जिन सरकारों पर नागरिकों की सुरक्षा का जिम्मा हो, वह उसे भूलकर आस्था का इस्तेमाल कर उसका और विवेक का रिश्ता एकदम से तोड़ने पर उतर आएं, तो वही होता है, जो इलाहाबाद के महाकुंभ में बीती रात हुआ और जिसमें अनेक श्रद्धालुओं को हताहत होना पड़ा.
इस बात को कुछ इस तरह समझा जा सकता है कि जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्रीकाल में एक ऐसे ही जमावड़े के वक्त भारत आए एक विदेशी राष्ट्राध्यक्ष ने अभिभूत से होकर उनसे पूछा कि ‘आपने इतना बड़ा मेला लगाया कैसे? इसके लिए तो आपको बहुत प्रचार करना पड़ा होगा?’ तो उनका जवाब था: ‘नहीं, इसके लिए हमने कोई प्रचार नहीं किया. दरअसल, पंचांग बनाने वाले हमारे ज्योतिषी गणना करके जिस दिन और स्थान के लिए ऐसा शुभ मुहूर्त लिख या बता देते हैं, उस दिन व स्थान पर सहज ही इतने लोग इकट्ठे हो जाते हैं. इसमें सरकारी तंत्र को सिर्फ यह देखना रहता है कि उनके साथ कोई अघटनीय घटना न घटने पाए.’
गौरतलब है कि ज्योतिषियों की वह अपरिमित शक्ति इस महाकुंभ के अवसर तक भी कुछ कम नहीं पड़ी है. हिंदुत्व के जयघोष के बीच, उल्टे, वह कुछ बढ़ी ही है.
सो, माना जा सकता है कि उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार को इस महाकुंभ में श्रद्धालुओं की जो रिकॉर्ड तोड़ संख्या अभीष्ट थी, उसके लिए वह इन पर पूरी तरह निर्भर कर सकती थी. लेकिन तुच्छ राजनीतिक लाभ ने उसे ऐसा नहीं करने दिया और उसने खुद अपनी ओर से अभियान चलाकर इस अवसर पर देशभर से श्रद्धालुओं को इलाहाबाद बुलाया.
उसकी ओर से सरकारी, गैर-सरकारी सारे प्रचार माध्यमों का इस्तेमाल कर (प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के फोटो वाले बड़े-बड़े विज्ञापनों व होर्डिंगों की मार्फत भी) यह आभास तो कराया ही गया कि उसने महाकुंभ क्षेत्र को अलग जिला घोषित कर वहां श्रद्धालुओं के लिए गलीचे बिछा दिए हैं, यह प्रचार भी किया गया कि यह ऐसा महाकुंभ है जो 144 साल बाद आया है और ऐसा अगला महाकुंभ भी 144 साल बाद ही आएगा.
आश्चर्य नहीं कि पाप प्रक्षालन और पुण्य के आकांक्षी अनेक श्रद्धालुओं ने इसे ‘न भूतो न भविष्यति’ के रूप में लिया. शुरुआती स्नान तिथियों पर प्रचार माध्यमों द्वारा प्रचारित स्नान करने वालों की बढ़ी-चढ़ी संख्या ने भी उन्हें इसके लिए प्रेरित किया.
लेकिन विडंबना यह कि जब वे इलाहाबाद पहुंचे तो उन्होंने पाया कि जिस सरकार ने कुछ ज्यादा ही हार्दिकता प्रदर्शित कर उन्हें बुलाया था, वह उनकी कम और वीवीआईपी कहलाने वाले महानुभावों (जिनमें राजनीतिक और धार्मिक दोनों वीवीआईपी महानुभाव शामिल हैं) की आवभगत के लिए ज्यादा फिक्रमंद है.
उनका दुश्वारियों से भरी जिस तल्ख सच्चाई से सामना हुआ, वह यह थी कि आम श्रद्धालुओं के लिए तो सरकार ने ज्यादा कुछ किया ही नहीं, कोढ़ में खाज यह कि इसे लेकर सवाल उठाने वालों की बोलती भी बंद कर देनी चाही.
इधर दुश्वारियों को लेकर वायरल हो रहे कई वीडियो में श्रद्धालु ही नहीं धर्माधिकारी भी अप्रसन्न दिखाई देते हैं. एक वीडियो में एक धर्माधिकारी तो यहां तक कहते हैं कि ऐसी अराजकता की स्थिति है कि यही नहीं पता चल पा रहा कि मेला प्रभारी कौन है और वे किससे अपनी शिकायतों के समाधान की उम्मीद कर सकते हैं. एक अन्य वीडियो में वीवीआईपी कल्चर के बीच कई-कई घंटे खड़े रहने और कई-कई किलोमीटर पैदल चलने की तकलीफ़ से त्रस्त आम श्रद्धालु पुलिस व प्रशासनिक अमले पर गुस्साते और कहते नजर आते हैं कि वे या तो अपने घर जाएंगे या जेल.
लेकिन स्वनामधन्यों को सुभीते से डुबकियां लगवाने में व्यस्त सरकार ने इस सबको कतई कान नहीं दिया. और तो और, उसने पिछले दिनों गीता प्रेस के पंडाल और उसके इर्द-गिर्द हुए अग्निकांड से भी कुछ नहीं सीखा और देश में अनेक ऐसे जमावड़ों में जरा-सी चूक से हुई भगदड़ में होने वाली जनहानि के दुखदाई इतिहास से भी कोई सबक नहीं लिया. ले लेती तो निस्संदेह निर्दोष आम श्रद्धालुओं को इस तरह जानें न गंवानी पड़तीं.
आखिरकार, अखाड़ों का जो स्नान इस भगदड़ के बाद रद्द किया गया, उसकी समझदारी पहले क्यों नहीं दिखाई जा सकती थी?
सच पूछिए तो इस महाकुंभ की बीती रात ने इलाहाबाद में ही 1954 में लगे आजादी के बाद के पहले कुंभ में तीन फरवरी को मौनी अमावस्या के शाही स्नान के दौरान अचानक हुई भगदड़ से मचे हाहाकार की डरावनी यादें ताजा कर दी हैं. उस हाहाकार में जरा-सी देर में बच्चों, महिलाओं व वृद्धों समेत कोई आठ सौ (कुछ स्रोतों के अनुसार एक हजार से ज्यादा) लोगों ने जानें गंवा दी थीं.
वह भी जब आजादी के बाद का पहला कुंभ मेला होने के कारण देशवासियों में उसे लेकर अतिरिक्त उल्लास था और उन्हें उम्मीद थी कि उसमें पारंपरिक आस्था का समुद्र तो लहराएगा ही, गुलामी की जंजीरें टूट जाने के उल्लास के अनेक इंद्रधनुषी रंग भी बिखरेंगे.
दोनों मामलों में कोई फर्क है तो बस यही कि तब साधनहीनता की स्थिति थी, जिसके कारण स्थानीय प्रशासन इस अनुमान के बावजूद कि स्नानार्थियों की संख्या नया रिकॉर्ड बना सकती है, स्नानों को व्यवस्थित, अनुशासित व संयमित रखने के भरसक इंतजाम ही कर सका था, जिसके चलते अचानक हालात बिगड़े तो कुछ करते नहीं बना, जबकि इस बार महाकुंभ के भारी-भरकम बजट और उन्नत टेक्नोलॉजी की बहुविध मदद के बावजूद यथेष्ट प्रबंध नहीं किए गए.
उस भगदड़ के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने आगे आकर सारे विशिष्ट अथितियों (वीवीआईपीज) से आग्रह किया था कि वे प्रमुख स्नान पर्वों पर कुंभ नहाने न जाएं, लेकिन यहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद पांच फरवरी को वहां जाने वाले हैं और उनसे ऐसी किसी अपील की उम्मीद की ही नहीं जाती. यह तब है, जब उनके लोग 1954 के महाकुंभ की त्रासदी के लिए आज भी नेहरू को कोसने का कोई मौका नहीं छोड़ते.
उनकी ओर से यह बात अभी भी कई हल्कों में इरादतन बहुत जोर देकर कही जाती है कि उस कुंभ के साक्षी बनने की लालसा में देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद और पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जैसे ही त्रिवेणी रोड से बांध के नीचे उतरते हुए मुगल बादशाह अकबर के बनवाए ऐतिहासिक किले की ओर बढ़े (जिसके बुर्ज में कथित तौर पर उनके आतिथ्य सत्कार की व्यवस्था की गई थी) स्नानार्थियों में अव्यवस्था उत्पन्न हो गई.
कारण यह कि उनकी भीड़ को संभालने के लिए तैनात ज्यादातर पुलिस बल राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री की सुरक्षा से जुड़े इंतजामों में लगा दिया गया. ठीक उसी वक्त एक अखाड़े का जुलूस बांध के रास्ते मेला क्षेत्र में प्रविष्ट हुआ और किसी मार्ग-दर्शन व नियंत्रण के अभाव में अव्यवस्थित हो गया. फिर तो उस जुलूस को निकट से निहारने के अभिलाषी स्नानार्थियों की भीड़ भी बेकाबू हो गई और उसमें अचानक भगदड़ मच गई. उसके दबाव में जो भी लड़खड़ाया और नीचे गिरा, उसे संभलने का अवसर नहीं मिला.
यह सब बातें तब कही जाती हैं, जब नेहरू एक दिन पहले ही कुंभ की तैयारियों का जायजा लेने आए और उसी दिन लौट गए थे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो 2019 के लोकसभा चुनाव में भी इसे लेकर नेहरू पर बरसने से बाज नहीं आए थे. अपनी कौशांबी की सभा में गलतबयानी करते हुए उन्होंने कहा था: एक बार (यानी 1954 में) पंडित नेहरू जब कुंभ में आए तो अव्यवस्था के कारण भगदड़ मच गई थी, हजारों लोग मारे गए थे.
जानकार बताते हैं कि भगदड़ के वक्त केवल राष्ट्रपति डाॅ. राजेंद्र प्रसाद किले के बुर्ज पर बैठकर दशनामी संन्यासियों का जुलूस देख रहे थे. जुलूस सामने से निकलता तो वे खड़े होकर उसका अभिवादन करते और उत्साहित संन्यासी वहां रुककर अपने तलवार-भाले भांजने लगते.
उसके बाद से अब तक सारे कुंभ सकुशल संपन्न होते आए थे. बस 2013 की एक घटना को छोड़कर, जब कुंभ के दौरान इलाहाबाद रेलवे स्टेशन पर मची भगदड़ से 36 स्नानार्थियों की मौत हो गई थी और इकतीस घायल हो गए थे.
कुंभ क्षेत्र से बाहर हुए उस हादसे के लिए, जिसकी ज्यादातर जिम्मेदारी केंद्र सरकार के नियंत्रण वाली रेलवे की थी, योगी सरकार के लोग तत्कालीन समाजवादी पार्टी सरकार और मोहम्मद आज़म खां (जो उस कुंभ के प्रभारी मंत्री थे) कुछ कम नहीं कोसते. अब देखने की बात है कि इस भगदड़ का सामना कैसे करते हैं?
उनकी मुश्किल है कि इसके लिए वे अपनी काहिली को छोड़कर किसी और को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते. कल्पना ही की जा सकती है कि इसमें कोई और ऐंगल होता तो वे कैसे रिएक्ट करते और क्या करते.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)