‘नया इंडिया’ की स्तंभकार श्रुति व्यास ने इस दैनिक में अपने स्तंभ की गुरुवार (16 जनवरी) की कड़ी में महाकुंभ का शाही स्नान कवर करके लौटे एक फोटो पत्रकार के हवाले से लिखा है कि उनके यह पूछने पर कि वहां आस्था का कितना जोश है, उसने बताया: ‘काहे की आस्था, कहां की भक्ति? लोग आ रहे हैं, डुबकी लगा रहे हैं, फोटो खिंचवा रहे है और निकल ले रहे हैं.’
फिर अपनी ओर से टिप्पणी की है कि ‘मेरे और आपकी तरह कई लोग यह देख पा रहे हैं कि इस साल महाकुंभ हर लिहाज से महा है, सिवाय आस्था के.’
इस सिलसिले में उन्होंने 1954 के कुंभ (जो देश की आजादी के बाद का पहला था) के सोशल मीडिया पर चल रहे एक ब्लैक एंड ह्वाइट वीडियो का जिक्र भी किया है, जिसमें दिखता है कि लोग बिना किसी आडंबर के बैलगाड़ियों व बसों और यहां तक कि पैदल चलकर पहुंच रहे हैं, डुबकियां लगा रहे हैं, प्रार्थनाओं में मगन हैं, आनंद में डूबे हैं और शांति चाह रहे हैं.
उन्होंने आगे लिखा है कि अभी 2013 के महाकुंभ तक पवित्र नदी में डुबकी लगाने की पवित्रता बाकी थी. युवा लड़के और लड़कियां, इंफ्लुएंसर्स, साध्वियां और कंटेट क्रियेटर्स नहीं थे जो लाइक्स और वायरल होने के लिए सजे-धजे और ‘कुंभ के अनुरूप’ कपड़े पहने हुए हों. इस बार तो महाकुंभ को एक मेले की तरह दिखाया जा रहा है, जिसका उपयोग आप वायरल होने के लिए कर सकते हैं.
अंत में उनका निष्कर्ष है कि इससे बढ़कर इस (महाकुंभ) का लेना-देना राजनीति से है. ‘नए भारत’ का पहला कुंभ (है यह), जो उस शहर में हो रहा है, जिसका नाम इलाहाबाद से बदलकर प्रयागराज कर दिया गया है. सारे देश में मोदी और योगी के फोटो वाले जो पोस्टर इसके प्रचार-प्रसार के लिए लगाए गए है, उनमें महाकुंभ को ‘भारत की कालजयी आध्यात्मिक विरासत की अभिव्यक्ति’ बताया जा रहा है. एक आध्यात्मिक आयोजन को देश की राष्ट्रीय पहचान से जोड़ा जा रहा है. महाकुंभ उत्सव की जगमग में खो रहा है.
आज, व्यास की इन बातों के उल्लेख से अपनी बात शुरू करना इस लिहाज से ज्यादा प्रासंगिक लगा कि हिंदुत्व की जिस राजनीतिविहीन राजनीति को उन्होंने महाकुंभ का राजनीतिकरण करते हुए देखा है, वह उनके कहे को, उन्हें नास्तिक, हिंदूविरोधी, विधर्मी या वामपंथी वगैरह कहकर खारिज नहीं कर सकती. वे आस्थावान हिंदू हैं और इससे पहले कुंभ में जा चुकी हैं.
स्वाभाविक ही, उनकी इस दृष्टि के आईने में अनेक हल्कों से आ रही इस आशय की शिकायतें ज्यादा वैध हो जाती हैं, जिनमें कहा जा रहा है कि यह राजनीतिकरण अपनी सीमाएं न लांघ रहा होता तो न इस महाकुंभ को अतिशय महत्वपूर्ण बताने के लिए उसमें आने व नहाने वालों की संख्या को तर्कातीत स्तर तक बढ़ाकर कई-कई करोड़ बताने की जरूरत पड़ती, न ही शाही स्नान का नाम बदलकर उसको अमृत स्नान बताकर अपनी श्रेष्ठता कहें या हीनता ग्रंथि को तुष्ट करने की. (खुद को गर्व से हिंदू कहने और स्नान की शाही संज्ञा से परहेज़ करने का कोई तुक तो वैसे भी समझ में नहीं आता.)
संगमन का विरोध
तब यह सिर्फ ‘आस्था का महाकुंभ’ नहीं, विभिन्न आस्थाओं का अभूतपूर्व महाकुंभ होता. हिंदू धर्म (जिसे अब फैशन के तौर पर सनातन कहा जा रहा है) की परंपराओं का भी तब वह ज्यादा प्रतिनिधित्व करता क्योंकि यह धर्म अपने वास्तविक रूप में अनेकानेक आस्थाओं का पुंज या कि संगम ही है. उनमें से कुछ के परस्परविरोधी होने के बावजूद.
लेकिन यहां तो कुटिल राजनीति ने हालत यह कर दी है कि विदेशियों के प्रति भले थोड़ी ‘दरियादिली’ दिखाई भी जा रही है, अपने देश के थोड़ी सी भी भिन्न आस्था व पूजा पद्धति वाले लोगों को लेकर खासे निरादर से कहा जा रहा है कि महाकुंभ में उनका क्या काम है? साथ ही, उनके महाकुंभ में आने को लेकर ‘शर्तें’ लगाई जा रही हैं. सत्तातंत्र के उन प्रतिनिधियों द्वारा भी, जिन पर किसी भी देशवासी का निर्विघ्न व बेरोकटोक कहीं भी आ जा सकना सुनिश्चित करने का दायित्व है.
दूसरी ओर यह राजनीतिकरण करने वाले परिवार के मुखिया राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत हैं कि राम, कृष्ण व शिव को सारे हिंदुओं का ‘स्व’ बताते हुए ढोंग के तौर पर पूछ रहे हैं कि क्या ये (राम, कृष्ण और शिव) केवल देवी-देवता हैं, या केवल विशिष्ट उनकी पूजा करने वालों के हैं?
उन्हें वास्तव में पूछना होता तो किसी और के बजाय सीधे योगी आदित्यनाथ से पूछते, जो भाजपा के अंदरूनी सत्ता संघर्ष में नरेंद्र मोदी को मात देकर उनकी जगह लेने और उनसे बड़ा ‘हिंदू हृदय सम्राट’ बनने के लिए उनके कान काटने पर आमादा हैं. वे और उनकी पांतें लगातार ऐसे करतब दिखा रहे हैं, जिनसे अंदेशा पैदा होता है कि उत्तर व दक्षिण भारत को जोड़ने वाले राम आगे चलकर सारे हिंदुओं के भी रह पाएंगे या नहीं.
श्रीराम जन्मभूमि तीर्थ क्षेत्र ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय तो भगवान राम की पांच सौ साल की कथित प्रतीक्षा का अंत कराने वाले अयोध्या के भव्य राममंदिर की बाबत भी कह चुके हैं कि वह रामानंद संप्रदाय का ही है, शैवों, शाक्तों व संन्यासियों का नहीं.
अब उनके ‘परिवार’ के लोग महाकुंभ की मूल भावना को परे कर अपनी विभाजनकारी मानसिकता को उस पर थोपने की कवायदों में परस्पर संवाद व शास्त्रार्थ की राह रोकने पर आमादा हैं और महाकुंभ की उस पुरानी परंपरा को बेरहमी से तोड़ डालना चाहते हैं, जिसके तहत आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने (आर्य समाज की स्थापना से कई साल पहले) 1867 के हरिद्वार कुंभ में ‘पाखंड खंडिनी पताका’ फहराकर तमाम अवैदिक मान्यताओं को चुनौती दी थी.
तब न सत्ता ने अपनी शक्ति का दुरुपयोग करके उन्हें रोका था, न ही किसी ने इसकी मांग उठाई थी. लेकिन आज धर्म व परंपरा की नि:स्वार्थ विवेचनाओं की वह राह भी, बाकायदा राजनीतिकरण के रास्ते, अवरुद्ध की जा रही है, जिसे अंग्रेजों ने भी अवरुद्ध नहीं किया था. जहां तक सोच सोच और पाखंड की बात है, वह कितना भी बढ़ता जाए, उन्हें कोई परवाह नहीं है.
सवाल, जिनके जवाब नदारद
महाकुंभ के महाराजनीतिकरण की एक और मिसाल आजाद समाज पार्टी के अध्यक्ष चंद्रशेखर आजाद के महाकुंभ संबंधी बयान पर उनकी पांतों की प्रतिक्रियाएं हैं. चंद्रशेखर की टिप्पणी का एक अंश यह था कि महाकुंभ में वे जाएं, जिन्होंने पाप किए हों. न मैंने पाप किए हैं और न उन्हें धोने जा रहा हूं.
दलित नजरिये से की गई इस टिप्पणी पर कोई प्रतिक्रिया जरूरी भी थी तो उसे धर्माधीशों की ओर से आना चाहिए थ. लेकिन राजनीतिकरण करने वाले सत्ताधीश इससे धर्माधीशों से कहीं ज्यादा ‘विचलित’ हुए. योगी के मंत्री दिनेश प्रताप सिंह ने तो चंद्रशेखर को कौआ तक बता डाला.
मजे की बात यह कि चंद्रशेखर ने जो नीतिगत सवाल उठाए, उनका जवाब किसी से भी नहीं दिया.
मसलन: ‘जितना पैसा कुंभ में लगाया, उतना युवाओं को चिकित्सा, शिक्षा और रोजगार देने में लगाते तो बहुत सारे परिवारों के आंसू सूख जाते, बहुत सारे लोगों को न्याय मिल जाता और बहुत से लोगों को आगे बढ़ने का अवसर मिल जाता.’
चंद्रशेखर के इस सुझाव पर भी प्रतिक्रिया नहीं ही व्यक्त की गई कि प्रधानमंत्री व मुख्यमंत्री महाकुंभ जाएं तो इलाहाबाद में कोरोना काल में गंगा के किनारे जो लाशें दिखी थीं और जिन्हें चिता, अग्नि व अंतिम संस्कार तक नसीब नहीं हुआ था, उनके लिए भी प्रार्थना कर आएं क्योंकि वे उन्हें मेडिकल सुविधा नहीं दे पाए थे. मंत्री और सरकार के लोग जाएं तो मुजफ्फरनगर में जिनकी पीट-पीटकर हत्या कर दी गई, उनके लिए भी प्रार्थना कर लें. उस बच्चे के लिए भी, जिसने संसद के सामने जाकर खुद को न्याय न मिलने पर आग के हवाले कर दिया था.
इतना ही नहीं, उत्तर प्रदेश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी सपा के मुखिया अखिलेश यादव ने महाकुंभ की व्यवस्था पर सवाल खड़े किए, वहां वीआईपी कल्चर के बोलबाले और सामान्य साधु-संतों व तीर्थयात्रियों की उपेक्षा की बात कही तो भी यह आश्वस्त करने की राह नहीं चुनी गई कि स्थिति ऐसी नहीं है. तिरस्कारपूर्वक अखिलेश को अपने गिरेबान में झांकने और अपने वक्त के कुंभ को याद करने को कह दिया गया.
अफसोस कि तब किसी ओर से यह सवाल नहीं पूछा गया कि प्रदेश के लोग अखिलेश के समय की समस्याओं के लिए उन्हें सत्ता से बेदखली की सजा दे चुके हैं, तो क्या अब नए सत्ताधीश भी अपने आप लिए वही सजा तज्वीज कर रहे हैं?
बेचारगी यहां है
इस सबके बावजूद (बकौल राहुल गांधी) ‘इंडियन स्टेट’ पर कब्जा कर चुके और अपनी कोई हद न मान रहे ये सत्तासेवी राजनीतिबाज अपने ‘स्वर्णकाल’ में भी कभी-कभी थोड़े बेचारे नजर आते हैं तो इसलिए कि भारत के लोग संविधान पर आधारित लोकतंत्र को अपनाने के बहुत पहले से धर्म को व्यक्तिगत चयन मानते आए हैं. वे यह भी मानते हैं कि मनुष्य को राजनीतिक गुलामी के दौर में भी स्वेच्छा से कोई भी धर्म ग्रहण करने या त्यागने की अपनी स्वतंत्रता बनाए रखनी चाहिए.
इसलिए उन्होंने सुदूर अतीत में बहुत से ‘इमोशनल अत्याचार’ झेलकर भी उन सत्ताओं के मंसूबे पूरे नहीं होने दिए, जिन्होंने अपने वक्त में बहुविध प्रयत्न किए कि सारा देश उनके द्वारा प्रवर्तित, चुना, अपनाया और सर्वाधिक कल्याणकारी व उदार बताया जा रहा धर्म अपना ले और उसी के मार्ग पर चले. कई बार तो उन्होंने सत्ताओं की समाज सुधार की कोशिशों को भी यह मानकर नकार दिया कि वह उनका काम नहीं है और उनसे ज्यादा उन संतों व समाजसुधारकों की सुनी, जो सत्ता के चाक्चिक्य से दूर रहकर ‘संत को कहां सीकरी सों काम’ की घोषणा करते रहे. इसलिए कि वे बहुत ठीक से समझते थे कि राज्याश्रय किसी भी धर्म या पंथ को बहुत दूर तक या दीर्घकाल तक कहीं नहीं ले जा पाता.
इसीलिए इस्लाम भी (जिसके बारे में कुछ लोग कहते हैं कि उसके पास भरपूर राज्याश्रय था, उन जगहों से, जहां उसके सत्ताधीशों की तलवारें लहराया करती थीं) हमारे देश में ज्यादा वहां फैला जहां सूफी-संत मुहब्बत को सबसे ऊपर रखकर उसके तत्कालीन मूल्यों के प्रचार के लिए सक्रिय थे.
इससे बहुत पहले ईसापूर्व 262 से 261 तक लड़े गए ऐतिहासिक कलिंग युद्ध के दौरान भयानक नरसंहार से द्रवित होकर ‘देवानांप्रिय’ अशोक ने अहिंसामार्गी बौद्ध धर्म की शरण ले ली और उसे तरह-तरह से प्रचारित करते हुए संदेश दिया कि मनुष्य के लिए उसका अहिंसा व करुणा का जीवन-पथ ही सर्वाधिक श्रेयस्कर है तो देशवासियों का एक बड़ा हिस्सा इस धर्म के पथ पर गया जरूर, लेकिन उनके संसार को अलविदा कहने के साढे़ पांच दशक तक भी अपनी इस स्थिति को बनाए नहीं रख पाया.
ऐसी ही एक और मिसाल मुगल बादशाह अकबर की है, जिन्होंने 11 फरवरी, 1556 से 27 अक्टूबर, 1605 तक सत्ता संभाली. उनके द्वारा प्रवर्तित एवं प्रचारित दीन-ए-इलाही का हश्र भी कुछ अलग नहीं हुआ. उन्होंने अपनी बहुधर्मी-बहुभाषी रियाया के लिए सबसे कल्याणकारी मानकर इस दीन-ए-इलाही को उस वक्त तक दुनिया भर में प्रचलित तमाम धर्मों का सार-संग्रह बनाने की कोशिश की थी. उसमें हिंदू व इस्लाम धर्मों की ही नहीं, जैन, बौद्ध व ईसाई धर्म-दृष्टियों का भी समाहार कराया था. लेकिन तत्कालीन भारतीय समाज ने उसे कतई स्वीकार नहीं किया. यहां तक कि अकबर के सारे दरबारियों और उनकी सत्ता से जुड़े सारे लोगों ने भी उससे नाता नहीं जोड़ा.
अकबर को बहुत प्रिय मान सिंह और रहीम जैसी शख्सियतें भी उस दौर में अपने-अपने धर्मों का पालन करती रहीं और दीन-ए-इलाही को कुबूल नहीं किया. अलबत्ता, अकबर ने अपनी ओर से कभी किसी पर उसे कुबूल करने का दबाव भी नहीं डाला. न ही कुबूल न करने वालों पर कोई सख्ती ही की. काश, राज्याश्रय से हिंदू धर्म के उत्थान के दिवास्वप्न में उसके महाकुंभ जैसे आयोजन का राजनीतिकरण कर उसकी मूल भावना की हत्या कर रहे मदांध सत्ताधीश इस बात को समय रहते समझ पाते!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)