क्या राहुल गांधी शिकायती और निराशावादी हैं? जब उन्होंने अपनी पार्टी के सहकर्मियों को कहा कि उनका मुक़ाबला सिर्फ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से नहीं, बल्कि पूरे राज्य से है तो क्या वे अतिशयोक्ति कर रहे थे? क्या वे इस प्रकार की बातें इसलिए करने लगे हैं क्योंकि वे चुनाव नहीं जीत पा रहे हैं? और अपनी कमजोरी छिपाने के लिए अब वे पूरी राज्य मशीनरी पर आरोप लगाने लगे हैं?
पहले संदर्भ जान लें. राहुल गांधी कांग्रेस पार्टी के मुख्यालय के उद्घाटन के मौक़े पर अपनी पार्टी के सदस्यों को संबोधित कर रहे थे.वे उन्हें यह बता रहे थे कि पार्टी किन परिस्थितियों में काम कर रही है.उसके सामने चुनौतियां किस क़िस्म की हैं? उन्होंने कहा कि भारतीय जनतंत्र की ज़मीन बदल चुकी है. राजनीतिक संघर्ष अब न्यायसंगत तरीक़े से नहीं हो रहा. कांग्रेस पार्टी अब मात्र भारतीय जनता पार्टी या आरएसएस से नहीं लड़ रही. उसके खिलाफ़ राज्य की तक़रीबन सारी संस्थाओं का इस्तेमाल हो रहा है. इसलिए यह अब सामान्य जनतांत्रिक संघर्ष नहीं रह गया है.
क्या राहुल गांधी ग़लत कह रहे थे? क्या उनकी इस बात में कोई तथ्य नहीं है कि अब विपक्ष को भाजपा के साथ राज्य के विरोध का सामना करना पड़ रहा है? राज्य से राहुल गांधी का तात्पर्य क्या है? राज्य का मतलब है नौकरशाही, पुलिस, दूसरी जांच एजेंसियां, फ़ौज, चुनाव आयोग या अन्य आयोग जैसी संस्थाएं. शिक्षा संस्थान भी. इस सूची में आप अदालतों को भी शामिल कर लें. जनतंत्र सुचारु रूप से तभी चल सकता है जब ये सारी संस्थाएं स्वतंत्र तरीक़े से काम करें और ख़ुद को राजनीतिक सत्ता से नत्थी न कर लें. अपेक्षा की जाती है कि वे शासक दल के हितरक्षक और प्रचारक की तरह काम नहीं करेंगी. आप चाहें तो इसमें मीडिया को भी जोड़ लें और अगर हमें यथार्थवादी होना है तो उद्योग जगत को भी, जिसे हम आज कॉरपोरेट दुनिया कहते हैं. सिविल सोसाइटी की भूमिका कम महत्त्वपूर्ण नहीं है. उसका सक्रिय रहना जनतंत्र के लिए ज़रूरी है और वह सरकार और विपक्ष, दोनों का सहयोग करती है.
क्या इसके लिए उदाहरण देने की ज़रूरत है कि पिछले 10 वर्षों से ये संस्थाएं स्वायत्त नहीं रह गई हैं और एक तरह से भाजपा के विभागों की तरह काम कर रही हैं? क्या हम ऐसे अनगिनत मामलों को नहीं जानते जिनमें जांच एजेंसियों ने विपक्षी दलों के नेताओं पर छापे मारे, उनपर मुक़दमे दायर किए और जैसे ही वे भाजपा में शामिल हुए, अपनी गिरफ़्त ढीली कर दी या उनके ख़िलाफ़ मामले बंद कर दिए? ऐसा करने की कोई मजबूरी इन एजेंसियों को न थी. हमें यह नहीं कहना चाहिए कि ये किसी दबाव में काम कर रही हैं. वे जो कर रही हैं, वह उनका फ़ैसला है. उनके पास पूरा अधिकार है कि इस संबंध में वे निर्णय लें या न लें. अगर वे राजनीतिक सत्ता के इशारे पर भी काम कर रही हैं, तो भी यह उन्हीं का फ़ैसला है और वे इसके लिए ज़िम्मेवार हैं.
यही बात पुलिस और नौकरशाही के बारे में कही जा सकती है. अगर वे विपक्ष और सरकार के आलोचकों के साथ दुश्मनों की तरह पेश आ रहे हैं तो इसका अर्थ हुआ कि उन्होंने तय किया है कि वे विपक्ष को काम नहीं करने देंगे.
अगर आज सेनाध्यक्ष भाजपा सरकार के मंत्री के साथ सार्वजनिक तौर पर हिंदू भेस में पूजा कर रहे हैं, अगर सेना के अधिकारी सार्वजनिक तौर पर ऐसे बयान देते हैं जो सरकारी दल की विचारधारा के अनुरूप है, तो वे अपने पद की ज़रूरत के मुताबिक़ काम नहीं कर रहे, भाजपा के सहयोगी की भूमिका निभा रहे हैं.
तक़रीबन सभी शिक्षा संस्थाओं ने भाजपा और आरएसएस के प्रचार और विस्तार तंत्र की तरह काम करने का फ़ैसला कर लिया है. मीडिया सिर्फ़ सरकार और भाजपा का समर्थक नहीं है. वह विपक्ष को बदनाम करने और उसके ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाने का काम सक्रिय रूप से और स्वेच्छा से कर रहा है.
संसदीय जनतंत्र तभी चल सकता है जब चुनाव क़ायदे से कराए जाएं जिनमें सरकारी दल को सत्ता का लाभ न मिले. यह निश्चित करना चुनाव आयोग का काम है. लेकिन वह क्या कर रहा है, सब जानते हैं.
अभी ही दिल्ली का हाल देख लीजिए. चुनाव की तैयारी चल रही है. भाजपा के नेता और उम्मीदवार पिछले 1 महीने में खुलेआम पैसे, साड़ियां,जूते बांट रहे हैं. इसपर चुनाव आयोग ने कुछ किया हो, इसका कोई सबूत नहीं. भाजपा की ढिठाई बढ़ती जा रही है. पिछले चुनावों में, वे चाहे विधान सभा के हों या लोक सभा के, भाजपा और उसके नेताओं ने चुनाव आचार संहिता की खुल कर धज्जी उड़ाई. आयोग ख़ामोश रहा.
प्रधान मंत्री से लेकर भाजपा के लगभग सारे नेताओं ने बेधड़क धार्मिक आधार पर घृणा फैलाते हुए वोट मांगे. आयोग चुप रहा. आयोग पर आरोप लगे कि उसने मतदाताओं की संख्या में हर फेर किया है. ये आरोप कई तरफ़ से लगाए गए. सबसे ताज़ा इल्ज़ाम महाराष्ट्र में मतदाताओं की संख्या में असामान्य इजाफ़े का था. उसी तरह लगभग हर राज्य में मतदाताओं के नाम काटे जाने के कई मामले सामने आए हैं. यह सब कुछ भाजपा के इशारे पर किया गया है.
आयोग ने ढीठ चुप्पी साध रखी है. आम आदमी पार्टी दिल्ली में मतदाता सूची में हर फेर के प्रमाण दे रही है. चुनाव सुधार पर काम करनेवाली एडीआर जैसी संस्था पूछ रही है कि ईवीएम में डाले गए वोटों और कुल गिने गए वोटों की संख्या में अंतर क्यों है? इन सारे सवालों के जवाब में आयोग चुप है. आयोग का दावा है कि वह निष्पक्ष है और उसपर सवाल क्यों उठाया जा रहा है लेकिन अब तो मतदाता भी यह नहीं मानते.
यह भी देखा ही गया कि इन सारी तिकड़मों के बावजूद अगर विपक्ष चुनाव जीतकर सरकार बना भी ले, तो भाजपा किसी न किसी तरह उसे गिरा देती है. अदालत सब कुछ खामोशी से देखती रहती है. ऐसा पिछले 10 सालों में कई बार किया गया. इसका अर्थ यह है कि जनादेश कुछ भी हो,भाजपा जोड़ तोड़कर अपनी सरकार बना लेगी. ऐसी हालत में चुनाव अप्रासंगिक हो जाते हैं. मतदाता भी देखते हैं कि वे कुछ भी करें सरकार भाजपा ही बना लेगी. इससे उनके भीतर असहायता का बोध उपजता है. चुनावी चंदे के मामले में चुनावी बांड को अदालत ने ग़ैर क़ानूनी करार दिया लेकिन तब जब भाजपा उससे हज़ारों करोड़ जुटा चुकी.
भाजपा की इस तिकड़मबाज़ी और ढिठाई को मीडिया उसका कारनामा बतलाता है और विपक्ष की खिल्ली उड़ाता है.
सिविल सोसाइटी को पूरी तरह तोड़ दिया गया है.यह समाज के भीतर नागरिकता का बोध जीवित रखने का काम करती है. पिछले 10 सालों में उसे पूरी तरह निष्क्रिय कर दिया गया है.
ऐसी स्थिति में विपक्ष से उम्मीद करना कि वह भाजपा से बराबरी का राजनीतिक संघर्ष कर पाएगा, मूर्खता के अलावा और कुछ नहीं.
राहुल गांधी ने यह बात कोई आज कही हो, ऐसा नहीं. वे पिछले कई वर्ष से कहते आ रहे हैं कि विपक्ष के ख़िलाफ़ सिर्फ़ भाजपा नहीं, आरएसएस का विशाल तंत्र है. लेकिन उससे भी अधिक राज्य की सारी संस्थाएं उसके ख़िलाफ़ हैं.
जो बात आज राहुल गांधी आज कह रहे हैं, वह भारत के मुसलमान और ईसाई काफ़ी पहले से कहते आ रहे हैं. उन्हें सिर्फ़ भाजपा या आरएसएस के हमले का सामना नहीं करना पड़ता. राज्य भी उन पर हमला करता है. पुलिस और नौकरशाही स्वेच्छा से और इरादतन उनके खिलाफ हिंसा करती है. संभल सबसे ताज़ा उदाहरण है.इस राजकीय तंत्र से वे मुक़ाबला कैसे करें? वे उस न्यायपालिका में न्याय की लड़ाई कैसे लड़ें जिसके न्यायाधीश खुलेआम मुसलमानों के खिलाफ घृणा प्रचार करते हैं?
राहुल गांधी मात्र एक तथ्य बयान कर रहे थे. भारतीय राज्य का चरित्र बदल गया है. यह कहने से किसी को बुरा क्यों लगना चाहिए? जो इसके कारण उनकी निंदा कर रहे हैं क्या वे ख़ुद इस बात को नहीं जानते और मानते?
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं.)