रचनाकार का समय: मेरा वक़्त से दोस्ताना रिश्ता तो नहीं है

अगर मुझे होती हुई या हो चुकी घटना के विवरण को लिखना हो, तो मैं गद्य का सहारा लेती हूं, लेकिन उस घटना से मेरे मन पर क्या प्रभाव पड़ा, उसे मैंने कैसे देखा, यह ज़ाहिर करना हो, तो मैं कविता का सहारा लेती हूं. 'रचनाकार का समय' की इस क़िस्त में पढ़ें लवली गोस्वामी का आत्म-कथ्य.

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लवली गोस्वामी. (फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट, इलस्ट्रेशन: पिक्साबे)

‘What surrounds us, here and now, is not guaranteed. It could just as well not exist – and so man constructs poetry out of the remnants found in ruins.’

चेस्लाव मीवोश की ये पंक्तियां मुझे हमेशा याद रहती हैं. क्यों! यह मैंने कई बार समझने की कोशिश की है. कविता में अंधेरे और उजाले के लिए बराबर जगह होती है. मैं कई बार ख़ुद को एक ऐसी जगह खड़ी हुई पाती हूं, जो अंधेरे और उजाले के ठीक बीच में है, जैसे मेरे आधे शरीर पर अंधेरे का कब्ज़ा है और आधे पर प्रकाश का. मैं वहां से भाग नहीं सकती. दरवाज़े चौखट से जकड़े हुए होते हैं, मेरा अस्तित्व भी इस अंधेरे-उजाले की विभाजन रेखा के साथ बंधा हुआ है. दरवाज़े चौखट से अलग कर दिए जाएं, तो वे पूरी तरह दरवाज़े नहीं रह जाएंगे, वैसे ही मैं उस जगह से हटकर अगर पूरे अंधेरे में या फिर पूरी तरह उजाले में खड़ी हो जाऊं, तो मैं पूरी तरह से मैं नहीं रहूंगी. एक आंख से मैं अंधेरा देखती हूं, एक से उजाला. यही मेरी कवि-दृष्टि है. मैंने इससे दो बातें सीखी हैं:

  • मेरा वह भाग, जो प्रकाश में है, मुझे अपने साथ थोड़ा अंधेरा रख लेने की अनुमति देता है. मेरी देह की छाया बनती है.
  • उजाले का अस्तित्व रौशनी से अलहदा नहीं लगता. दरअसल रंगों की वजह से उजाले की गरिमा बरकरार है. यानी विविधता उजाले को उसका अलग व्यक्तित्व देती है. रंग उजाले का नमक हैं.

उजाले वाले हिस्से में मैंने जीवन के रंगों को देखा, जिसमें कला, संस्कृति, इतिहास, धर्म और समाज हैं. मैंने अंधेरे को भी देखा (महसूस किया), जिसमें कोई चित्र स्पष्ट नहीं है, सिर्फ इम्प्रेशन्स और आवाज़ें हैं, जैसे घुटी हुई चीखें, दबी हुई सिसकियां, हंसी के कई प्रकार, फेंकने-उठाने-घसीटने की आवाज़ें, किलकारियां और आतंकित कर देने वाली चीत्कारें. आप चाहें तो इस अंधेरे को मनुष्य का सामूहिक सब-कांशस मान सकते हैं. लेखक और कवि की तरह मेरी आत्मा, जितनी उजाले के समसामयिक जीवन और घटनाओं से जुड़ी है, उसका आधा भाग लगभग उतना ही समाज के सामूहिक अंधेरे से जुड़ा है. उजाले  में भी कई तरह के शोर हैं, बल्कि मैं कहूं तो दहाड़ें हैं, जिसमें हिंसक क़िस्म के धर्म और बेलगाम पूंजी की दहाड़ सबसे घिनौनी लगती है.

मुझे पाउल सेलान की ‘डेथ फ्यूग’ याद आती है. इस कविता में वही अंधकार है, जिसकी मैंने बात की. कई आलोचक कहते हैं कि खुद होलोकास्ट की क्रूरता झेलने वाले रोमानियन-फ्रेंच कवि सेलान की इस कविता ने उस क्रूरता के भुक्तभोगियों के साथ न्याय नहीं किया है, जबकि पाउल खुद एक लेबर-कैंप में क़ैदी रह चुके थे. उनके माता-पिता की हत्या होलोकास्ट के दौरान कर दी गई थी. मुझे पूरा विश्वास है कि सेलान ने न्याय किया है. बस आपमें इतनी योग्यता और विनम्रता होनी चाहिए कि आप उस किए गए न्याय के साथ-साथ न्याय करने वाले कवि के साथ हुए अन्याय को भी उतनी ही दयालुता के साथ देख सकें और उस अन्याय को अपार दर्द और दुख के साथ कविता में व्यक्त करने की सेलान की दक्षता को समझकर उसे ग्रहण कर सकें.

मैं ऐसे समय में जी रही हूं, जहां क्रिसमस में संत निकोलस जैसे हुलिये वाले डिलीवरी बॉय को सिर्फ इसलिए धमकाया जाता है कि वह कई अतिवादियों को हिंदू-धर्म के लिए खतरा लगता है. मैं हिंदू हूं, लेकिन मुझे मेरा धर्म कभी इतना कमज़ोर नहीं लगा कि वह ईद पर सेवइयां पकाने, खुश होने और दूसरे धर्मों के लोगों के घर आने-जाने से नष्ट हो जाएगा.

मुझे याद है- मेरी मां मुझे मज़ार के पीले चावल और गुरुद्वारे का मीठा हलवा भी उसी श्रद्धा से खिलाती थी, जिस श्रद्धा से मंदिर में मिलने वाले बताशे. मेरी परवरिश एक बहुधार्मिक समाज में हुई थी, जहां किसी के फ्रिज में गाय का मांस नहीं ढूंढा जाता था, जहां किसी को क्रिसमस में सांता क्लॉज़ बनने के लिए नहीं पीटा जाता था. मेरे लिए यह सब बेहद नया, बेहद स्तब्धकारी है.

मैं ख़ुद से बार-बार यह सवाल भी करती हूं कि क्या यही मेरा समय है! क्या मेरा समय हिंसक है! अगर हां, तो वह किस वेश में मेरे शब्दों तक जाएगी. मुझे नहीं मालूम कौन लोग मुझे पढ़ते हैं और उन पर मेरे शब्दों का क्या असर होता है.

मेरा मेरे समय से जैसा भी रिश्ता हो, वह दोस्ताना तो कतई नहीं है. मेरे साथ कुछ नहीं, तो भी 80-90 प्रतिशत जनता रोज़मर्रा के जीवन के लिए संसाधन जुटाने, बच्चों की परवरिश करने, उन्हें शिक्षा दिलाने के लिए सुबह से लेकर रात तक संघर्ष कर रही है. हम पर विश्व में सबसे अधिक जनसंख्या, धार्मिक अतिवाद, सामाजिक पिछड़ेपन और भारी टैक्स स्लैब का दबाव है. संसाधनों की कमी है, ग़रीबी है और रोज़गार के अवसर कम हैं. हममें से जो लोग नौकरियों पर हैं भी, उन पर दो से तीन इंसानों के काम का दबाव है. ऐसे में मैंने कम संसाधनों से चलने वाला साधारण जीवन चुना, क्योंकि इस समय में भी मैं कविता लिखना और पढ़ना चाहती थी.

मैं न सिर्फ अपनी, बल्कि कई स्त्रियों की, जिन्हें मैं जानती हूं, सदियों से चली आ रही स्त्री-शोषण की दास्तान को लोगों के सामने रखना चाहती थी. मुझे हमेशा से लगता है कि निबंध या कथा-लेखन एक संतुलित क़िस्म का काम है, जिसमें आप हर उस बात को सही ढांचे में ढालकर लोगों के सामने रख सकते हैं, जो कहना आपका ध्येय है, लेकिन कवि तो रिल्के की ‘अदृश्य मधुमक्खियां‘ ही हैं. जितना संतोष कविता अपनी छुपी-ढकी काया में दे देती है, उतना संतोष निबंधों और लेखों के निष्कर्ष में मुझे कभी महसूस नहीं होता. इसका यह अर्थ नहीं है कि उनकी ताक़त कम है, बस उनका काम अलग है.

लवली गोस्वामी की पुस्तकें. (फोटो साभार: संबंधित प्रकाशन)

गद्य पढ़कर आप हमेशा सही या ग़लत का फैसला कर सकते हैं, यही उसकी ताक़त है. पहले आंकड़ों को सामने रखना, फिर उनसे कोई निष्कर्ष निकालना, समस्या ढूंढना और उसका समाधान बताना. लेकिन फिर भी समाधान न हो सके, तब! जो नष्ट हो चुका है, उसके कबाड़ से नई दुनिया बनाने का काम सिर्फ कविता ही कर सकती है. मुझे लगता है मीवोश भी अपने इस प्रसिद्ध वाक्य में यही कहना चाहते थे. हम जो समय अपनी रचना में दर्ज़ करते हैं, वह समय नहीं, समय के कई चित्रों का कोलाज होता है. आप बेशक एक साहित्यकार के जीवन से उस कोलाज को मिलाकर देखें, तो आपको समाज का चित्र पूरा नज़र आएगा, लेकिन यह प्रक्रिया बहुत धैर्य, विनम्रता और कुशाग्रता की मांग करती है.

कविता की देह मकड़ी का जाल है, जिसमें सिर्फ नरम ओस की बूंद ही मोतियों जैसी सज सकती है, उसमें आप पत्थर नहीं टांग सकते, पत्थर ढोने के लिए आप को मजबूत रस्सियों से बनी गद्य की मजबूत थैली चाहिए.

अगर मुझे होती हुई या हो चुकी घटना के विवरण को लिखना हो, तो मैं गद्य का सहारा लेती हूं, लेकिन उस घटना से मेरे मन पर क्या प्रभाव पड़ा, उसे मैंने कैसे देखा, यह ज़ाहिर करना हो, तो मैं कविता का सहारा लेती हूं.

मुझे हमेशा लगता है कि विवरण, मूल्यांकन और तथ्य, ये वही बड़े पत्थर हैं, जिनसे कविता की देह क्षतिग्रस्त होती है- यह मेरा मानना है, हो सकता है कि दुनिया में ऐसे लोग हों, जिन्होंने इससे अलग कुछ कविता के साथ कर दिखाया हो. दुनिया प्रयोगों और चमत्कारों से भरी पड़ी है, यहां कुछ असंभव नहीं है.

नीत्शे ने कहा था ‘We have art in order not to die of the truth.’ समकालीन समय में मनुष्य के पास कई ऐसे सच होते है, जो अपने तीक्ष्ण आघातों से एक इंसान का जीवन इतना लहू-लुहान कर सकते हैं कि वह या तो डिप्रेस्ड हो जाए या फिर कुछ महसूस करना ही बंद कर दे. दोनों ही स्थितियां उसके अपने और उसके अपनों के लिए भयावह है. खुशहाल समाज, खुशहाल व्यक्तियों से बनता है, लेकिन सभ्यता की शुरुआत से ऐसा कभी नहीं हुआ कि किसी भी काल में कोई मनुष्य अपने निर्णय लेने के लिए खुशहाली की हद तक स्वतंत्र हो. इस वाक्य के कुछ अपवाद हो सकते हैं.

मनुष्य को समाज में समाज के एक हिस्से की तरह रहना पड़ता है. उस समय के चाल-चलन को मानना पड़ता है. आप कुछ हद तक इससे इनकार कर सकते हैं, लेकिन इससे फ़र्क़ पड़ेगा और वह फ़र्क़ आपके जीवन को आसान तो कतई नहीं बनाएगा. मनुष्य की चाल समाज में हमेशा आगे की तरफ रही है. सभ्यता पीछे नहीं चलती, लेकिन इसके आगे जाने की गति से मुझे हमेशा ऐतराज रहा है.

मुझे लगता रहा है कि मनुष्य को थोड़े और मुक्त मन से सोचने वाला होना चाहिए था. उसे थोड़ा और उदार होना चाहिए था. मनुष्य को अपने से अलग लोगों के लिए और थोड़ा दयालु होना चाहिए था, लेकिन मैं यह सब समाज में कम देख पाती हूं. इंटरनेट के ज़माने में भी बार-बार पिछड़ेपन का उत्सव मनाने वाली ताक़तें जीवित होती हैं. घिसे-पिटे द्वेषवादी जुमले बोलने वाले लोग कई देशों में सत्ता प्राप्त करते हैं. स्त्रीद्वेष, रंगभेद, जातिभेद, लिंगभेद, नस्लभेद अलग-अलग रूप बनाकर सामने आते हैं. ये हमारे समय के सच हैं और नीत्शे शायद इन्हीं से बचने के लिए कला की शरण लेने की बात कह रहे थे.

कई बार ऐसा होता है कि रचनाकार अपने समय से परे लिखता हुआ भी अपने समय की विडंबनाओं को लिख रहा होता है. यह अक्सर ऐतिहासिक चरित्रों पर लिखने के दौरान होता है. कई बार ऐसा होता है कि वह समकालीन चरित्रों को लिखने के लिए इतिहास से प्रेरणा ले रहा होता है. एक सच्चे रचनाकार के लिए ये दोनों स्थितियां संभव हैं. जितना उसमें अतीत होता है, उतना ही वह अपने वर्तमान के प्रति सगज होता है. समय और रचनाकार के बीच रस्सी के दो छोरों जैसा नाता होता है. दो छोर आपस में लिपटकर ही रस्सी बना सकते हैं. अगर वे अलग हुए, तो आपके पास रस्सी बनाने का कच्चा माल तो रहेगा, लेकिन कोई रस्सी नहीं रहेगी.

(लवली गोस्वामी कवि व उपन्यासकार हैं.)

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