कोई अड़तालीस साल पहले की बात है. 1975 में अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष की धूमधाम के अगले बरस यानी 1976 की. ‘महिलाओं के लिए संयुक्त राष्ट्र का दशक’ शुरू ही हुआ था, जब भारत की बांग्ला कथाकार व कवयित्री आशापूर्णा देवी (जिनकी 8 जनवरी को जयंती है) को प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कार दिया गया और वे उसे प्राप्त करने वाली देश की पहली महिला साहित्यकार बनीं.
उनके द्वारा 1964 में ‘अबला जीवन’ के दुखों व सुखों को आधार बनाकर लिखे गए उपन्यास ‘प्रोथोम प्रोतिश्रुति’ (प्रथम प्रतिश्रुति यानी पहला वादा) के लिए उन्हें इस साल यह पुरस्कार तो मिला ही, इसी साल उन्हें पद्मश्री से भी सम्मानित किया गया तो कई लोगों को सोने में सुहागा जैसा महसूस हुआ. फिर तो उनकी जैसे धूम ही मच गई.
औपचारिक शिक्षा से महरूम
लेकिन कोई समझे कि यह धूम उनके ज्ञानपीठ या पद्मश्री की ही बिना पर मची तो वह गलत होगा. इसके पीछे उनके अथक संघर्ष का रंग लाना तो था ही, अनवरत सृजन भी था. साफ कहें तो तमाम धार्मिक-सामाजिक कुरीतियों व रूढ़ियों में आपादमस्तक जकड़े कलकत्ता के एक बंगाली परिवार में जन्मी और उसकी नाना प्रकार की अझेल बंदिशों से लगातार दो चार होती औपचारिक शिक्षा से सर्वथा महरूम आशापूर्णा देवी ने विवाह के बाद घर-परिवार के सारे दायित्व निभाते हुए अपनी साहित्य साधना को जिस असीम धैर्य से इस मुकाम तक पहुंचाया था, उसकी कल्पना उस वक्त भी उतनी ही, कहना चाहिए, उससे ज्यादा कठिन थी, जितनी आज है.
हां, आशापूर्णा देवी ने अपने निरंतर संघर्ष से न सिर्फ यह करिश्मा कर दिखाया, बल्कि तत्कालीन सामाजिक बंधनों में फंसकर अकुला रही महिलाओं की सबसे मुखर आवाज बनकर उभरीं और बंकिमचंद्र, रवींद्रनाथ टैगोर व शरत् चंद के बाद के युग की बांग्ला की अग्रणी साहित्यकार मानी जाने लगीं तो कई विश्वविद्यालयों में उन्हें पुरस्कार व डी. लिट. की उपाधियां वगैरह प्रदान करने की होड़-सी लग गई.
विश्वभारती विश्वविद्यालय ने 1989 में उनको ‘देशिकोत्तम से सम्मानित किया तो 1994 में साहित्य अकादमी ने साहित्य अकादमी फेलोशिप के रूप में अपना सर्वोच्च सम्मान दिया.
और चूंकि आशापूर्णा देवी इस कारनामे के बाद वहीं ठिठकी नहीं रह गई थीं, जल्दी ही वे न हिंदी संसार के लिए अनजान रह गईं, न दूसरी भारतीय भाषाओं के पाठकों के लिए. आज की तारीख में उनकी ज्यादातर कृतियां प्रायः सारी भारतीय भाषाओं में अनूदित होकर उपलब्ध हैं और उन्हें बांग्ला साहित्य की जेन ऑस्टिन माना जाता है.
यह भी कहा जाता है कि उनका करिश्मा जितना उनके सृजन में है, उतना ही उनके संघर्ष में भी. इस बात में कि कथाकार व कवयित्री के रूप में अपनी पहचान की दुर्धर्ष इच्छाशक्ति के साथ पूरा न्याय करती हुई वे एक कोमलहृदया पारंपरिक पारिवारिक महिला भी बनी रहीं. उन्होंने अपने हृदय की स्त्रीसुलभ कोमलता को कोई आंच नहीं आने दी.
दादी का कहर
इसके बावजूद कि आठ जनवरी, 1909 को उत्तर कोलकाता (तब कल्कत्ता) के वृंदावन बसु लेन में जन्म लेने के बाद उन्होंने अपने माता-पिता व परिवार की रूढ़िग्रस्तता के जाये नाना त्रास तो भोगे ही, पुरानी मान्यताओं व रीति-रिवाजों की अंधसमर्थक दादी के पोच-सोच की भी बहुत बड़ी कीमत चुकाई.
दरअसल, दादी का इकबाल, जैसा कि तत्कालीन समाज व्यवस्था में बहुत स्वाभाविक था, उनके परिवार में इतना बुलंद था कि आशापूर्णा के माता-पिता अपनी बेटियों को रूढ़िवादी जकड़नों से निजात दिलाने के थोड़े-बहुत प्रयत्न करते भी तो दादी उनके आड़े आकर उनकी राह को पूरी तरह रोक देती थीं. तत्कालीन बंगाली समाज में बेटियों का स्कूल जाना तो वैसे भी वर्जित था, घर पर उनकी शिक्षा-दीक्षा की कोई व्यवस्था भी नहीं की जाती थी. घर पर जो ट्यूटर आते, वे भी सिर्फ घर के बेटों को पढ़ाया करते थे.
दादी को जानें कब से चली आ रही इस व्यवस्था में किसी भी तरह का कोई बदलाव बर्दाश्त नहीं था- रंच मात्र भी नहीं. लेकिन बच्ची आशापूर्णा को उस अबोध अवस्था में भी शिक्षा ग्रहण करने के प्रति जानें कहां से और कैसी अंतःप्रेरणा हासिल हो गई थी कि उसने उनकी वर्जनाओं से कतई हार नहीं मानी. उसके उस कमउम्र में उन्हें सीधी चुनौती दे सकने का तो खैर कोई सवाल ही नहीं था, लेकिन उसने देखा कि माता-पिता की मदद भी उसे स्कूल का मुंह नहीं दिखा सकेगी, तो चुपचाप घर में अपने भाइयों की पढ़ाई का अनुकरण करते हुए आगे बढ़ने का रास्ता चुन लिया.
जैसे-तैसे वर्णमाला पढ़ना, लिखना व उन वर्णों से बने शब्दों को समझना सीख गई तो दादी के विपरीत मां सरला सुंदरी का (जो कहते हैं कि दादी के विपरीत थोड़ी अपने वक्त के साथ थीं) पुस्तकों से लगाव इस बच्ची की सुविधा बन गया. उसमें और उसकी बहनों में कम उम्र में ही कहानियां वगैरह पढ़ने की अभिरुचि पैदा हो गई तो इसके पीछे मां सरला सुंदरी की प्रेरणाएं ही थीं.
चुपके से छपवाई पहली कविता
अलबत्ता, बाद में आशापूर्णा के पिता सपरिवार अन्यत्र चले गए, तो वहां के अपेक्षाकृत खुले माहौल में आशापूर्णा, उनकी मां और बहनों सबको थोड़ी चैन की सांस मयस्सर हुई.
लेकिन कहना कठिन है कि आशापूर्णा को उस कवि कर्म की प्रेरणा कैसे और कहां से मिली, जिसके तहत उन्होंने 13 साल की उम्र में ही ‘शिशु साथी’ नामक उस वक्त की बच्चों की मशहूर पत्रिका में प्रकाशित होने लायक कविता रच ली.
जानकारों के अनुसार, 1922 में उन्होंने अपनी ‘बाइरेर डाक’ शीर्षक कविता ‘शिशु साथी’ के संपादक राजकुमार चक्रवर्ती को सारे परिजनों से छुपाकर प्रकाशनार्थ भेजी तो कुछ दिनों बाद यह देख कर उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा कि चक्रवर्ती ने उसे तो छापा ही, उनसे कुछ और कविताएं व कहानियां लिखने व भेजने का अनुरोध किया. गनीमत थी कि इस सबका पता चलने पर किसी परिजन ने उनके कविताएं लिखने व छपवाने पर एतराज़ नहीं किया.
15 साल की होते-होते उनकी शादी कर दी गई तो अंदेशा था कि ससुराल की निरंतर बढ़ती जिम्मेदारियां उनके भीतर की साहित्यिक अभिरुचि और रचनात्मकता के कोमल तंतुओं को विनष्ट कर देंगी. लेकिन सौभाग्य से ऐसा नहीं हुआ और औपचारिक शिक्षा से सर्वथा वंचित होने के बावजूद वहां के अपेक्षाकृत अनुकूल वातावरण में वे कविकर्म के साथ कथालेखन के जरिये भी अपने अंदर व बाहर की दुनिया से जुड़ने और उसे जानने के अपने सपने को साकार कर पाईं.
अनवरत सृजन
फिर तो उनके लेखन ने गति पकड़ ली और उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा. सत्तर वर्ष तक अनवरत सृजनरत रहीं और महिलाओं के बहुविध शोषण व उन पर किये जा रहे अत्याचारों को परत-दर-परत उधेड़तीं, साथ ही समता पर आधारित नई सामाजिक व्यवस्था की जरूरत पर जोर देती रहीं. उनका पहला कहानी संग्रह ‘जल और जामुन’ 1940 में तो पहला उपन्यास ‘प्रेम ओ प्रयोजन’ 1944 में प्रकाशित हुआ.
अपने जीवन में उन्होंने कुल मिलाकर डेढ़ हजार लघु कथाएं और लगभग ढाई सौ पूर्णकाय और लघु उपन्यास लिखे. उनके 37 लघुकथा संग्रह और 62 बच्चों की पुस्तकें भी प्रकाशित हैं.
आलोचकों के अनुसार, वे बंकिम, टैगोर और शरत् के बाद के दौर की पहली ऐसी बांग्ला साहित्यकार हैं, जिन्होंने मध्यवर्गीय बंगाली समाज में महिलाओं के हाशियाकरण पर बेबाकी से कलम चलाई.
सात दशकों से ज्यादा के साहित्यिक जीवन में उनकी एक और बड़ी उपलब्धि अपनी जड़ों के प्रति ईमानदार रहने और सामाजिक अन्याय पर सवाल उठाने को माना जाता है. उनकी तीन कथाकृतियों प्रथम प्रतिश्रुति, सुवर्णलता और बकुलकथा को उनकी त्रयी के रूप में जाना जाता है और उनमें की गई महिलाओं की आकांक्षाओं, खुशियों और दुखों वगैरह की अभिव्यक्ति को उनकी लेखकीय सिद्धहस्तता का आईना.
क्या आश्चर्य कि 1995 में 13 जुलाई को 86 साल की अवस्था में उन्होंने कोलकाता में ही इस संसार को अलविदा कहा तो हमने महिलाओं की आजादी की एक ऐसी रहनुमा को खोया, जिसने रहनुमाई की जिम्मेदारी तो खूब निभाई, लेकिन अपने रहनुमा होने का एहसास कभी नहीं कराया.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)