इन दिनों अपनी एक आंख के मोतियाबिंद हटाए जाने के बाद नए लेंस लगने के उत्तरराग में हूं. लगता है कि सब कुछ ठीक हुआ है. दस दिन हो रहे हैं और इस बीच ज़्यादा पढ़ा नहीं हालांकि डाक्टर ने दूसरे ही दिन से पढ़ने का मशविरा दिया था. पर गंभीरता से पढ़ना, एहतियातन, थोड़ा टाल रखा है. यों इतने दिन कुछ ख़ास न पढ़ना बड़ा ख़ालीपन महसूस कराता है. पढ़े बिना कैसे रहा जाए? पढ़े बिना जीवन का सजग अहसास जैसे स्थगित हो जाता है. कम से कम मैं तो साहित्य को दूसरा जीवन मानता रहा हूं और इस दूसरे जीवन के बिना पहला मूल जीवन निरर्थक और कई मायनों में बहुत अधूरा लगता है. दूसरा ही पहले को कुछ अर्थ, कुछ उजाला देता है.
जीने का देखने से बड़ा गहरा और अनिवार्य संबंध है. अगर दिखाई न दे तो जीवन, प्रकृति, घर-परिवार आदि का क्या अस्तित्व? बहुत सारी सचाई तो इसलिए सचाई है, हमारे लिए, कि हम उसे देख पाते हैं. पर यह भी सच है कि बहुत सारी सचाई हम अनदेखी करते हैं. दूसरों की कमज़ोरियां और पतन हम शौक़ से देखते हैं पर अपनी कमज़ोरी और पतन नहीं देख पाते. हम अक्सर वही देखते हैं जो देखना चाहते हैं. हमारे देखने की भौतिक असमर्थता के अलावा सीमाएं होती हैं: हमारी बुद्धि, हमारी भावनाएं, हमारे अनुभव आदि हमें बहुत कुछ देखने से रोकते हैं. एक और अर्थ में हम पर कुछ देखना तो लाज़िम है- याद करें फ़ैज़ की नज़्म ‘हम देखेंगे’.
देखने से मिलता-जुलता एक और शब्द है निरखना. मैं उसका उपयोग ध्यान से देखने के लिए करता हूं. हम अक्सर देखते हैं तो भी ध्यान से नहीं देखते- सरसरी तौर पर देखते हैं. कला प्रदर्शनियों में ऐसे लोग कम नहीं होते जो एक कलाकृति के सामने आधा मिनट से कम रुककर उसे देखते हैं. निरखना ऐसे देखने से अलग है. गुलाम मोहम्मद शेख़ ने अपनी कला-इतिहास की पुस्तक का नाम ही रखा है: ‘निरखे वही नज़र’.
मैथिलीशरण गुप्त की दो कविताओं में निरखने का सुंदर प्रयोग हुआ है: ‘निरख सखी, फिर अंजन आए’ और ‘तुम निरखो हम नाट्य करें/राम तुम्हारी रंगभूमि में/कहो कौन सा रूप धरें?’ अक्सर हम देखते तो हैं पर निरखते नहीं हैं और लगभग अधीर होकर परखने की ओर बढ़ जाते हैं.
परख, इस सिलसिले में, तीसरा शब्द है. कसौटी पर कस कर वस्तु की प्रामाणिकता तय करने की प्रक्रिया परखना कहलाती आई है. साहित्य और कलाओं के संदर्भ में इसमें कई आशय जुड़े गए हैं: मूल्यांकन, मूल्यवत्ता का निर्धारण, प्रासंगिकता, अर्थगर्भिता आदि. अंग्रेज़ी साहित्य के विश्वविख्यात विद्वान् और दिल्ली विश्वविद्यालय में एक वर्ष के लिए मेरे अध्यापक बालचन्द्र राजन का मानना था कि आलोचना में ज़्यादा जगह देखने-निरखने की होना चाहिए और परख की कम. आलोचना का बुनियादी काम दिखाना है, परखना नहीं. जो वह दिखाती या दिखा पाती है उस पर बहस हो सकती है, तर्क-वितर्क हो सकते हैं और व्यापक सहमति भी हो सकती है.
परख का क्षेत्र थोड़ा स्वैराचारी होता है. उसमें तरह-तरह के पैमाने और पूर्वग्रह सक्रिय होते हैं और सहमति का दायरा बहुत संकरा हो जाता है. यह तर्क किया जा सकता है कि क्या देखना-निरखना यह अपने आप में एक तरह का मूल्यनिर्णय है और उसमें परख अंतर्भूत है. यह भी कि प्रायः देखना-परखना साथ-साथ होते हैं, उन्हें बहुत सफ़ाई से अलगाना कठिन है.
चौरासी वर्ष
आयु के चौरासी वर्ष पूरे हो गए. कितने और बचे हैं यह कहना कठिन है, ज़ाहिर है कि ज़्यादा नहीं. लगभग पचहत्तर वर्ष तो साहित्य में और लगभग साठ वर्ष कलाओं में रमते-पगते बीते हैं. चालू राजनीतिक मुहावरे में कहें कि अगर इससे आधे भी भगवद्-भजन में लगाए होते तो सात जन्मों तक मुझे और मेरे भविष्य परिवार को मोक्ष मिल जाता. यह भी कि मोक्ष की आकांक्षा और प्रयत्न न करनेवाला जीवन अकारथ जाता है, ‘विरथा जनम गंवायो’.
यह कहना कि मैंने मोक्ष के बजाय संसार का अनुराग चुना और उसी में अपनी मुक्ति और जीने-लिखने को सार्थकता माना तो यह बड़बोलापन लगेगा. पर हम अनेक बौनों के बेहद मुखर बड़बोलेपन से लगभग चौबीस घंटे घिरे हैं तो एक बूढ़े लेखक का यह बड़बोलापन शायद क्षम्य हो सकता है. इतना तो, फिर भी, दावा किया जा सकता है कि मोक्ष मिले, न मिले साहित्य और कलाओं से अदम्य मानवीयता, गरमाहट, समय-आत्म-समाज-भाषा आदि का प्रश्नांकन, उदग्र जिजीविषा, दूसरों का गरमाहट-भरा संग-साथ, सुख और संतोष मिले और इन्हें किसी भी तरह किसी जीवन के लिए कम नहीं कहा जा सकता. न थका, न ऊबा, न विरत या विरक्त हुआ, जीवन और साहित्य-कलाओं से.
पात्रता या क्षमता भले कम रही हो पर वरदान उजला और बड़ा मिला. इस सौभाग्य के प्रति गहरी कृतज्ञता अनुभव करता हूं. एक सीमित जीवन में इतने-इतने सारे अपार दूसरे जीवन मिले और यह दीप्ति कभी धुंधली नहीं पड़ी, मंद नहीं हुई. अगर कुछ अवगुन ही खोजते-पाते रहे तो ऐसे भी बहुत से रहे जिन्होंने मेरे अवगुन चित न धरे!
साहित्य और कलाओं ने यह भी सिखाया कि, लगभग ऐसा बिना चाहे, कोई कृति, कोई भंगिमा, कोई अनुभव या कोई छबि या संयोजन अकस्मात् आपको किसी मर्म या विवेक या संवेदना से आलोकित कर सकता है. कोई विचार आपको किसी अप्रत्याशित संपदा में हिस्सेदार बना सकता है. कोई परिवर्तन इसी जीवन में अपनी और दूसरों की मुक्ति तलाश करने के लिए प्रेरित कर सकता है. अपने आसपास की रोज़मर्रा की ज़िंदगी में कुछ असाधारण दीख सकता है. कोई पुरखा, कई सदियों पहले का, आपको पुकार सकता है.
यह भी सीखा कि अपने दुख या संघर्ष को बहुत नहीं गाना चाहिए क्योंकि दूसरों में से अधिकांश का दुख और संघर्ष आपसे कहीं बड़े-गहरे और त्रासद हैं. आप अकेले होने घबराते नहीं हैं क्योंकि साहित्य या तो भौतिक रूप से या स्मृति में, कल्पना में हमेशा आपका सहचर होता है.
सच का दुस्साहस
झूठों-झांसों और उनसे व्यापक रूप से छायी कायरता से हम निशदिन ऐसे घिरे हैं कि हमें कई बार ऐसा लगता है कि सच जानकर या बोलकर क्या लाभ है. लाभ तो कोई नहीं है पर चुप रहकर आप उस कायरता में शामिल हो जाते हैं जो लगातार बढ़ रही है. सत्ता के सामने सच बोलने के एक दुर्लभ प्रसंग की याद हाल ही में आई चित्रकार अखिलेश की जगदीश स्वामीनाथन पर उनकी पुस्तक ‘के विरुद्ध’ में दर्ज़ है.
प्रसंग फरवरी 1982 में भारत भवन के उद्घाटन के अवसर का था जो तब की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी करने जा रही थीं. मंच पर स्वामीनाथन थे और उन्होंने जो कहा उसके बारे में रामकुमार ने यह लिखा है:
‘जब भारत भवन का उद्घाटन हुआ तो वे आदिवासियों की दुर्दशा के बारे में बोलने से ज़रा भी नहीं हिचकिचाए. यह उन्होंने अपनी यात्राओं में देखा था. उन्होंने कहा- मैंने देखा कि आदिवासी कष्ट भुगत रहे हैं. उनके पास खाने को कुछ नहीं हैं. वे पेड़-पौधों से पकड़ कर कीड़े-मकोड़े खा रहे हैं. श्रीमती गांधी बेकल हो रही थीं. यह उनकी सरकार की नीतियों पर हमला था. इनकार में अपना सिर हिला रही थीं. मगर स्वामी में यह साहस था कि वे जो चाहते थे, कह सकते थे, उनके सामने, उनके लोगों के सामने.’
रामकुमार उन सौ से अधिक कला-मूर्धन्यों में शामिल थे जो उस समय उद्घाटन में उपस्थित थे. मैं रामकुमार के लिखे की तस्दीक करता हूं क्योंकि उद्घाटन का कार्यक्रम मैं ही संचालित कर रहा था.
यह भी जोड़ना चाहूंगा कि उद्घाटन के बाद इंदिरा जी को भारत भवन में लगी शहराती और आदिवासी लोक कलाओं की विशाल प्रदर्शनियों को स्वामी ने ही दिखाया और उनके प्रति इंदिरा जी के उत्सुक और सद्भावी व्यवहार में कोई कमी या बेरुख़ी नहीं थी. बल्कि उसके बाद, जब तक इंदिरा जी जीवित रहीं, वे अनेक देशी-विदेशी लोगों को भारत भवन देखने भेजती रहीं यह कहकर कि अगर भारत को एक जगह देखना हो तो भारत भवन जाकर देखिए. यह बात मुझे अंतरराष्ट्रीय न्यायालय के न्यायाधीशों के एक प्रतिनिधि मंडल ने बताई जो प्रधानमंत्री के कहने पर ही भारत भवन देखने आया था.
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)