यूनियन कार्बाइड को औपचारिक रूप से तो ख़त्म मान लिया गया, लेकिन जो ज़हर इस कारखाने ने भोपाल की ज़मीन में बोया, वो अब इस शहर की अगली नस्ल को अपनी चपेट में ले रहा है.
पर्यावरण के प्रति प्रतिबद्धता हर सरकार दिखाती है. बड़े-बड़े मंत्रालय चलाती है, करोड़ों के बजट ले आती है. केंद्र में जहां केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) काम करता है तो हर राज्य में राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड काम कर रहे हैं.
सार्वजनिक मंचों से देश के प्रधानसेवक स्वच्छ भारत अभियान का नारा दे रहे हैं. इस सारी कवायद के मूल में जो मुख्य बातें हैं वो यह कि स्वच्छ हवा में हम सांस ले सकें और स्वच्छ जल पी सकें. भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21 भी हर भारतीय को स्वस्थ वातावरण में रहने का अधिकार देता है. इसी अनुच्छेद 21 के तहत ही नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ऑफ इंडिया (एनजीटी) का भी गठन हुआ है.
इन सभी सांस्थानिक कवायदों के बीच समय-समय पर सरकार और उसके विभिन्न विभाग पर्यावरण बचाओ का संदेश देने आयोजन करते ही रहते हैं. बावजूद इसके बीते तीन दशकों से से मध्यप्रदेश का भोपाल शहर धीरे-धीरे पर्यावरण के भीषणतम प्रकोप की ओर बढ़ रहा है.
सरकारों के बयान इस पर कम ही आते हैं, लेकिन कम से कम वहां कार्यरत एनजीओ और कार्यकर्ताओं का तो यही मानना है और इसका कारण वही यूनियन कार्बाइड (यूका) कारखाना है, जिससे रिसी गैस ने भोपाल की हवा को इतना जहरीला कर दिया था कि हजारों लोग काल के गाल में समा गये थे.
1984 के उस हादसे के बाद कारखाना तो बंद हो गया, जिम्मेदार भी देश छोड़कर भाग गये. लेकिन उस कारखाने के अंदर रखे अन्य जहरीले रसायन और ठोस अवशिष्ट वहीं के वहीं रहे. आज तीन दशक बाद भी 340 मीट्रिक टन कचरा उस कारखाने के अंदर रखा हुआ है, जिसके सुरक्षित निष्पादन का फैसला अब तक सरकारें नहीं कर पायी हैं.
वहीं इससे भी अधिक घातक पक्ष यह है कि लगभग आधी सदी पहले शुरू हुई वह कवायद जब यूका ने भोपाल की जमीन पर कदम रखा था, औपचारिक तौर पर तो खत्म मान ली गयी है, लेकिन यूका ने उस जमीन में जो जहर बोया, वह आज भी जमीन के अंदर ही अंदर फैलकर भोपालवासियों के भविष्य पर अपनी कुदृष्टि गढ़ाये हुए है.
इस संबंध में तीन दशकों से विभिन्न मंचों पर लड़ाई लड़ रहे भोपाल ग्रुप फॉर इंफोर्मेशन एंड एक्शन के सतीनाथ षड़ंगी बताते हैं, ‘1969 से यूनियन कार्बाइड यहां स्थापित होना शुरू हुआ. 68 एकड़ क्षेत्रफल उनके पास था. जहरीले रसायनों पर यहां काम होता था. रासायनिक जहरीला कचरा भी निकलता था, जिसे जमीन में डंप करने के लिए उन्होंने 21 गड्ढे बना रखे थे. 1977 तक यही चला. इसी साल यूका के अमेरिकी हेडक्वार्टर की योजनानुसार कारखाने के बाहर 32 हेक्टेयर जमीन पर 3 तालाब बनाये गये. इन तालाबों को सोलर इवैपोरेशन पोंड (सैप) नाम दिया गया. इन्हे अंदर से हाई डेंसिटी पॉली थायलीन से कवर किया गया और टॉक्सिक इनफ्लुएंट (विषैले तत्त्व) इनमें डालने लगे.
सतीनाथ बताते हैं, ‘सैप नाम इसलिए दिया क्योंकि इसमें जाकर पानी उड़ जाता था और गाढ़ी सामग्री नीचे जम जाती थी. लेकिन बारिश में ये ओवरफ्लो हो जाते थे.’
सतीनाथ उपलब्ध दस्तावेजों का हवाला देते हुए बताते हैं कि 1982 में स्थानीय यूनियन कार्बाइड द्वारा अपने वरिष्ठों को भेजे टैलेक्स संदेश के अनुसार सैप मे लीकेज की समस्या उत्पन्न हो गयी थी, जो सभी आवश्यक उपाय अपनाने के बाद भी दुरुस्त नहीं की जा सकी थी.
सैप में भरे जाने वाले रसायनों की विषाक्तता कितनी घातक थी, उसे इस बात से समझा जा सकता है कि बारिश में ओवरफ्लो होने पर जब वे खेतों में पहुंचते थे तो फसल जल जाती थी और जानवर मर जाते थे. इस संबंध में स्थानीय पुलिस थानों में शिकायतें भी हुई थीं, जिनका निपटारा यूका ने मुआवजा देकर किया था. यही घातक जहर लीकेज के जरिए जमीन के अंदर पहुंच रहा था.
1984 में विश्व की उस भयानकतम औद्योगिक त्रासदी के बाद यूका बंद तो हो गयी. इसे एक काले अध्याय का अंत समझा गया लेकिन वास्तव में यह उस अंतहीन संघर्ष की शुरुआत थी, जिसे आज सतीनाथ जैसे अन्य कार्यकर्ता आगे बढ़ा रहे हैं. जो जहर 15 साल तक यूका जमीन में दबाता रहा, वो आज भी वहीं दफन है. अनुमान है कि यह कचरा 10 हजार मीट्रिक टन के करीब है.
वर्ष 2004 से मध्यप्रदेश के उच्च न्यायालय में इसी जहरीली कचरे के निष्पादन को लेकर मुकदमा लड़ रही रचना ढींगरा बताती हैं, ‘1989 तक सब सामान्य था. लेकिन यूका प्रबंधन जानता था कि वह उस जमीन में जो दबाकर आया है, वो एक न एक दिन अपना असर जरूर दिखाएगा. भविष्य में खड़ी होने वाली समस्या से निपटने के लिए उन्होंने स्वयं ही गुप्त रूप से उसी साल इलाके के भूजल का परीक्षण किया. जिस एलटी-50 तकनीक के माध्यम से भूजल की विषाक्ता मापनी थी, उसमें पानी में मछलियों को डालकर देखा जाता था कि 50 प्रतिशत मछलियां कितनी सांद्रता पर मरती हैं.’
उस रिपोर्ट का हवाला देते हुए रचना कहती हैं, ‘परीक्षण में हर स्थिति में 100 प्रतिशत मछलियां मारी गयीं. इससे पता चलता है कि पानी की विषाक्तता का स्तर यूका की समझ से भी अधिक था.’
उसके बाद से अब तक यूका और उसके आसपास के रिहायशी इलाके के 15 परीक्षण विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा किए जा चुके हैं, जिनमें मध्यप्रदेश सरकार के पब्लिक हेल्थ इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट, नेशनल एनवायरमेंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट (नीरी), ग्रीनपीस इंटरनेशनल, पीपुल्स साइंस इंस्टीट्यूट (पीएसआई, देहारादून), फैक्ट फाइंडिंग मिशन ऑन भोपाल, मध्य प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (एमपीसीबी), केंद्रीय प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड (सीपीसीबी), सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई, दिल्ली), नेशनल ज्योग्राफिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट (एनजीआरआई) और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टॉक्सीलॉजी रिसर्च (आईआईटीआर) जैसे बड़े नाम शामिल हैं.
इनमें से सिर्फ एक संस्था (नीरी) को छोड़ दिया जाए तो बाकी सभी के परीक्षण में भूजल प्रदूषण की पुष्टि हुई है, जिसका दायरा समय के साथ बढ़ता जा रहा है. जो आखिरी परीक्षण 2012-2013 में आईआईटीआर ने किया था उसमें यूका के लगभग 3 किमी के दायरे की 22 बस्तियों के भूजल में हानिकारक रसायन पाये गये थे.
सतीनाथ कहते हैं, ‘उसके बाद से सरकार की तरफ से न तो कोई जांच कराई गयी है और न ही इस समस्या के समाधान का प्रयास करने के लिए कोई भी ठोस कदम उठाया गया है. बीते वर्ष हमने अपने ही स्तर पर एक जांच कराई है जिसमें इस बात की पुष्टि हुई है कि इस भूजलीय प्रदूषण ने अब 10 बस्तियों को और अपनी चपेट में ले लिया है.’
चिंगारी ट्रस्ट की फाउंडर और गैस पीड़ित रशीदा बी कहती हैं, ‘इस संबंध में दशकों से हमारी लड़ाई जारी है. सरकारों से कई बार गुहार लगा चुके हैं लेकिन कोई सुनने को तैयार नहीं है. पता नहीं कि वे क्यों समझ नहीं पा रहे हैं कि पानी तरल स्वरूप का होता है और धारा के साथ अपनी जगह बनाता रहता है और पानी के साथ वे रसायन भी अपना दायरा बढ़ा रहे हैं. ढाई दशक पहले तक प्रदूषण का दायरा 250 मीटर था जो अब फैलकर 4 किमी हो गया है. अगर ऐसा ही चलता रहा तो एक दिन यह पूरे भोपाल को अपनी चपेट में ले लेगा.’
यहां सवाल उठता है कि आखिर इस प्रदूषण का मानव स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव होगा? सतीनाथ बताते हैं, ‘इसमें डायक्लोरोबेंजीन, पॉलीन्यूक्लियर एरोमेटिक हाइड्रोकार्बन्स, मरकरी, लैड जैसे लगभग 20 रसायन हैं जो फेफड़े, लीवर, किडनी के लिए बहुत ही घातक होते हैं और कैंसर के कारक रसायन माने जाते हैं. गर्भ को नुकसान पहुंचाने के साथ-साथ जन्मजात विकृतियों के भी कारण बनते हैं.’
जिन 32 बस्तियों का यहां जिक्र हो रहा है वे वही बस्तियां हैं जहां 33 साल पहले यूका से रिसी गैस ने तबाही मचाई थी. अब वह इस प्रदूषण के कारण दोहरी मार झेल रही हैं. जिन बीमारियों के लक्षण सतीनाथ ने गिनाये, वे यहां तेजी से फैल रही हैं.
अगर कैंसर और किडनी रोग की बात की जाये तो मध्य प्रदेश शासन के उपक्रम ‘भोपाल गैस त्रासदी राहत एवं पुनर्वास विभाग’ के वार्षिक प्रशासकीय प्रतिवेदन 2016-2017 में दर्ज आंकड़े तो इसी बात का इशारा करते हैं कि वास्तव में भूजलीय प्रदूषण अपना असर दिखा रहा है.
प्रतिवेदन में ‘मुआवज़ा संबंधी निर्णय’ नामक बिंदु में दर्शाया गया है कि मुआवज़ा राशि में वृद्धि होने पर प्रस्तुत कुल 63,819 दावा प्रकरणों में कैंसर ग्रस्त गैस पीड़ितों की संख्या 10,251 थी, 5,250 किडनी रोगी थे. वहीं 4,902 लोगों में स्थायी विकलांगता पाई गई. इस तरह कैंसर और किडनी जैसे गंभीर रोगों से ग्रस्त रोगियों की संख्या कुल मामलों के 25 फीसदी के बराबर रही.
वहीं विकलांगता की बात करें तो रशीदा बी बताती हैं कि अकेले जेपी नगर के आसपास से ही एक समय में 70 विकलांग बच्चे सामने आये हैं, जिनका इलाज वे अपने चिंगारी ट्रस्ट क्लीनिक में करती हैं. वे पूछती हैं, ‘क्या सामान्य परिस्थितियों में ऐसा संभव है?’
हर लिहाज से यह आंकड़े चिंतनीय हैं. बावजूद इस सबके सरकारों की पेशानी पर यह बल नहीं डालते तो आश्चर्य होता है. अगर संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) के दूसरे कार्यकाल में केंद्रीय पर्यावरण मंत्री रहे जयराम रमेश को छोड़ दिया जाये तो अब तक अन्य किसी भी राजनेता ने इस संबंध में कोई उल्लेखनीय पहल नहीं की है.
2010 में जयराम रमेश ने नीरी और एनजीआरआई को यूका और उसके आसपास के क्षेत्र में भूजल और मिट्टी में प्रदूषण की जांच करने के आदेश दिए. लेकिन यह प्रयास इन दोनों संस्थानों की लापरवाही की भेंट चढ़ गया.
सतीनाथ बताते हैं, ‘उन्होंने केवल 9 प्रतिशत हिस्से के ही सैंपल लिए क्योंकि उनकी तकनीक ऐसी जगह ही काम करती थी जहां कोई पेड़-पौधे और कंस्ट्रक्शन न हों. उनसे पूछा गया कि ऐसी तकनीक का उपयोग ही क्यों किया! कोई और तकनीक अपनाई जा सकती थी. उनका जवाब संवेदनहीनता भरा रहा कि हमने गैस राहत विभाग को झाड़ियां हटाने कहा था, उन्होंने नहीं हटाईं, हम क्या करते. हमें तो अपना काम करना था न.’
वे आगे कहते हैं, ‘जयराम रमेश ने हमारी मांग पर फिर एक पीअर रिव्यू कमेटी बनायी. यह पूरी तरह सरकारी थी. उसने भी रिपोर्ट के नतीजों को विश्वसनीय नहीं माना.’
सरकारी संस्थाओं की कार्यशैली पर सवाल उठाते हुए वे कहते हैं,
‘नीरी अपनी एक रिपोर्ट में कहती है कि कारखाने के अंदर खतरनाक प्रदूषण है. बहुत जगह प्रदूषित भूजल मिल रहा है लेकिन कारखाने की दीवार के बाहर भूजलीय स्थिति सामान्य है. क्या जादू से वो प्रदूषण दीवार पार नहीं कर रहा था? इनकी रिपोर्ट कहती है कि यहां की जो मिट्टी है वो इतनी अभेद्य है कि उसके नीचे पानी जायेगा ही नहीं. अगर जायेगा भी तो 23 साल बाद भूजल तक पहुंचेगा. और उसी साल एक अन्य सरकारी संस्था आईआईटीआर बताती है कि बहुत सारा जहर है पानी में. बताइये किसे सही मानें?’
इस बीच सरकार के बदलने पर नये केंद्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर बने. नयी सरकार की ओर से भी इस ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया तो गैर सरकारी संगठनों ने अपने अमेरिकी सहयोगियों की मदद से संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण प्रोग्राम (यूनेप) से जमीन की सफाई की गुहार लगाई, जो स्वीकार भी कर ली गयी.
यूनेप ने आश्वासन दिया कि उसके पास जमीन की सफाई करने से संबंधित सभी आवश्यक संसाधन मौजूद हैं बशर्ते कि यूनेप की शर्तों के अनुसार भारत सरकार उनसे सफाई की गुजारिश करे. यूनेप के पत्र को लेकर एनजीओ प्रकाश जावड़ेकर से मिले.
वे बताते हैं, ‘हमने उनसे यूनेप से संपर्क करने की गुजारिश की लेकिन उनका राष्ट्रवाद बीच में आ गया. उन्होंने दो टूक कह दिया कि हमारे द्वारा यूनेप से की गयी अपील में कुछ विदेशी शामिल हैं इसलिए इस पर विचार नहीं किया जा सकता और इस समस्या से अपने स्तर से निपटने में सक्षम है.’
सतीनाथ पूछते हैं, ‘अगर वे सक्षम थे तो दशकों से क्यों आंखें मूंदे रहे. अगर वे सक्षम हैं तो तब से क्यों आंखें मूंदे हैं? आज उस मुलाकात को 3 साल होने को आये. और विदेशी लोगों के शामिल होने का सवाल है तो क्या भारत सरकार अमेरिका से व्यापार नहीं करती. वे अमेरिकी की गोद में खेलते हुए भी अमेरिकियों से परहेज कैसे कर सकते हैं?’
बहरहाल उस कचरे का निष्पादन कभी होगा या नहीं, यह तो समय और व्यवस्था के गर्भ में छिपा है लेकिन वह कचरा पर्यावरण को जो क्षति पहुंचा रहा है उसका भुगतान भोपाल की आने वाली पीढ़ी को ही करना होगा. विडंबना है कि स्वच्छ भारत की बात करने वाली सरकारें स्वयं ही अपने नागरिकों को स्वस्थ वातावरण के अधिकार से वंचित कर रही हैं.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं.)