यह कहना गलत होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गत दिनों अपने बहुप्रचारित ‘पहले पाडकास्ट इंटरव्यू’ में यह कहकर चौंका दिया कि वे कोई देवता (या भगवान) नहीं बल्कि मनुष्य हैं और उनसे भी गलतियां होती हैं.
दरअसल, अपने लगातार तीन प्रधानमंत्री कालों में अब तक वे देश और देशवासियों को इतनी बार चौंका चुके हैं कि उनके कथनों के चौंकाने वाले तत्व भी अब ज्यादा चौंका नहीं पाते.
अलबत्ता, इस पाडकास्ट इंटरव्यू में किए गए मनुष्य होने के उनके दावे ने गत वर्ष लोकसभा चुनाव के वक्त के एक इंटरव्यू में उनके द्वारा कही गई इस बात को एक बार फिर याद दिला दिया कि वे जैविक रूप से (यानी बायोलॉजिकली) पैदा ही नहीं हुए और भगवान ने उन्हें शक्ति के साथ भेजा है.
उस इंटरव्यू में उनके शब्द थे, ‘जब तक मेरी मां जीवित थीं, मुझे लगता था कि मैं जैविक रूप से पैदा हुआ हूं. उनके निधन के बाद, जब मैं अपने अनुभवों को देखता हूं, तो मुझे विश्वास होता है कि मुझे भगवान ने भेजा है. यह शक्ति मेरे शरीर से नहीं है. यह मुझे भगवान ने दी है.’
बहरहाल, इस याद ने जो सबसे बड़ा सवाल पैदा किया है, वह यह कि नान बायोलॉजिकल होने वाली उस बात के इतने दिनों बाद उन्हें अचानक यह बताने की जरूरत क्यों महसूस हुई कि वे (भी) मनुष्य ही हैं? क्या सिर्फ अपनी गलतियों का औचित्य सिद्ध करने के लिए?
अगर हां, तो क्या वाकई, जैसा कि उन्होंने कहा, जो मनुष्य है, वह गलतियां करता ही करता है? इसलिए कि वह बायोलॉजिकल है और देवता इसलिए कोई गलती नहीं करते कि वे नान बायोलॉजिकल हैं!
आपका जवाब जो भी हो, प्रधानमंत्री ने अपनी बात कुछ इस तरह कहीं, जैसे मनुष्य के लिए गलतियां करना न सिर्फ बहुत स्वाभाविक हो बल्कि उन्हें करने पर उसका एकाधिकार भी हो! लेकिन क्या वाकई ऐसा है?
ज़रा पीछे मुड़कर देखें तो चाणक्य नीति कहती है : येषां न विद्या न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः. ते मर्त्यलोके भुविभारभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ॥ (जिनके पास न विद्या है, न तप, न दान, न शील, न गुण और न धर्म, वे पृथ्वी पर भार और मनुष्य के रूप में घूमते मृगों की तरह हैं.)
गौरतलब है कि इन पंक्तियों में मनुष्य होने के लिए विद्या, तप, दान, शील, गुण व धर्म आदि को जरूरी बताते हुए गलतियों के उल्लेख तक से परहेज़ बरता गया है, जबकि प्रधानमंत्री की निगाह में वे मनुष्यसुलभ हैं.
इसी तरह देश के दूसरे राष्ट्रपति सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन (13 मई, 1962-13 मई, 1967) ने, जो अब तक के एकमात्र दार्शनिक राष्ट्रपति हैं, कहा था कभी कि मानव यानी मनुष्य का मानव होना उसकी जीत है, महामानव होना चमत्कार और दानव होना हार.
इस हार-जीत के क्रम में उन्होंने भी गलतियों से मनुष्य के रिश्ते पर बात नहीं ही की थी. न यह बताया था कि किसी देवता का मनुष्य बन जाना क्या है, उसकी जीत, हार या चमत्कार.
देवता बनाम मनुष्य
हो सकता है कि अथाह ज्ञान सागर में किन्हीं अन्य महानुभावों ने इस सिलसिले में गलतियों समेत सारे पहलुओं का सांगोपांग या सम्यक जिक्र कर रखा हो, लेकिन सामान्य मानवीय समझ को संतुष्ट करने के लिए यहां बटलोई के इतने ही चावलों को काफी मानकर किसी के नान बायोलॉजिकल (यानी देवता) होने की पात्रताओं को देवताओं की चर्चा के लिए छोड़ देते और इतना भर जानकर आगे बढ़ लेते हैं कि अतीत में कई प्रसंगों में कहा गया है कि नर (यानी मनुष्य) इतना नाचीज़ भी नहीं है और कई बार देवता भी नर तन पाने के लिए बेचैन हो उठते हैं.
हां, लालायित भी. भले ही डा. राधाकृष्णन की राय हो कि मनुष्य ने पंछियों की तरह उड़ना और मछलियों की तरह तैरना तो सीख लिया है, लेकिन उसे मनुष्य की तरह धरती पर चलना सीखना अभी भी बाकी है.
जहां तक पतनशील प्रवृत्तियों की बात है, वे मनुष्यों और देवताओं का लगभग एक-सा पीछा करतीं और उन्हें अपने पंक में लथपथ करती रहती हैं. देवराज इंद्र का सिंहासन हिलने लग जाने या उनके उससे च्युत हो जाने के तमाम किस्से यों ही नहीं, इन्हीं पतनशील प्रवृत्तियों की बिना पर बने हैं. हैरत की बात है कि इसके बावजूद प्रधानमंत्री ने मनुष्य के गलतियां करने की बात को कुछ ऐसे अंदाज में कहा जैसे देवता वैसा कुछ करते ही नहीं हैं! मनुष्य होने की दावेदारी करते हुए भी उन्होंने देवताओं के पक्ष में यह एकतरफा डिग्री क्यों दी है, वे ही जानें.
लेकिन दूसरे पहलू पर जाकर साफ कहें, तो देशवासियों को जितना गड़बड़झाला उनके द्वारा खुद को नान बायोलाजिकल घोषित करने में दिख रहा था, मनुष्य घोषित कर देने में उसमें रत्ती भर भी कमी नहीं दिखती.
इस अर्थ में तो उल्टे वह बढ़ ही गया है कि पहले नान बायोलॉजिकल और अब बायोलॉजिकल होने सम्बन्धी उनके कथनों से लगता है कि वे इच्छाधारी हो गए हैं और जब जैसा चाहें वैसा रूप और वेश धारण कर सकते हैं.
कौन कह सकता है कि उनके इस धारण कर सकने से देशवासियों का ज्यादा असुविधाजनक स्थितियों से सामना नहीं होगा? खासकर, जब कुछ ठिकाना ही नहीं कि कब वे देवता के रूप में बात करते-करते मनुष्य का रूप धर लेंगे और कब फिर से वापस देवता हो जाएंगे. ऐसे में देशवासी भला कैसे तय करेंगे कि उन्हें उनसे किस रूप में और कैसे बरतना है?
मयस्सर नहीं इंसां होना?
इससे जुड़ी हुई एक और विडंबना है. प्रधानमंत्री की जमात में विभाजनकारी मानसिकता से भरकर ‘आसान’ को ‘सरल’ करते रहने वाले अनेक ऐसे लोग हैं जो मनुष्य को मनु से उत्पन्न हुआ तो मानते हैं, आदम से नहीं. स्वाभाविक ही वे चाहते हैं कि देश का शासन उनके मनु महाराज द्वारा रचित स्मृति के आधार पर चलाया जाए. ये लोग मनुष्य और आदमी में भाषागत ही नहीं, तात्विक फर्क भी करते हैं, दोनों को एक नहीं मानते और मनुष्य के सिलसिले में आदमी या मनु के सिलसिले में आदम की चर्चा करने से चिढ़ जाते हैं.
लेकिन उस ‘मुश्किल’ से कभी नहीं गुजरते, जिससे कभी मिर्ज़ा ग़ालिब गुजरे और यह लिखने को मजबूर हुए थे : बस-कि दुश्वार है हर काम का आसां होना, आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना.
क्या पता, प्रधानमंत्री अपने मनुष्य रूप में इस मुश्किल से गुजरना चाहेंगे या नहीं. नहीं चाहेंगे तो कोई उन्हें कैसे बता सकेगा कि आदमी को जब तक इंसान बनना मयस्सर न हो, वह गलतियां करने की आड़ भले ही बन जाए (मनुष्य रूपधारी प्रधानमंत्री ने भी यह कहकर आड़ ही ली है कि वे मनुष्य हैं, गलतियां कर सकते हैं.) कोई काम आसान नहीं कर पाता.
कम से कम नज़ीर अकबराबादी को तो उसमें और शैतान में भी कोई फर्क नजर नहीं आता. ‘पादशाह’ और ‘मुफलिस-ओ-गदा’ में भी नहीं, यहां तक कि टुकड़े चबाने वाले और नेमत खाने वाले में भी नहीं. अपनी लोकप्रिय नज़्म ‘आदमीनामा’ में वे लिखते हैं:
दुनिया में पादशह है सो है वो भी आदमी,
और मुफ़्लिस-ओ-गदा है सो है वो भी आदमी.
ज़रदार-ए-बे-नवा है सो है वो भी आदमी,
नेमत जो खा रहा है सो है वो भी आदमी.
टुकड़े चबा रहा है सो है वो भी आदमी,
अब्दाल, क़ुतुब ओ ग़ौस वली-आदमी हुए.
मुंकिर भी आदमी हुए और कुफ़्र के भरे,
क्या क्या करिश्मे कश्फ़-ओ-करामात के लिए.
हत्ता कि अपने ज़ोहद-ओ-रियाज़त के ज़ोर से, भी
ख़ालिक़ से जा मिला है सो है वो भी आदमी.
फ़िरऔन ने किया था जो दावा ख़ुदाई का,
शद्दाद भी बहिश्त बना कर हुआ ख़ुदा
नमरूद भी ख़ुदा ही कहाता था बरमला
ये बात है समझने की आगे कहूँ मैं क्या
याँ तक जो हो चुका है सो है वो भी आदमी
कुल आदमी का हुस्न ओ क़ुबह में है याँ ज़ुहूर
शैताँ भी आदमी है जो करता है कि मक्र-ओ-ज़ोर
और हादी रहनुमा है सो है वो भी आदमी.
जाहिर है कि आदमी का कोई ठिकाना नहीं कि वह कब क्या से क्या हो जाए और क्या कर गुजरे. इसीलिए निदा फ़ाज़ली आगाह कर गए हैं कि किसी से इतने भर से खुश मत हो जाना कि उसने अपने को एलानिया आदमी कह दिया है, क्योंकि ऐसे आदमी कुछ कम फितरती नहीं होते.
हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी
कई बार वे अपने भीतर दस-बीस आदमियों को भी छिपा लेते हैं. इस तरह कि दरिया के इस किनारे और होते हैं और उस किनारे कुछ और. इसलिए उन्हें बार-बार देखने और परखने की जरूरत होती है :
दो चार गाम राह को हमवार देखना,
फिर हर क़दम पे इक नई दीवार देखना.
आँखों की रौशनी से है हर संग आईना,
हर आइने में ख़ुद को गुनहगार देखना.
हर आदमी में होते हैं दस बीस आदमी,
जिसको भी देखना हो कई बार देखना.
मैदाँ की हार जीत तो क़िस्मत की बात है,
टूटी है किसके हाथ में तलवार देखना.
दरिया के इस किनारे सितारे भी फूल भी,
दरिया चढ़ा हुआ हो तो उस पार देखना.
अच्छी नहीं है शहर के रस्तों से दोस्ती,
आँगन में फैल जाए न बाज़ार देखना.
जहां तक इस ‘देखा-देखी’ की बात है, इसके चक्कर में हमारे लिए अपने प्रधानमंत्री को समझना तब भी मुश्किल ही था, , जब उन्होंने अपने मनुष्य होने का ऐलान नहीं किया था. अब इस एलान के बाद इस लिहाज से और मुश्किल हो गया है कि इच्छानुसार रूप धारण कर सकने की उनकी शक्ति का, इच्छाधारी होने का, जब इच्छा हो बायोलॉजिकल हो जाने और जब उससे मन भर जाए, नानबायोलॉजिकल हो जाने का, फिलहाल कोई तोड़ उपलब्ध नहीं है. तिस पर यह बात भी अबूझ बनी हुई है कि उनका कब कौन-सा रूप धारण करने का मूड होगा.
देशवासी तो अभी इस रहस्य का भेदन भी नहीं कर पाए हैं कि आम तौर पर ज्यादा ही वाचाल दिखने वाले प्रधानमंत्री संकट की घड़ियों में चुप्पी साध कर देश को अकेला और असहाय क्यों छोड़ देते हैं? न महंगाई के मुद्दे पर मुखर हो पाते हैं, न मणिपुर के, न किसानों के और न बेरोजगारों के.
सोचिए जरा : ऐसे में प्रधानमंत्री की समर्थक जमातें और भक्त जल्दी ही उनके इच्छाधारी हो जाने को उनकी एक और बड़ी उपलब्धि की तरह प्रचारित करने लग जाएं-इसके मद्देनजर कि जब एक ओर प्रयागराज महाकुंभ के बहाने देश को आध्यात्मिकता के महासागर में डुबोने या ऊभ-चूभ कराने की कोशिशें की जा रही हैं, नान बायोलॉजिकल प्रधानमंत्री ने आश्चर्यजनक रूप से खुद को बायोलॉजिकल, माफ़ कीजिएगा, मनुष्य घोषित कर दिया है, तो?
आप अपनी सोचिए
अंत में एक निवेदन : इस ‘तो?’ का जवाब सोचते हुए जब आप ये पंक्तियां पढ़ रहे हैं, प्रधानमंत्री की सरकार अचानक उनके मनुष्य हो जाने को देश का नया साल शुभ करने की उनकी कोशिशों से जोड़ने लगे तो चकित मत होइएगा.
अयोध्या में अयोध्या महोत्सव की प्रस्तुतियों के फ़ूहड़ डांस तक जा पहुंचने और रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा की पहली वर्षगांठ के भव्य आयोजन में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के ‘दहाड़ने’ और प्रधानमंत्री द्वारा इस दिव्य व भव्य राममंदिर के विकसित भारत के संकल्प की सिद्धि में एक बड़ी प्रेरणा बनने का विश्वास जताने से जुड़ी ख़बरें पढ़ते हुए चिंता कीजिएगा कि नए साल में इतने गड़बड़झालों के बीच आप अपनी सहज मनुष्यता की रक्षा क्योंकर कर पाएंगे? और नहीं कर पाएंगे तो?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)