बंगनामा: अभी दोपहर है, यानी शटर डाउन है

बारासात में दोपहर के वक़्त दुकानें बंद देखकर मुझे वह चर्चित गीत याद आया जो संकेत करता था कि जिन देशों के निवासी धूप बर्दाश्त न कर सके, वहां अंग्रेज़ तीखी दुपहरी में विचरते थे और अपनी हुकूमत चलाते थे. बंगनामा की उन्नीसवीं क़िस्त.

(प्रतीकात्मक फोटो साभार: Wikimedia/Pinakpani/CC BY-SA 4.0)

1991 की जनवरी का एक शनिवार. 1989 में भारतीय प्रशासनिक सेवा में नियुक्ति के बाद प्रशिक्षणार्थी अधिकारी के रूप में मैं पश्चिम बंगाल के उत्तर 24 परगना के जिला मुख्यालय, बारासात, में प्रशिक्षण ले रहा था. दिन के क़रीब दो बजे थे. अपने फ़ाउंटन पेन की स्याही लेने शहर के मुख्य बाज़ार आया था, मेरी नवविवाहिता पत्नी भी साथ थीं. सड़कें ख़ाली थीं, अधिकतर दुकानें या तो बंद थीं या फिर निंदियाये, अधखुले शटरों से बाहर देख रही थीं. स्टेशनरी की एक दुकान पर जब हम पहुंचे तो उसे खुला पाया, परंतु देखा कि दुकानदार महाशय काउंटर के पीछे आंख बंद किए, सामने स्टूल पर पैर फैलाए, कुर्सी पर पसरे हुए हैं.

‘काली पावा जाबे?(स्याही मिलेगी?)’ मैंने ऊंची आवाज़ में पूछा. धीरे से आंख खोल, सीने पर भनभनाती मक्खी पर ख़ाली वार करते हुए दुकानदार ने कहा, ‘एखोन दोकान बोन्दो आचे (अभी दुकान बंद है).’ मुझे लगा कि मैंने कुछ ग़लत सुना है. मैंने फिर पूछा, ‘आपनार काचे काली नेई ना की? (आपके पास स्याही नहीं है क्या?).’ इस बार चिड़चिड़ाते हुए उन्होंने कहा, ‘बोल्लाम तो, दोकान बोन्दो आचे. तीन टे खूलबे. (बताया तो, दुकान बंद है. तीन बजे खुलेगी.)’

मैं चकराया. मैंने उनसे कहा कि दुकान के शटर खुले हैं, आप वहीं बैठे हैं, फिर भी आप कह रहे हैं कि दुकान बंद है? अब उन्होंने स्टूल से पैर उतार कर, पूरी तरह अपनी आंखें खोलकर, सतर्कता से मेरा मुआयना किया और फिर शायद इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि बाज़ार में कोई नया बौड़म आया है. संक्षिप्त झुंझलाहट के साथ उन्होंने मुझे समझाया कि सर्दियों में बारह बजे से तीन बजे तक और ग्रीष्म काल में बारह से चार बजे तक विश्राम का समय है, इसलिए अभी वह विश्राम कर रहे हैं. अगर मुझे स्याही चाहिए तो मुझे तीन बजने का इंतज़ार करना होगा. इतना कह कर दुकानदार महाशय आंखें बंद कर के फिर पसर गए.

इसके पश्चात मैंने उनसे फिर कोई प्रश्न करने का जोखिम न उठाने का निर्णय लिया. पता नहीं निद्रा-वंचित मनुष्य क्या कर बैठे. दुकानदार की ओर से सफ़ाई देते हुए मैंने अपनी पत्नी से कहा, ‘चलो, मुफ़स्सिल है…’

पश्चिम बंगाल आने के चंद सप्ताह बाद मैंने बारासात शहर में देखा था कि सब्ज़ी बाज़ार सुबह जल्दी खुल जाता है और दोपहर बाद चार बजे तक बंद रहता है. लेकिन मुझे न तो इसका आभास था कि सब्ज़ी की दुकानें ही नहीं बाज़ार की अधिकांश दुकानें भी इसी चलन का अनुसरण करती हैं, और न ही यह ज्ञात था कि यह प्रथा लगभग हर मुफ़स्सिल इलाक़े में प्रचलित है.

इसका कारण केवल गर्मी नहीं बल्कि आर्द्रता है जिसका मान सर्दियों में भी काफ़ी ऊंचा रहता है और सदैव तकलीफ़ देता है. इसलिए छोटे शहरों और क़स्बों में रोज़मर्रा की चीजों की दुकानें तड़के खुल जाती हैं किंतु बारह से चार बजे तक बंद रहती हैं— ताकि दुकानदार और क्रेता दोनों को ही कष्ट न उठाना पड़े. इसलिए मुफ़स्सिल की दोपहर शांत होती है. किंतु चार बजे खुलकर दुकानें लगभग नौ बजे ही बंद होती हैं.  सच पूछिए तो हमारे छोटे शहरों के दुकानदार बड़े शहरों या पश्चिमी देशों के दुकानदारों के अनुपात कहीं अधिक परिश्रम करते हैं. परंतु दिन में कुछ घंटो का विश्राम प्रदेश तथा मौसम के अनुसार स्थिर की गई सदियों से आज़मायी हुई प्रणाली है जो पूर्वी भारत में ही नहीं समस्त दक्षिणी-पूर्व एशिया में भी इन्हीं कारणों के चलते प्रचलित है.

इस विषय पर टिप्पणी करते हुए 1931 में ब्रिटिश नाटककार, गीतकार, लेखक, गायक  और अभिनेता नोअल कावर्ड ने एक हास्य गीत लिखा और गाया था जिसका नाम था ‘Mad Dogs and Englishmen’ यानि ‘पागल कुत्ते और अंग्रेज’(यह गाना यहां सुन और यहां देख और सुन सकते हैं). इस गीत की आरंभिक पंक्तियां हैं:

In tropical climes there are certain times of day
When all the citizens retire,
to tear their clothes off and perspire.

उष्ण देशों में दिन के दौरान ऐसा एक समय आता है
जब हर कोई अपने घर में आश्रय लेता है,
अपने कपड़े उतार फेंक पसीना चुआता है.

इस गीत की अंतिम दो पंक्तियों में बंगाल का भी उल्लेख है:

In Bengal, to move at all, is seldom if ever done,
But mad dogs and Englishmen go out in the midday sun.

बंगाल की कड़ी धूप में लोग यदा-कदा ही हिलते हैं,
पर पागल कुत्ते एवं अंग्रेज दोपहरी में निकलते हैं.

इस लंब गीत में भरपूर मज़ा लेते हुए गीतकार बताते हैं कि विभिन्न एशियाई देशों के लोग— भारत, बर्मा, थाईलैंड, मलय से लेकर फ़िलिपींस तक (तथा जापान और आर्जेंटीना में भी)— गर्मी और आर्द्रता के समक्ष किस तरह घुटने टेक देते हैं, निष्क्रिय हो जाते हैं, उससे कैसे बचते है. कहीं लोग सो जाते हैं, कहीं सूरज के उत्ताप से बचने के लिए सुंदर जाली और कहीं थालीनुमा टोपियों का प्रयोग करते हैं, परंतु सूर्य के तीक्ष्ण ताप का सामना कोई नहीं करता — अंग्रेज मर्दों के अलावा.

अंग्रेज़ी साम्राज्य में यह गीत अत्यंत प्रचलित हुआ था क्योंकि इस में दोहराई गई टेक है ‘Mad dogs and Englishmen, go out in the midday sun’, यानी ‘पागल कुत्ते और अंग्रेज दोपहर की धूप में निकलते हैं.’

पहली कुछ पंक्तियों को सुन कर शायद यह लगे कि गीतकार अंग्रेजों का मज़ाक़ उड़ा रहा है, ऊष्म देशों की चिलचिलाती धूप में बाहर निकलने के लिए उन्हें पागल बता रहा है और उनकी तुलना पागल कुत्तों से कर रहा है. परंतु यह गीत दरसल विस्तृत अंग्रेज साम्राज्य की ओर इशारा करता हुआ कह रहा है कि जहां के देशवासी धूप की गर्मी बर्दाश्त न कर सके, वहां निर्भीक तथा दमदार अंग्रेज बड़े सरल और स्वाभाविक तरीके से हुकूमत चलाते थे. इसका अभिप्राय सहज था— भिन्न देशों के मूल निवासियों की तथाकथित दुर्बलता पर प्रकाश डालकर अंग्रेजों की पीठ थपथपाना. इस गीत का लोकप्रिय होना स्वाभाविक था. ख़ैर, अंग्रेज आए और विदा भी कर दिए गए.

लगभग डेढ़ साल पहले यानी मेरी सेवानिवृत्ति के बाद हम दिल्ली से वापस बंगाल लौटे, तथा कलकत्ता महानगरी से सटे हुए उत्तर 24 परगना ज़िले के एक नए बस रहे शहरी इलाक़े में रहने आ गए. शुरुआत के महीनों में नए फ़्लैट में चीजों की ज़रूरत उजागर होती रहती थी. एक दिन दोपहर खाना खाकर उठ ही रहा था कि श्रीमती जी ने याद दिलाया कि वो कई बार याद दिला चुकी हैं कि दो एलईडी बल्बों की सख़्त ज़रूरत है. मैंने बड़ी दृढ़ता से जवाब दिया कि अभी ले कर आता हूं.

आसपास के बाज़ारों से मैं परिचित न था फिर भी पूछते-पूछते आठगोड़ा बाज़ार पहुंचा. सड़क के किनारे अपनी गाड़ी लगाकर मैं जब आगे बढ़ा तो मुझे लगा कि मेरी दृढ़ता शायद कारगर न हो पाएगी. रास्ते के दोनों ओर जिधर भी नज़र दौड़ाई, दुकानों के बंद कपाटों का तिरस्कार मिला. एक पानवाले ने हाथ से इशारा करते हुए बताया कि बिजली के उपकरणों की दो दुकानें सामने ही हैं. मैंने देखा तो तसल्ली हुई क्योंकि उनमें से एक खुली हुई थी. दुकान के पास पहुंचा तो पाया कि दुकान में एक बालक बैठा हुआ मोबाइल से खेल रहा है. मैंने उससे नौ वाट के दो एलईडी बल्ब मांगे. उसने कहा, ‘दोकान एखोन बोन्दो आचे. बाबा घुमाच्चे. तीन टा शोमोय खूलबे. (दुकान अभी बंद है. पिताजी सो रहे हैं. तीन बजे खोलेंगे).’

ख़ाली हाथ घर पहुंचकर मैंने श्रीमती जी को बताया कि सब्र करना पड़ेगा क्योंकि 34 साल बाद घूम-फिरकर हम लोग फिर वहीं आ गए हैं जहां से हमने अपना सफ़र आरंभ किया था— उत्तर 24 परगना के एक मुफ़स्सिल में.

(चन्दन सिन्हा पूर्व भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी, लेखक और अनुवादक हैं.)

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