‘आम तौर पर इस सबडिवीज़न के लोग कुशाग्र बुद्धि वाले हैं जिन्हें पढ़ाई लिखाई में विश्वास है. आधुनिक शिक्षा का प्रसार यहां बहुत दिनों पहले हो गया था. शिक्षा के साथ लोगों में शिष्टता आई, चतुराई आई और फिर चालाकी भी. आप पाएंगे कि अधिकतर लोग विनम्र और मृदुभाषी हैं और झुककर नमस्कार करते हैं. लेकिन कृपया यह न भूलें कि जो महाशय जितना अधिक झुककर नमस्कार करते हैं उनसे उतना ही अधिक सावधान रहने की आवश्यकता है.’
दो दिन पहले, 4 सितंबर 1991 को, मैंने मिदनापुर ज़िले के कॉनटाई सबडिवीज़न (महकुमा) के सबडिवीजनल ऑफिसर (एसडीओ जिसे बांग्ला में ‘महकुमा शासक’ कहते हैं) का पदभार ग्रहण किया था तथा मैं अपने पूर्व इस कुर्सी पर बैठने वालों के ‘नोट टू सक्सेसर’ पढ़ रहा था. उपरोक्त अभिमत एक पूर्ववर्ती अधिकारी ने व्यक्त किया था जो अब राज्य सरकार में एक महत्वपूर्ण पद पर आसीन थे.
‘नोट टू सक्सेसर’ एक पुराना प्रशासनिक चलन था जो शायद अब लुप्त हो गया है. स्थानांतरण के पूर्व पदस्थ एसडीओ या ज़िला मजिस्ट्रेट अपनी अभिज्ञता के आधार पर उस महकुमा अथवा ज़िले के बारे में सारभूत जानकारी, आधिकारिक कार्यों की स्थिति तथा प्राथमिकताओं, एवं सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में सक्रिय रिवाज़ों तथा व्यक्तित्वों के बारे में लिखित ब्योरा अपने उत्तराधिकारी को थमा जाते थे.
नए अधिकारी के लिए नई जगह और नए दायित्वों को जानने के लिए उनके दफ़्तर में ढेरों अधिसूचनाएं, आदेश पत्र, मासिक तथा वार्षिक रिपोर्ट, इत्यादि मौजूद रहती हैं, मगर उनसे सरकारी व्यवस्था और कार्यकलापों के बारे में ही जाना जा सकता है. ज़िला प्रशिक्षण के दौरान प्रशासनिक सेवा के नव नियुक्त अधिकारी इस व्यवस्था से परिचित हो जाते हैं. परंतु हर ज़िला, सबडिवीज़न और ब्लॉक अलग होता है, विशेषतः पश्चिम बंगाल जैसे राज्य में — जहां और राज्यों की तुलना में ज़िलों और सबडिवीज़नों का आकार बहुत बड़ा है.
और फिर क़रीब 2,200 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ बंगाल की खाड़ी पर स्थित यह महकुमा, जो कांथी के नाम से भी जाना जाता था, राज्य का सबसे बड़ा ग्रामीण सबडिवीज़न था. इसके 13 ब्लॉक और तीन म्युनिसिपाल्टी में लगभग 21 लाख लोग रहते थे. नई जगह की भौगोलिक विशेषताओं, ज्ञात इतिहास, सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक अवस्था, इत्यादि जैसे पहलुओं को जानना और समझना आवश्यक था क्योंकि यह सब मिलकर किसी भी स्थान की प्रशासनिक व्यवस्था का संदर्भ बनाते हैं जिसकी उपेक्षा कर के प्रशासन का सुगम परिचालन असम्भव है.
पैंतीस वर्ष पूर्व, इंटरनेट युग के आगमन से पहले, इन सारे विषयों का बहुमूल्य स्रोत था ज़िला गैज़ेटीयर जिसमें एकत्रित मौलिक जानकारी एक-डेढ़ सौ वर्ष पहले लिखे जाने के बावजूद तब भी काफ़ी हद तक प्रासंगिक थी और अब भी है. इसी कड़ी में ‘नोट टू सक्सेसर’ नए अधिकारी के लिए सार्थक और उपयोगी सिद्ध होते थे चूंकि उनमें प्रशासनिक दृष्टिकोण से ज़िले या सबडिवीज़न के समकालीन स्थिति का वर्णन तथा संक्षिप्त विश्लेषण हुआ करता था. परंतु नए स्थान को जानने के लिए इन सारे दस्तावेज़ों से अधिक प्रभावशाली साधन है लोगों से मिलना, उनसे बातें करना, और उनकी बातें सुनना.
पहले दो सप्ताह सबडिवीज़न के प्रशासनिक अधिकारियों, पंचायत समितियों के सभापतियों तथा अन्य राजनीतिक प्रतिनिधियों से मिलने में तथा अपने दफ़्तर के सहकर्मियों से मिलने और उन्हें जानने में बीत गए. प्रशासनिक अधिकारियों और कर्मियों के दृष्टिकोण, कार्य प्रणाली, तथा लोगों के प्रति संवेदनशीलता में अंतर कम और समानता अधिक दिखी. भिन्नता थी तो राजनीतिक एवं सामाजिक क्षेत्रों के नेताओं में— उनके नज़रिये में, उनके किरदार और व्यक्तित्व में, और इन सभी ने कांथी के बारे में बहुत कुछ बताया.
इनमें सबसे रोचक व्यक्तित्व था कॉनटाई नगर पालिका के तत्कालीन चेयरमैन का जो कि राज्य के विपक्षी दल के थे. उनके पास स्थानीय जानकारी तथा कहानियों का भंडार तो था ही, वह प्रशासन की मदद के लिए भी सदैव प्रस्तुत रहते थे, परंतु, जैसा स्वाभाविक है, अपने राजनीतिक लाभ के प्रति भी वे हमेशा अति सजग रहते थे. पैनी बुद्धि से लैस, वाक चतुर, चपल, प्रभावशाली एवं जन कौशल में माहिर चैयरमैन महाशय जैसा मंझा हुआ राजनीतिज्ञ मैंने न तो तब तक देखा था, न अब तक देखा है. कोई ताज्जुब नहीं कि बीस वर्ष के अंदर वह केंद्रीय सरकार में मंत्री बन चुके थे.
उन्हीं के दल के एक और नेता, कांथी विधानसभा क्षेत्र के विधायक, अत्यंत ही मृदुभाषी और सज्जन व्यक्ति थे. उन्होंने भी महकुमे के बारे में मेरे साथ बहुत कुछ साझा किया, परंतु अगले विधानसभा चुनाव में वे चुनावी अखाड़े से बाहर हो गए और फिर बाहर ही रहे. शासक दल के कुछ नेताओं से भी भेंट हुई परंतु उन्हें मुझे जानकारी देने में रुचि कम थी और यह जताने में कहीं अधिक कि वे शासक दल के नेता हैं.
कांथी में मुझे सबसे प्रभावी व्यक्तित्व लगा दो गांधीवादी वृद्धों का जिन्होंने स्वतंत्रता की लड़ाई में हिस्सा लिया था. यह आश्चर्य की बात नहीं थी कि यहां मुझे गांधी जी का पूरी तरह अनुसरण करने वाले व्यक्तियों से मिलने का सुअवसर मिला. दरअसल, कांथी का गांधी तथा स्वतंत्रता संग्राम से गहरा संबंध है.
सन 1925 में गांधी जी राजेंद्र प्रसाद तथा मथुरा प्रसाद के साथ कांथी आए थे और उन्होंने कई जगह जनसभाएं कर यहां के लोगों को आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लेने के लिए प्रेरित किया था. कांथी में जन्मे मिदनापुर के विख्यात नेता बिरेंद्रनाथ शास्मल, जिन्हें अब भी ‘देशप्राण’ के नाम से जाना जाता है, गांधी के अनुयायी थे तथा अहिंसा के उनके संदेश को इस ज़िले की जनता के बीच प्रसारित तथा स्थापित करने में सबसे आगे रहे.
जिन दो वयोवृद्ध स्वतंत्रता सेनानियों से मैं मिला, उनकी उम्र उस समय नब्बे वर्ष को पार कर चुकी थी किंतु दोनों ही स्वस्थ तथा सक्रिय थे. इन श्रद्धेय व्यक्तियों का जीवन सादगी तथा ‘परहित सरिस धर्म नहिं भाई’ का उदाहरण था. वह सिर्फ़ चरखा कातने और ख़ाली पैर चलने में ही विश्वास नहीं करते थे परंतु अब भी समाज सेवा में रत थे. उनमें से एक ने मुझे कांथी के बारे में एक दिलचस्प क़िस्सा सुनाया था.
समुद्र दर्शन के लिए कॉनटाई शहर से अगर आप धान के खेतों के मध्य दीघा की ओर बढ़ते हैं, तो क़रीब बारह किलोमीटर के बाद आपको पीछाबोनी ग्राम मिलेगा. पिछली शताब्दी के दूसरे दशक के अंत तक इस गांव का नाम चंदनपुर था. गांधी जी के नमक सत्याग्रह और उससे जनित आंदोलन में पूरे ज़िले के साथ इस ग्राम के लोगों ने भी ज़ोर-शोर से हिस्सा लिया और नमक बनाकर नमक क़ानून का खुलेआम उल्लंघन किया. अंग्रेज़ प्रशासन ने इसे रोकने का पूरा प्रयास किया, पुलिस ने आंदोलनकारियों पर लाठियां बरसाई, उन्हें गिरफ़्तार किया— पर लोग न माने.
जुल्म के प्रतिरोध में वहां के वासियों ने दृढ़ संकल्प का एक शक्तिशाली नारा फहराया जो चारों ओर छा गया और जिसने पूरे ज़िले में प्रचंड जोश का संचार किया. यह नारा था ‘पिछाबो नी’ यानी ‘पीछे नहीं हटेंगे.’ तभी से इस गांव का नाम पीछाबोनी पड़ गया.
(चन्दन सिन्हा पूर्व भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी, लेखक और अनुवादक हैं.)
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