नियम से अधिक महत्वपूर्ण नियम का अनुपालन है. नियम के अनुपालन के लिए नियम में श्रद्धा, विचारों में दृढ़ता और क्रिया में निर्भीकता आवश्यक है. अनुपालन में शिथिलता व्यवस्था को कमज़ोर करती है और सत्ता को दीनता जन्य समझौते के लिए पग-पग पर विवश करती है. दंड का विधान होने पर भी तनिक-सा विरोध होने पर उदारता का ढोंग प्रशासनिक दुर्बलता है. 15 वर्ष के स्थान पर 75 वर्ष तक अंग्रेजी के सहभाषा के रूप में बने रहने देना यह प्रबुद्ध राजनीतिज्ञों द्वारा समर्थित संविधान सभा के निर्णय के साथ विश्वासघात तो है ही सत्ता की प्रशासनिक दुर्बलता का भी द्योतक रहा है. हिंदी के पक्ष में दिए गए संवैधानिक निर्णय के विरोध का समाधान नियम के अनुपालन की उपेक्षा कर नहीं वरन भारतीय भाषाओं के मध्य अंतर्संवाद को प्रोत्साहन देने में है.
साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित भाषा उत्सव 2024 में अंग्रेजी की वर्चस्विता और हिंदी की जो उपेक्षा मुझे दिखी वह समस्त भारतीय भाषा समाज को आश्चर्य चकित करने वाली थी. दिख रहा था कि जो साहित्य अकादमी भारतीय भाषाओं के अनुवादकों को प्रतिवर्ष पुरस्कार देती है पर उत्सव में वर्षों से पुरस्कृत होने वाले अनुवादकों का उपयोग न कर पुरस्कृत व्यक्तियों को अंग्रेजी में अभिव्यक्ति के लिए प्रोत्साहित करती है.
डॉ. प्रतिभा राय जैसी सिद्ध उड़िया लेखिका जो अच्छी हिंदी बोलती है उनका वक्तव्य हिंदी में या उड़िया में होता तो अंग्रेजी से अधिक प्रभावित करता पर मैं नहीं समझ पा रहा कि उन्होंने अपने वक्तव्य के लिए अंग्रेजी को क्यों चुना. उत्सव में मुख्य अतिथि के रूप में निमंत्रित डॉ. प्रतिभा राय से उपस्थित प्रबुद्ध श्रोता आशा करते थे कि यदि कोई उन्हें अंग्रेजी में बोलने के लिए कहता तो वे उड़िया में वक्तव्य देने का हठ करतीं. देश के लिए यह सम्मान का अवसर होता पर संभवतः प्रतिभा जी को लगा होगा कि भारतीय भाषाओं से अधिक आभिजात्य भाषा अंग्रेजी है. यदि वे उड़िया में अपना वक्तव्य देतीं और उड़िया भाषा का अनुवादक हिंदी में उसका अनुवाद करता तो भारतीय भाषा उत्सव की सार्थकता होती और उत्सव भारतीय भाषा उत्सव कहलाता.
मुझे तो लगता है कि साहित्य अकादमी जैसी राष्ट्रीय महत्व की संस्थाओं को यह शासकीय निर्देश दिया जाना चाहिए कि वे भारतीय भाषाओं को अंग्रेजी के स्थान पर प्राथमिकता दें. अपनी भाषा जिस पर व्यक्ति का अधिकार होता है उसके स्थान पर विदेशी भाषा का प्रयोग हीनभावना का द्योतक है. भारतीय भाषा उत्सव में हिंदी और भारतीय भाषा की उपेक्षा कर अंग्रेजी का प्रयोग उपहासास्पद लगता है पर साहित्य अकादमी जैसी संस्थाओं के योद्धाओं को यह समझाना सत्ता का दायित्व है.
अंग्रेजी की दासता से मुक्ति महत्वपूर्ण है न कि अंग्रेजी से
समस्याओं का समाधान विरोध और विवाद में नहीं संवाद में है. इस वर्ष गृह मंत्रालय के अधीन भारतीय भाषा विभाग की स्थापना वर्तमान सरकार का प्रशंसनीय प्रयत्न है. सरकारी संस्थाओं में भारतीय भाषाओं के स्थान पर अंग्रेजी की वर्चस्विता को राजभाषा नियम के अनुपालन की उपेक्षा के रूप में देखा जाना चाहिए. हिंदी का विरोध अंग्रेजी से नहीं है पर देश अंग्रेजी के स्थान पर भारतीय भाषाओं को प्राथमिकता देने के पक्ष में है, यह संदेश राष्ट्र को जाना चाहिए.
पर्यालोचन का समय
भारत की पुरानी महत्वपूर्ण हिंदी सेवी संस्थाएं यथा हिंदी साहित्य सम्मलेन प्रयाग, काशी नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, जो आज धनाभाव के कारण मृतप्राय-सी हो रही हैं, पर जिनके पास अक्षय साहित्य भंडार है, उनकी उपेक्षा कर नई संस्थाओं का निर्माण और अनुदान मुझे बुद्धिमत्ता नहीं लगती. ये संस्थाएं देश की धरोहर हैं और अपनी धरोहर की रक्षा से देश समृद्ध होता है. प्रयागराज की हिंदुस्तानी अकादमी को सरकारी अधिकरण ने नवजीवन दिया है. महत्वपूर्ण रुग्ण हिंदी संस्थाओं और भाषा संस्थानों के सरकारी अधिकरण देश हित में है.
भाषाओं की प्रतिष्ठा उत्सवों से नहीं, भाषाओं को समृद्ध करने से बढ़ती है
उत्सवधर्मी विश्व हिंदी सम्मलेन के निरंतर गिरते स्तर को देखकर, जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण फीजी में आयोजित विश्व हिंदी सम्मलेन 2023 है, मुझे लगता है कि इन विश्व हिंदी सम्मेलनों की आज कोई उपयोगिता नहीं रह गई है और इन उत्सवों को बंद कर देना ही उपयुक्त है क्योंकि ये सम्मेलन अब विद्वानों के मध्य उपहास का कारण अधिक बनते जा रहे हैं.
इने-गिने अच्छे विद्वानों को छोड़कर अधिकांश प्रतिभागी किस प्रकार से सरकारी निमंत्रण और हिंदी सम्मान की होड़ में रहते हैं यह चिंतनीय है. हिंदी भाषियों के मध्य हिंदी के प्रचार की क्या सार्थकता है. मैं सोचता हूं कि विश्व हिंदी सम्मलेन के बाद सम्मलेन की उपलब्धि की गंभीर समीक्षा होनी चाहिए. मुझे कई विश्व हिंदी सम्मेलनों और क्षेत्रीय हिंदी सम्मेलनों में प्रतिभागिता का अवसर मिला है. अपने ही हिंदी भाषियों के मध्य चाहे वह भारत में हो या विदेश में सब जगह श्रोता मुझे हिंदी भाषी ही अधिक दिखे, अहिंदी भाषी या विदेशी श्रोता जो मिले भी वे भी ऐसे जिनका हिंदी में कोई विशेष योगदान नहीं है. हिंदी के प्रतिष्ठित विदेशी और स्वदेशी विद्वान तो निमंत्रित ही नहीं होते.
ऐसे विश्व हिंदी सम्मेलनों का आयोजन बंद करने से राजकोष के धन का अपव्यय नहीं होगा और वह प्रभूत करोड़ों की धनराशि, श्रम और समय महत्वपूर्ण अकादमिक योजनाओं के काम आ सकेगा. हिंदी शब्दसागर, मानक हिंदी कोष, हिंदी विश्कोश, हिंदी साहित्य का बृहत् इतिहास जैसी योजनाओं पर आज कार्य करने की कोई नहीं सोचता.
भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद्, नई दिल्ली की एक समय लोकनय में बड़ी भूमिका होती थी जो अब वहां भी नहीं रही. जो अध्यापक विदेश में हिंदी शिक्षण के निमित्त भेजे जाते हैं उनको आज अपेक्षित सुविधाएं तक नहीं दी जातीं जिससे वे दत्तचित होकर अपना दायित्व निभा नहीं पाते और विदेश के हिंदी पाठ्यक्रम जिन पर देश अकूत धन खर्च करता है वे लक्ष्य सिद्धि तक नहीं पहुंच पाते और धीरे-धीरे पाठ्यक्रम बंद होने की स्थिति में आ जाते है.
विदेश भेजे जाने वाले शिक्षक सामान्यतः साहित्य के विद्वान होते हैं इसलिए वे सफल और प्रभावी भाषा शिक्षक बन नहीं पाते. विदेशी हिंदी भाषा सीखना चाहते है और उन्हें हम हिंदी साहित्य पढ़ाते हैं फलतः हिंदी पाठ्यक्रम में विदेशी छात्रों की रुचि घटती जाती है. शिक्षकों का चयन करते समय हम भूल जाते हैं कि साहित्य और भाषा दो अलग अलग अनुशासन हैं.
हिंदी और भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा उत्सवों से नहीं बढ़ती, भाषाओं को समृद्ध करने से बढ़ेगी. विश्व की आधुनिक विदेशी भाषाओं के समकक्ष आधुनिक भारतीय भाषाओं को हमें अधिक समृद्ध बनाने का प्रयत्न करना होगा, संदर्भ ग्रंथों की दृष्टि से, आधुनिक तकनीकी सुविधाओं की दृष्टि से, उपलब्ध रोज़गार के अवसरों से. विविध विदेशी भाषाओं में उपलब्ध वैज्ञानिक, तकनीकी, मानविकी आदि विषयों के भारतीय भाषाओं में अनुवाद की अच्छी व्यवस्था देश को करनी होगी.
भारत बहुभाषा भाषी देश है इसलिए सारे देश के लिए अनुवाद एक बड़ा सेतु है और अनुवाद के माध्यम से भारत की अखंडता पुष्ट हो सकेगी और असंख्य रोज़गार के अवसर विश्व स्तर पर उपलब्ध हो सकेंगे और हिंदी की विश्वभाषा के स्तर पर मान्यता भी हो सकेगी. उत्सव की अपेक्षा ठोस व्यावहारिक प्रयत्न और कठिन श्रम से ही भारतीय भाषाएं सक्षम बन सकेंगी. यह संभव तभी होगा जब अंगेजी के स्थान पर हम हिंदी और भारतीय भाषाओं को समृद्ध करेंगे.
हिंदी को अष्टम सूची से हटाकर राष्ट्रभाषा का संवैधानिक गौरव दिया जाना चाहिए
अष्टम सूची में अब भारतीय भाषाओं और हिंदी की उपभाषाओं के साथ हिंदी की उपस्थिति की आज कोई उपयोगिता नहीं है. क्योंकि शनैः शनैः हिंदी की उपभाषाओं की प्रविष्टि हिंदी को कमजोर करने का एक छद्म षड्यंत्र सा ही है. अष्टम सूची से हिंदी को हटाकर हिंदी को राष्ट्रभाषा का संवैधानिक गौरव दिया जाना चाहिए जिसकी जोरदार वकालत स्वयं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जिनकी हिंदी मातृभाषा नहीं थी उन्होंने की थी और देश के समस्त हिंदीतर क्षेत्र के विद्वानों ने एकस्वर से समर्थन किया था.
एक समय था जब सभी भारतीय भाषाओं के विद्वानों ने हिंदी का निर्विरोध समर्थन किया था और आज हिंदी के ज़रा से क्षेत्रीय विरोध से घबराकर हम उदारता की दुहाई देने लगते हैं, क्या यह वर्तमान राजनीति और राजनेताओं की विफलता नहीं है.
अंग्रेजी की महत्ता का यह विरोध नहीं पर अपनी भारतीय भाषाओं की प्रतिष्ठा के सम्मुख विदेशी भाषा की दासता देश के स्वाभिमान और विश्वपटल पर भारत की प्रतिष्ठा के लिए बाधक है.
हिंदी पुष्ट होगी तो सभी भारतीय भाषाएं स्वयमेव पुष्ट होंगी
हिंदी की शक्ति विश्व भली भांति पहचानता है. यही कारण है कि विविध स्तरों पर हिंदी सीखने सिखाने के विश्व व्यापी प्रयत्न हो रहे हैं पर उसमें भारत का अंशदान नहीं के बराबर है. हम जानते हैं कि आज तक हिंदी जाने बिना कोई भारत का सफल प्रधानमंत्री नहीं बन सका, बिना हिंदी के भारतीय बाज़ार पर कोई अधिकार नहीं कर सकता, बिना हिंदी फिल्म मे काम किए देशव्यापी लोकप्रिय अभिनेता कोई नहीं बन सका.
विदेशी कूटनीतिज्ञ भी यह समझते है कि भारत को अच्छी तरह समझने के लिए हिंदी एक कुंजी के समान है. भारतीय संसद में भी बहस सर्वाधिक हिंदी भाषा में ही होती है और दूसरी भाषाओं में सुनने की सुविधा होने पर भी लोग हिंदी में बोलने वाले की ही सुनते हैं. हिंदी ही संपूर्ण भारत की संपर्क भाषा है और वही समूर्ण भारत को जोड़े रख सकने में समर्थ है इसलिए उसके पुष्ट होने से ही भारतीय भाषाएं पुष्ट होंगी.
कहा भी गया है ‘जो तरु सींचे मूल से फूले फले अघाय’, हिंदी पुष्ट होगी तो सभी भारतीय भाषाएं स्वयमेव पुष्ट होंगी. अंग्रेजी का वर्चस्व देश को कमज़ोर करता है और समस्त भारतीय भाषाओं को जोड़ने में बाधक बनता है.
अंतर्संवाद ही समाधान
वर्तमान परिवेश में भारतीय भाषाओं की स्वदेश और विदेश में या यो कहें वैश्विक प्रतिष्ठा कैसे बढ़े इस पर गंभीर चर्चा आज समय की मांग है और मुझे लगता है कि भारतीय भाषाओं के विद्वानों के मध्य राष्ट्रीय स्तर पर अंतर्संवाद ही इसका समाधान है.
(लेखक भाषा वैज्ञानिक और प्रवासी भारतीय साहित्य के विशेषज्ञ हैं. पूर्व में दिल्ली विश्वविद्यालय के वरिष्ठ प्राध्यापक रहे डॉ. वर्मा कनाडा, बुल्गारिया और फ़ीजी के विश्वविद्यालयों में भी अतिथि प्राध्यापक रहे हैं.)