मधु लिमये पक्के राष्ट्रप्रेमी और देशभक्त थे, जो सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ खड़े रहे

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी मधु लिमये ने अपने 50 वर्ष भी अधिक लंबे सार्वजनिक और राजनीतिक जीवन में अपने राजनीतिक सिद्धांतों को मज़बूती से पकड़े रखा और उनसे कभी कोई समझौता नहीं किया. वे द्विराष्ट्रवाद सिद्धांत के ख़िलाफ़ थे और हमेशा सांप्रदायिक मुस्लिम राजनीति की मुख़ालिफ़त की.

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मधु लिमये. (फोटो साभार: साधना प्रकाशन)

स्व.मधु लिमये एक पक्के राष्ट्रप्रेमी और सच्चे देशभक्त थे. मधु लिमये के प्रति मेरे मन में यह श्रद्धा उनकी भारतीय राष्ट्र की अवधारणा और उसे बचाये रखने के उनके अथक प्रयासों के वास्तविक अर्थों को लेकर है.

वर्ष 1993 में लिखे गए एक लेख में मधु लिमये कहते हैं कि

‘सदियों से भारतीयों में मजबूत और स्थायी राज्य की स्थापना द्वारा राष्ट्रीय एकता के महान आदर्श को प्राप्त करने और उसे बनाये रखने की प्रवृत्ति का अभाव रहा है. राज्य या एकीकृत राजनीतिक समाज के विचार को कभी भली-भांति समझा ही नहीं गया. भारतीयों की सोच का दायरा परिवार, जाति, उपजाति, गांव या स्थानीयता से आगे बिरले ही बढ़ा और इसी कारण 2,500 वर्षों के ज्ञात इतिहास में, 500 वर्षों को छोड़कर बाकी समय भारत हमेशा आपस में लड़ने-भिड़ने वाले बड़े, मध्यम और छोटे राज्यों में विभाजित रहा.’

मधु लिमये लिखते हैं कि ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने पहली बार राष्ट्रीय एकता की चेतना पैदा की और विदेशी साम्राज्यवादी नौकरशाही ढांचे को हटा कर जनता की इच्छा से चलने वाले राज्य से उसे प्रतिस्थापित किया.’

वे आगे लिखते हैं कि

‘आधुनिक भारतीय राज्य अपने जन्म से ही अव्यवस्था और अराजक शक्तियों से घिरा रहा, देश विभाजन के समय की स्थिति और पांच सौ से अधिक देशी रियासतों ने ब्रिटिश सत्ता के हटते ही संप्रभुसत्ता सम्पन्न बनने के जो सपने देखने शुरू कर दिए थे, इससे भारत राष्ट्र के टुकड़े-टुकड़े होने का खतरा पैदा हो गया था. लेकिन महात्मा गांधी की नैतिक शक्ति और देश भर में फैले कांग्रेस संगठन के जाल के कारण ही अराजक शक्तियों पर काबू पाया जा सका और एक प्रशासनिक तंत्र वाला लोकतांत्रिक संवैधानिक ढांचा तैयार किया गया.’

अंत में वह कहते है कि, ‘और इसी विरासत को ख़त्म किया जा रहा है’, उनका यही दर्द हमें उनकी राष्ट्रवादिता और देश प्रेम के प्रति उनके नजरिये को सोचने पर मजबूर कर देता है.

स्वतंत्रता संग्राम सेनानी मधु लिमये ने राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान क़रीब तीन वर्ष और गोवा मुक्ति आंदोलन में 19 माह की क़ैद काटी. उनके राजनीतिक जीवन पर स्वतंत्रता आंदोलन की विचारधारा की गहरी छाप थी. पुणे के साने गुरु जी के प्रभाव के कारण सांप्रदायिक राजनीति और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा से वे शुरू से ही असहमत थे. इसलिए अपने जीवन के अंतिम दिनों तक वे इसके ख़िलाफ़ जेहाद छेड़े रहे.

मधु लिमये ने लिखा है कि

‘संघ परिवार पांच एकताओं वाले हिंदू राष्ट्र के आदर्श का प्रचार करता है, जो मुख्यत: जातीय, धार्मिक, भौगोलिक, सांस्कृतिक और भाषाई हैं पर वह कभी हिंदुओं को देश से प्रेम करने वाला जिम्मेदार नागरिक नहीं बना पाया, वह केवल उनमें मुसलमान विरोधी भावनाओं को भड़काने में कामयाब रहा है.

एमएस गोलवलकर की किताब ‘वी आर अवर नेशनहुड डिफाइंड’ को उद्धृत करते हुए मधु लिमये ने लिखा कि ‘देश के गैर-हिंदुओं के बारे में उनकी राय थी कि वे विदेशी बन कर रहना बंद करें अन्यथा उन्हें इस देश में हिंदू जाति के पूर्णतः अधीन होकर रहना होगा. हम प्राचीन राष्ट्र हैं और हमें इस देश में रहने वाली विदेशी जातियों से वैसा ही व्यवहार करना चाहिए जैसा कि सभी प्राचीन राष्ट्र करते हैं.’

अपने 50 वर्ष भी अधिक लंबे सार्वजनिक और राजनीतिक जीवन में मधु लिमये ने अपने राजनीतिक सिद्धांतों को मजबूती से पकड़े रखा और उनसे कभी कोई समझौता नहीं किया. वे मुस्लिम लीग के द्विराष्ट्रवाद सिद्धांत के खिलाफ भी थे और उन्होंने हमेशा सांप्रदायिक मुस्लिम राजनीति की मुख़ालिफ़त की. लेकिन वे भारत विभाजन के लिए मुस्लिम लीग के साथ-साथ कांग्रेस पार्टी को भी दोषी मानते थे. उनका अडिग विश्वास था कि यदि 1937 में हुए प्रांतीय असेंबलियों के चुनाव में उत्तर प्रदेश में चौधरी ख़लीक़ुज़्ज़मा को कांग्रेस अपना मुख्यमंत्री चुन लेती, तो पाकिस्तान की नींव और देश विभाजन के बीज नहीं पड़ते.

अपनी तीन खंडों वाली पुस्तक, ‘महात्मा गांधी एंड जवाहरलाल नेहरू ए हिस्टोरिकल पार्टनरशिप’ में मधु लिमये ने राष्ट्रीय आंदोलन, कांग्रेस और मुस्लिम लीग की राजनीति और उसमें ब्रिटिश हुकूमत की चालबाजियों का विस्तार से विश्लेषण किया और देश विभाजन के पूर्व की राजनीति की व्यापक समीक्षा की गई है, जो इतिहास के विद्यार्थियों के लिए एक बड़े संदर्भ का काम करेगी.

अपने नेता डाक्टर राममनोहर लोहिया की तरह मधु लिमये भी 1948 में समाजवादियों के कांग्रेस छोड़ने के पक्षधर नहीं थे. लेकिन जब जयप्रकाश नारायण ने कांग्रेस छोड़ने का निश्चय कर लिया, तो वे भी डाक्टर लोहिया के साथ कांग्रेस छोड़कर समाजवादी पार्टी में शामिल हो गए और सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी को आईना दिखाते हुए जिम्मेदार विपक्ष की भूमिका अदा की और राष्ट्रीय तथा अंतरराष्ट्रीय राजनीति में सरकार की क्या नीति हो इस पर संसद में और संसद के बाहर जनांदोलन करके तथा अखबारों में लेख लिखकर अपनी राय व्यक्त की.

बहुत कम लोगों को मालूम है कि भूतपूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी मधु लिमये को अपना राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी मानते हुए भी अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर उनसे सलाह मशविरा किया करती थीं और पूर्व सोवियत संघ के राष्ट्रपति ब्रेझनेव अपनी भारत यात्रा के दौरान किसी ग़ैर-सरकारी व्यक्ति से अगर मिले तो ये श्रेय भी मधु लिमये को ही जाता है.

जनता पार्टी शासन काल के दौरान अलीगढ़ और जमशेदपुर में बड़े सांप्रदायिक दंगे हुए थे. मधु लिमये ने सत्ताधारी पार्टी का सदस्य और महासचिव होने के बावजूद इन दंगों में शामिल अपने दल के सदस्यों की कड़ी निंदा की और जब उन्हें लगा कि संघ परिवार की राजनीति का मुकाबला वे जनता पार्टी में रहकर नहीं कर पायेंगे, तो फिर उन्होंने जनता पार्टी के टूटने को ‘ऐतिहासिक आवश्यकता’ बताया और जनता पार्टी (सेक्युलर) का गठन किया.

1982 में मधु लिमये ने अपने गिरते स्वास्थ्य को देखते हुए सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया और दिल्ली स्थित वेस्टर्न कोर्ट के एक छोटे से कमरे में रह कर लिखने-पढ़ने का काम शुरू किया. अख़बार और पत्रिकाओं में नियमित लेख लिखने के अलावा उन्होंने दो दर्जन से भी अधिक बड़ी किताबें लिखीं और प्रायः उनकी हर किताब में राष्ट्र से जूझने वाली समस्याओं और उसके निराकरण का विषय स्थायी होता था.

मधु लिमये संवैधानिक मामलों के मर्मज्ञ थे, और उन्हें भारतीय संविधान का ‘इनसाइक्लोपीडिया’ कहा जाता है. इसमें कोई संदेह भी नहीं है. मुझ जैसा अदना पत्रकार रिपोर्टिंग के दौरान जब कभी संवैधानिक मामलों में फंसता था, सीधे मधु जी को टेलीफ़ोन करता था और उसकी हर समस्या का समाधान मधु लिमये से पांच मिनट बात करने से ही हो जाता था.

मधु लिमये पत्रकारों के लिए किस प्रकार ट्रेनिंग कॉलेज का काम करते थे और किस प्रकार उन्हें जानकारी देते थे इसके लिए उदाहरण के तौर पर एक घटना का जिक्र करना चाहूंगा.

यह घटना मार्च-अप्रैल, 1992 की है. उस समय मैं ‘संडे ऑब्ज़र्वर’ में काम करता था और राज्यसभा के द्विवार्षिक चुनाव होने वाले थे. इन चुनावों में कई राजनीतिक दल ऐसे लोगों को उन राज्यों से चुनवा कर भेज रहे थे जहां के वे मूल निवासी नहीं थे. मुझे इस विषय पर एक रिपोर्ट लिखनी थी.

मैं सीधा मधु जी के पास पहुंचा और इस विषय पर उनकी राय जाननी चाही. मैंने उन्हें यह भी याद दिलाया कि 1978 में कांग्रेस पार्टी के प्रणब मुखर्जी के गुजरात से राज्यसभा में चुने जाने पर जनता पार्टी के लोगों ने कितना हंगामा किया था. इस पर मधु लिमये का जवाब था कि किसी व्यक्ति का दूसरे राज्य से राज्यसभा में जाना न केवल अनैतिक है बल्कि ग़ैरकानूनी भी है क्योंकि (उस समय) एक राज्य से दूसरे राज्य में जाकर मतदाता बनने की एक प्रक्रिया होती थी और यह हलफ़नामा दिया जाता है कि वह अब दूसरे राज्य का निवासी नहीं रहा.

मधु लिमये अगले दिन मुझे तिपहिया स्कूटर से संसद की लाइब्रेरी लेकर पहुंचे और मुझे 1952 से 1992 तक राज्यसभा सदस्य रहे लोगों का जीवन परिचय दिखाया कि कौन-कौन अपने मूल राज्य से न होकर दूसरे राज्य से राज्यसभा का सदस्य बना. मधु लिमये ने कहा कि इस अपराध से भारत की कोई पार्टी मुक्त नहीं है.

मधु लिमये को अंतिम बार भाषण देते हुए मैंने जनवरी 1990 में देखा था. अवसर था दिसंबर 1989 के लोकसभा और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के फ़ैज़ाबाद लोकसभा और उसी के अंतर्गत आने वाली अयोध्या विधानसभा सीट पर भाकपा के मित्रसेन यादव और जनता दल के जयशंकर पांडेय का चुना जाना.

‘हिन्दुस्तानी बिरादरी’ नामक एक संगठन की ओर से इन दोनों लोगों को इसलिए सम्मानित किया गया था कि ये दोनों लोग उस स्थान पर सांप्रदायिक शक्तियों को चुनावों में मात देकर विजयी हुए थे, जिसे सांप्रदायिक शक्तियां अपना सबसे बड़ा गढ़ मानती थीं.

इस अवसर पर मधु लिमये ने कहा कि सांप्रदायिक शक्तियों के इरादों को नेस्तनाबूद करके ही इस देश की एकता और अखंडता को मजबूत रखा जा सकता है. उन्होंने अपने इसी भाषण में संघ परिवार से सवाल किया कि वह मुसलमानों के तुष्टिकरण होने का आरोप लगाता है. क्या इसकी एक भी मिसाल उसके पास है?

मधु लिमये ने सवाल किया कि क्या संघ परिवार बता सकता है कि मुसलमानों का कहां तुष्टीकरण हुआ है? क्या वे सामाजिक रूप से ऊपर उठ गए हैं? क्या शैक्षिक रूप से ऊपर उठ गए हैं या आर्थिक रूप से मजबूत हो गए हैं? और यदि ऐसा नहीं है तो फिर यह झूठा ढिंढोरा पीटना बंद करना चाहिए.

सन 2005 में सच्चर कमेटी की रिपोर्ट संसद में पेश हो जाने के बाद अब आधिकारिक रूप से उस बात की पुष्टि हो गई है कि जो मधु लिमये कह रहे थे वह सही था. एक सच्चे राष्ट्र प्रेमी स्वर्गीय मधु लिमये को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि!

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और इन दिनों देश में समाजवादी आंदोलन के इतिहास का दस्तावेजीकरण कर रहे हैं.)