हिंदुत्व के एक शिखर पुरुष ने इधर ऐसा कोई वक्तव्य दिया है जिसमें कहा गया है कि भारत पिछले वर्ष उस दिन सही मायनों में स्वतंत्र हुआ जब अयोध्या में एक मस्जिद को ध्वस्त कर राम मंदिर बनाया गया और उसमें प्राण-प्रतिष्ठा हुई. एक स्तर पर यह वक्तव्य हिंदुत्व की बढ़ती सफलता पर उल्लास की अतिशयोक्ति है तो दूसरी ओर उसमें हिंदुत्व की शक्तियों द्वारा भारत के लंबे-सफल स्वतंत्रता-संग्राम, 1947 में प्राप्त स्वतंत्रता, 1950 में लागू भारतीय संविधान और उससे प्राप्त लोकतंत्र और उसके बाद हुए भारत के विकास का घोर अपमान है- उनका अस्वीकार है.
किसी भारतीय नागरिक को ऐसा मत रखने का अधिकार है. उसे व्यक्त करने की स्वतंत्रता भी है. लेकिन यह मत एक राजनीतिक संस्थान के सरसंघचालक का है जो इस समय केंद्र और कई राज्यों में सत्तारूढ़ है और जिसने सत्ता में प्रवेश करने पर संविधान के प्रति निष्ठा की सार्वजनिक लिखित शपथ ली है. इसलिए इस वक्तव्य को अनदेखा नहीं किया जा सकता.
कुछ ऐसा स्पष्टीकरण आया है कि 1947 में मिली स्वतंत्रता राजनीतिक स्वतंत्रता थी, असली सांस्कृतिक स्वतंत्रता 2024 में मिली. इसमें संदेह नहीं कि 1947 में हम ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से मुक्त हुए. पर हमारा स्वतंत्रता संग्राम इस मामले में अनूठा था कि उसमें राजनीतिक के अलावा सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सभी तरह की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया गया था. राजनीति के अलावा इन सभी क्षेत्रों में भी हमने तभी स्वतंत्रता पाई. अगर ऐसा न होता तो विभाजन के बावजूद हमने इतनी जल्दी एक भरा-पूरा संविधान न बनाया, न लागू किया होता.
इस संविधान में सिर्फ़ स्वतंत्रता का अनेक स्तरों पर सत्यापन भर नहीं है उसमें सभी नागरिकों को समान अधिकार, समता और न्याय के मूल्यों की स्थापना, सभी नागरिकों को धर्म-जाति-लिंग आदि से परे कुछ बुनियादी अधिकार, लोकतांत्रिक व्यवस्था आदि के रूप में क्रांति की गई है. यह भी याद आना चाहिए कि भारतीय परंपरा में निजी मुक्ति की, मोक्ष, निर्वाण आदि के रूप में जो धारणाएं थीं वे व्यक्ति की मुक्ति पर एकाग्र थीं और उसमें किसी सामूहिक, सामाजिक मुक्ति का तत्व नहीं था. महात्मा गांधी ने मुक्ति की इस धारणा को सामूहिक स्वतंत्रता की धारणा में रूपांतरित किया और हमारा स्वतंत्रता-संग्राम गहरे और अविच्छिन्न रूप से राजनीतिक-सामाजिक स्वतंत्रता का संघर्ष बना.
अगर यह स्वतंत्रता और लोकतंत्र न होते तो पिछले पचहत्तर वर्ष में हमने साक्षरता, शिक्षा, जीवन दर, स्वास्थ्य, ग़रीबी में कमी, साहित्य-कलाओं-विज्ञान, व्यापार, स्वदेशी उत्पाद न आदि में जो प्रगति की है वह संभव न होती. स्त्रियों और दलितों को तरह-तरह से भारतीय जीवन में उन्नयन और अपने हक़ मानने के अवसर न मिले होते. ये स्वतंत्रता-लोकतंत्र भारतव्यापी है, सब धर्मों-जातियों-वर्णों-समुदायों में व्याप्त हैं. उनकी तुलना में एक पुरानी मस्जिद को तोड़कर, जिसके नीचे किसी मंदिर के होने का कोई सबूत सुप्रीम कोर्ट को नहीं मिला, एक मंदिर बनाने को स्वतंत्रता मानना इस शब्द और अवधारणा का कृतघ्न अवमूल्यन है.
दास्तानगोई के बीस बरस
इक्कीसवीं सदी का एक चौथाई इस बरस बीत जाएगा. अगर हम इस दौरान प्रदर्शनकारी कलाओं में जो हुआ है उसका आकलन करें तो यह स्पष्ट होता है कि सबसे बड़ी घटना दास्तानगोई है. कई तरह से एक परिघटना. इस कथाकथन की विधा का बीसवीं सदी में लोप हो गया था पर वह इस सदी में वापस आ गई है.
इसका श्रेय पहले तो उर्दू के महान् साहित्यकार और विद्वान शमसुर रहमान फ़ारूकी को जाता है जिन्होंने दास्तानों के छियालीस ज़िल्दें खोजकर उन्हें संपादित और प्रकाशित किया. महमूद फ़ारूकी ने इसी भूली-बिसरी और बिला गई विधा को पुनर्जीवन देने की सक्षम और सुविचारित पहल की. महमूद ने सिर्फ़ दास्तान की समृद्ध परंपरा को सम्हाला नहीं बल्कि उसमें विस्तार और नवाचार किया. पुरानी दास्तानों में उन्होंने कई नई दास्तानें जोड़ीं जिनमें ‘घरे बाइरे’, ‘चौबोली’, ‘जयराम जी’, ‘मंटोइयत’, ‘एलिस’, ‘लिटिल प्रिंस’, ‘कर्ण’, ‘राग दरबारी’, ‘रज़ा’, ‘मीर’, ‘रेत समाधि’ आदि शामिल हैं.
हम जिस दौर में हैं उसमें, एक तरह से, दो दास्तानों के बीच एक गृह युद्ध सा चल रहा है: हिंदुत्व की दास्तान और हिंदुस्तान की दास्तान. यह संदर्भ दास्तानगोई को नए क़िस्म की धार और प्रासंगिकता देता है. वह हमारी संस्कृति की, पारंपरिक स्मृति की विधा होने के साथ-साथ प्रतिरोध की विधा भी बन जाती है. उसमें रवीन्द्रनाथ, सआदत हसन मंटो, श्रीलाल शुक्ल, विजयदान देथा, गीतांजलि श्री, मीर तक़ी मीर जैसों की कथाएं, महाभारत और दिनकर से सामग्री लेने का उपक्रम उसे विलक्षण और अकाट्य समकालीनता देता है.
कई दास्तानें सुनते हुए इस पर ध्यान जाता है कि उनमें प्रायः विसंगति-विचलन-विपथगामिता की त्रयी बहुत सक्रिय रहती है. वे हमें याद दिलाती हैं कि यथार्थ न आज, न कभी सुसंगत, एकरैखिक, एकतान होता है. हमारे यहां तो इसका बड़ा ग्रंथ महाभारत है. हम यह भी महसूस कर सकते हैं कि सच सिर्फ़ यथार्थ में नहीं, कल्पना में भी होता है. बहुत सारा यथार्थ तो पहले कल्पित ही होता है.
हमारा समय बहुत टुच्चे सपने देखने से आक्रांत है. दुनिया बदलने का सपना हमने लगभग तज दिया है. हम दी हुई सचाई से ही संतुष्ट होने लगे हैं, उसकी अपार अपर्याप्तता के बावजूद. दास्तानें हमें विकल्प खोजने, बड़े सपने देखने, दी हुई सचाई को प्रश्नांकित करने के लिए प्रेरित करती हैं. कई बार उनमें सचाई और सपने का द्वैत ध्वस्त हो जाता है.
दास्तानों का एक पक्ष यह भी है कि वे सर्वथा रहस्यहीन और विस्मयहीन समय में हमें फिर जताती हैं कि संसार रहस्मय है, हमेशा रहेगा और हमें विस्मित करता रहेगा. महमूद फ़ारूकी की दास्तानगोई में अनेक भाषाओं जैसे उर्दू, हिंदी, फ़ारसी, संस्कृति, अंग्रेज़ी, यहां तक कभी-कभार फ्रेंच तक की आवाजाही होती रहती है. उसका भाषाई गुलदस्ता सुंदर और शब्दों की कई तरह की सुगन्ध देता है.
चित्रकार सैयद हैदर रज़ा पर लगभग दो घंटे की दास्तान महमूद फ़ारूकी ने प्रस्तुत की और बहुत सारे दर्शनों की यह प्रतिक्रिया थी कि उससे उन्हें रज़ा की कला और आधुनिक कला के कई पहलुओं को समझने-सराहने में बड़ी मदद मिली.
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं.)