके मुद्दे ही सर्वोपरि थे, इसलिए वे पलटी भी मारा करते थे, तेवर भी बदला करते थे और रणनीतियां भी.

भूमिगत होने के बाद

लेकिन बाद में राम मोहम्मद सिंह का क्या हुआ, ठीक से कुछ पता नहीं चलता. इस बाबत एक बात यह कही जाती है कि किसानों के अनेक एक्शनों (जिनमें दोनों पक्षों से कई जानें भी गई थी) के बाद पुलिस ने उनके खिलाफ गैर-जमानती धाराओं में अनेक मुकदमे तो दर्ज ही किए थे, हाथ धोकर उनके पीछे पड़ गई थी. हालांकि उनमें से किसी भी एक्शन में राम मोहम्मद सीधे लिप्त नहीं थे और पर्दे के पीछे रहकर उनका संचालन किया करते थे.

कहते हैं कि पुलिस एकदम से पीछे ही पड़ गई तो उसे छकाने के लिए राम मोहम्मद एक बार भूमिगत हुए तो सार्वजनिक तौर पर फिर कभी नहीं देखे गए.

लंबे अरसे बाद 1985 में 16 सितंबर को बस्ती के पड़ोसी फैजाबाद (अब अयोध्या) में ‘गुमनामी बाबा‘ की मौत हुई और कुछ लोग उनके आवास से नेताजी सुभाषचंद्र बोस से जुड़ी अनेक चीजें मिलने की बिना पर उन्हें नेताजी कहकर प्रचारित करने लगे तो एक संदेह यह भी व्यक्त किया गया था कि हो न हो, गुमनामी बाबा राम मोहम्मद सिंह ही रहे हों.

नेताजी के अनुयाई और आजाद हिंद फौज के सैनिक होने के नाते उनके पास नेताजी से जुड़ी चीजें होना बहुत स्वाभाविक था. लेकिन दोनों के बीच की कड़ियां जोड़ने का काम नहीं हो पाया और संदेह, संदेह ही बना रह गया.

लेकिन यह शायद उनका ही प्रभाव था कि 1970 में बस्ती में किसानों का नया ‘भूमि हथियाओ आंदोलन’ शुरू हुआ तो उसमें दलित व मुस्लिम किसान आगे-आगे रहे और दोनों ने परस्पर एकता के नारे लगाए.

लेकिन क्या पता, अब ‘रघुपति राघव राजा राम’ तक से चिढ़ने लग गए महानुभावों को कब इतनी सन्मति आएगी कि वे यह सब समझ सकेंगे? कहीं उन्होंने सब कुछ समझकर कुछ भी न समझने की कसम तो नहीं खा रखी?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)