‘मेन एट होम: घरेलू ज़िंदगी में मर्दों की हाज़िरी-गै़रहाज़िरी का लेखाजोखा

कभी-कभार | अशोक वाजपेयी: ज्ञानेंद्र पांडेय की ‘मेन एट होम’ पुरुषों की घरों में अनुपस्थिति के बारे में है. ज्ञानेंद्र बताते हैं कि दक्षिण एशियाई घर-परिवार के इतिहास में मर्द-जाति की गै़र-हाज़िरी अब भी कायम है. बच्‍चे जनने और पालन-पोषण को लेकर समाज की आम धारणा के चलते गृहस्‍थी आज तक औरत और उसके बच्‍चों की दुनिया मानी जाती है.

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ज्ञानेंद्र पांडेय की किताब. (साभार: Duke University Press)

ज्ञानेंद्र पांडेय जाने-माने इतिहासकार हैं जो इन दिनों अमेरिका के एक विश्‍वविद्यालय में पढ़ाते हैं. वे इतिहास को साधारण लोगों की जिंदगी में देखने-सोचने के लिए विख्‍यात हैं. उनकी नई पुस्‍तक ड्यूक यूनिवर्सिटी से आई है ‘मेन एट होम’. उसका उपशीर्षक है औपनिवेशिक और उत्तर-औपनिवेशिक भारत में आज़ादी की कल्‍पना. इस पुस्‍तक का हिंदी अनुवाद 2025 में प्रकाशित होने जा रहा है.

अभी तक उसका शीर्षक है ‘हिंदुस्‍तानी आदमी घर में’ और उपशीर्षक ‘आज़ादी के ‘और’ पहलू, ‘और’ इतिहास.’ ज्ञानेंद्र जी ने बताया कि हिंदी पुस्‍तक निरा अनुवाद नहीं है, उसमें कई परिवर्द्धन हो रहे हैं. प्रस्‍तावना में उन्‍होंने स्‍पष्‍ट किया है: ‘मर्द घर-परिवार का अजीब आवासी है- जो हाज़िर भी है, ग़ायब भी, मौजूद भी है, फ़रार भी. इस अध्‍ययन का सरोकार मर्दों की घरेलू ज़िंदगी में इसी हाज़िरी गै़रहाज़िरी- और उसके नतीजों से है.’

यह बहुत रोचक है कि पुस्‍तक में कुछ आदमियों-औरतों की आत्‍मकथाओं को तकरीबन स्‍वतंत्र पात्रों जैसे शामिल किया गया है. इन आत्‍मकथाकारों में महात्‍मा गांधी, राहुल सांकृत्‍यायन, प्रेमचन्‍द, राजेन्‍द्र प्रसाद, हरिवंश राय बच्‍चन, भीमराव आंबेडकर, वसन्‍त मून, नरेंद्र जाधव, जगजीवन राम, अख्‍़तर हुसैन रायपुरी, मिर्ज़ा अक‍बर, बेबी कांबले, अमर सिंह और ओमप्रकाश वाल्‍मीकि शामिल हैं.

पहले ही अध्‍याय के विभिन्‍न खंडों से पुस्‍तक में क्‍या है इसका कुछ अंदाज़ हो जाता है. उपशीर्षक हैं: ‘घर और बाहर ’, ‘दूसरा घर’, दूसरी दुनिया’, चरित्र: अमीरों का, और कम अमीरों का, ‘फ़र्क भगवान और इंसान में’, ‘बच्‍चों की परवरिश: उच्‍च वर्गों में, श्रमिक वर्गों में.’

ज्ञानेंद्र कहते हैं कि हिंदुस्तान के इतिहास में उन्‍नीसवीं सदी के अंत में बीसवीं सदी के मध्‍य तक उपनिवेशवाद- विरोधी समय था. इस दौरान दक्षिण एशिया में घर और परिवार से जुड़े विचारों में तेज़ी से बदलाव आए. वैसे तो औद्योगीकरण के प्रभाव में इससे मिलते-जुलते बदलाव दुनिया भर में हुए. पर जहां तक संदर्भ और प्रकट परिणाम का सवाल है, भारतीय उपमहाद्वीप में इन बदलावों का एक अलग इतिहास– और एक अलग, औपनिवेशिक और उत्तर-औपनिवेशिक पहचान है.

पारिवारिक उत्‍पीड़न पर काम हुआ है पर ज्ञानेंद्र के अनुसार ‘घर में भेदभाव और वंचन की तहों के बीच जीवनयापन के ठोस यथार्थ अनुभव पर अब तक ख़ास ध्‍यान नहीं दिया गया है. और सिर्फ़ हाशियों में कै़द औरतों, नौकरों, ग़रीब रिश्‍तेदारों के लिए ही नहीं, बल्कि घर पर राज करने वाले, पारिवारिक और राष्‍ट्रीय ‘गरिमा’ के स्‍वनियुक्‍त रक्षकों के लिए भी यह बात लागू होगी है.’

ज्ञानेंद्र यह नोट करते हैं कि दक्षिण एशियाई घर-परिवार के इतिहास में मर्द-जाति की गै़र-हाज़िरी अब भी कायम है. बच्‍चे जनने की जैविक प्रक्रिया और बच्‍चों के पालन-पोषण को लेकर समाज की जो आम धारणा है, उसके चलते गृहस्‍थी आज तक औरत और उसके बच्‍चों की दुनिया मानी जाती है.

घरेलू ज़िम्‍मेदारी की इस दक़ियानूसी समझ के फलस्‍वरूप आदमियों का घर-परिवार के परिसर में होना ही नामुमकिन सा मालूम पड़ता है. इसलिए, दाम्‍पत्य जीवन, मर्दानगी और पितृसत्ता पर लंबे विवादों के बावजूद, दक्षिण एशिया के गृहस्‍थ जीवन का इतिहास आज भी नारियों पर ही केंद्रित है. मर्द का मुखियापन, और उसकी छाया, यहां ज़रूर आती है. पर आदमी एक सोचने-चाहने-उलझने वाले, बुरा-भला मानने वाले, चिढ़ने-बिगड़ने डरनेवाले, ईर्ष्‍या करने वाले ,भावुक इंसान के रूप में क़तई नहीं दिखता.’

यह एक अनोखी पुस्‍तक है और हिन्‍दी में उसके जल्‍दी ही आने की हमें अधीर प्रतीक्षा करना चाहिए.

दो निधन

यह शुद्ध संयोग है कि डॉ. मनमोहन सिंह और एमटी वासुदेवन दोनों पर एक साथ लिखने का अवसर आया है क्‍योंकि दोनों का निधन कुछ ही दिनों के अंतर से हुआ है. एक अर्थशास्‍त्री और लगभग अनिच्‍छुक प्रधानमंत्री और दूसरा एक मलयालम लेखक और सांस्‍कृतिक प्रतीक पुरुष.

डॉ. सिंह से मेरी पहली मुलाक़ात तब हुई जब वे वित्त मंत्री थे और मैं संस्‍कृति विभाग में संयुक्‍त सचिव. हम जलियांवाला बाग़ में हुए नरसंहार की शताब्‍दी व्‍यापक रूप से मना रहे थे और उस सिलसिले में एक आयोजन नई दिल्‍ली के जवाहरलाल नेहरू स्‍टेडियम में था, जिसमें प्रधानमंत्री आने वाले थे. डॉ. सिंह थोड़ा पहले आ गए. मैंने उनका स्‍वागत करते हुए उन्‍हें बताया कि मैं कौन हूं. उन्‍होंने फ़ौरन पूछा कि आपने जो महान् संस्‍थान भोपाल में बनाया था उसके क्‍या हाल हैं. मैंने उन्‍हें भारत भवन की दुर्दशा के बारे में कुछ बताया.

खेद व्‍यक्‍त करते हुए उन्‍होंने पूछा कि संस्‍कृति विभाग हैदराबाद निज़ाम के जे़वरात दो सौ से अधिक करोड़ रुपये में उपलब्‍ध करने में क्‍यों इसरार कर रहा है? जब मैंने उन्‍हें बताया कि उस पर ज़ोर तो प्रधानमंत्री कार्यालय से है तो उन्‍होंने हंसते हुए कहा कि अच्‍छा, हैदराबाद संबंध.

दूसरी बार उनसे जब मिलने का सुयोग हुआ तो वे प्रधानमंत्री थे और शास्‍त्रीय संगीतकारों और नर्तकों का एक समूह उनसे संसद भवन के एक कक्ष में मिला था. मैं उस समूह का एक सदस्‍य था और ज्‍़यादातर बातचीत शिव कुमार शर्मा और मैंने ही की. हमारा आग्रह था कि आकाशवाणी पर शास्‍त्रीय संगीत का 24 घंटे का चैनल हो; गुरु-शिष्‍य परंपरा पोसने-बढ़ाने के लिए योजना बने; अभावग्रस्‍त कलाकारों के लिए पेंशन की योजना देश भर में लागू हो; वाद्ययंत्र बनाने वाले कारीगरों की वित्तीय सहायता देने का उपक्रम हो आदि. डॉ. सिंह ने सब बातें ध्‍यान, विनम्रता और सद्भाव के साथ सुनीं और उनकी प्रतिक्रिया अधिकतर अनुकूल थी.

तीसरी बार भेंट डॉ. सिंह के आधिकारिक निवास पर बुद्धिजीवी मित्र देवीप्रसाद त्रिपाठी के साथ हुई जो उन दिनों राज्‍यसभा के सदस्‍य थे. रवीन्‍द्रनाथ ठाकुर के नोबेल पुरस्‍कार पाने की शताब्‍दी होने के अवसर पर 1913 में एक विश्‍व कविता समारोह करने का लिखित प्रस्‍ताव मैंने दिया. उन्‍होंने पूछा कि कितना खर्च आएगा और मैंने अंदाज़न दो करोड़ रुपये बताया तो वे बोले यह राशि तो ज्‍़यादा नहीं है. दूसरा प्रस्‍ताव एक लेखक-कलाकार कल्‍याण कोष बनाने का था जिसे भी उन्‍होंने मान लिया.

चौथी बार उनसे मिलना 2013 के आसपास हुआ जब बुद्धिजीवी मित्र गणेश देवी गोवा के कुछ लेखकों के साथ डॉ. सिंह से मिल रहे थे और मुझे भी साथ ले गए थे. यह भेंट उनके निवास पर हुई और थोड़ी देर बाद राहुल गांधी भी शामिल हुए. ज्‍़यादातर बात देश और गोवा की राजनीति के बारे में हुई. डॉ. सिंह अपने स्‍वभाव के अनुकूल सौम्‍य चुप्‍पी साधे रहे.

एमटी वासुदेवन नायर के बारे में मैं जानता तो था पहले उनसे भेंट नहीं हुई थी. मैं तिरुवनंतपुरम अयप्‍पा पाणिक्‍कर स्‍मृति व्‍याख्‍यान देने गया था. व्‍याख्‍यान शाम को था तो दोपहर मैं फोन कर नायर जी ने मिलने उनके निवास पर गया. उन्‍हें व्‍याख्‍यान का पता था और उन्‍होंने बताया कि वह उनके निवास के पास ही है और हम लोग साथ ही वहां चलेंगे. वे मलयाली समाज में बेहद लोकप्रिय हैं इतना तो पता था लेकिन यह नहीं कि यह लो‍कप्रियता वैसी थी जैसे अन्‍य समाजों में फिल्मी हस्तियों की होती है.

जब हम शाम को टाउन हॉल की तरफ़ निकले तो उनसे हाथ मिलाने या उनके नजदीक जाकर अभिनंदन करने वालों की भीड़ सी लगती रही, सारे रास्‍ते. उनमें से ऐसे बहुत थे जिनको नायर जी नाम से भी जानते थे. एक बड़ा लेखक अपने समाज में कितना रसा-बसा होता है यह मुझे उस दिन पता चला. याद आया कि हिन्‍दी में ऐसी लोकप्रियता आख़िरी बार महादेवी को मिली. वे जब भारत भवन आईं थी तो इतनी भीड़ उमड़ी थी कि सारी सुरक्षा व्‍यवस्‍था चरमरा गई थी.

बहरहाल, शाम हमने नायर जी के साथ एक होटल में बितायी जहां उनका स्‍थायी कमरा था जिसमें बैठकर वे अपना लेखन करते थे. एक तरह का शान्‍त गोपनीय कक्ष. लोकप्रिय को भी एकांत चाहिए.

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)