भारत के शहरी भूगोल की एक अपरिहार्य विशेषता मुसलमान बस्ती है. घनी भीड़-भाड़ वाली बसाहट, कूड़े से भरी जगहें, संकरी गलियां और खुली नालियां, तथा स्कूल और अस्पताल, सीवरेज, पानी और बिजली आपूर्ति जैसी सार्वजनिक सेवाओं से लगभग पूरी तरह से वंचित.
अलगाव लंबे समय से शहरी जीवन की एक सामान्य विशेषता रही है, क्योंकि हर भारतीय शहर और क़स्बा वर्ग, जाति और धर्म के आधार पर विभाजित है. लेकिन इनमें से मुसलमान सबसे अलग-थलग हैं, हालांकि, अन्य धार्मिक समूहों की तुलना में वे शहरों में अधिक रहते हैं. वे आम तौर पर शहरी क्षेत्रों में ग़रीब बस्तियों में रहते हैं, उनमें से अधिकतर असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं और दैनिक वेतनभोगी कर्मचारी हैं जो ‘शहर में सबसे गंदे और सबसे कम वेतन वाले काम‘ करते हैं.
न केवल कामकाजी ग़रीब मुसलमान बल्कि अमीर और मध्यम वर्ग के मुसलमान भी अलग-अलग बस्तियों में क्यों रहते हैं? कुछ लोग मानते हैं कि यह उनकी पसंद का मामला है, क्योंकि अधिकांश मुसलमान केवल उन लोगों के साथ रहना चाहते हैं, जो उनका धर्म और सांस्कृतिक प्रथाएं साझा करते हैं. लेकिन कई अध्ययनों से पुष्टि हुई है कि ऐसा नहीं है. मुसलमानों को सक्रिय रूप से बहिष्कृत किया जाता है, यहां तक कि उन्हें मिश्रित इलाक़ों से भी निकाल बाहर किया जाता है. इसका कारण सांप्रदायिक हिंसा के अनुभव की यादें या डर हो सकता है. या यह ग़ैर-मुसलमानों द्वारा मुसलमान पहचान वाले लोगों को घर बेचने या किराए पर देने में नियमित अनिच्छा के कारण हो सकता है, जिसे कई राज्यों में भेदभाव आधारित क़ानूनों और राज्य नीतियों द्वारा और बढ़ावा दिया जाता है. ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय में समानता क़ानून के विद्वान फ़ैज़ान अहमद सटीक कहते हैं कि ‘मुसलमान घेटो में रहने का विकल्प नहीं चुनते हैं, बल्कि ‘घेटो’ ऐतिहासिक बहिष्कार, उपेक्षा या राज्य या संगठित हिंसा द्वारा उत्पीड़न के परिणामस्वरूप बनाई गई है.’
मानवविज्ञानी राफ़ेल सुसेविंड ने पाया कि अहमदाबाद और हैदराबाद में मुसलमान मुख्यधारा से सबसे ज़्यादा दूर किये चुके हैं, उसके बाद दिल्ली का स्थान है. दिल्ली को ही लें. अतीख रशीद ने बहुत प्रभावी ढंग से इसका वर्णन किया है कि कैसे विभाजन और उसके बाद की घटनाओं ने दिल्ली को नाटकीय रूप से एक खंडित शहर में बदल दिया.
1947 में दिल्ली में संपन्न मुसलमानों की एक बड़ी आबादी थी, जो शहर की मुख्यधारा की आबादी का एक तिहाई था. दिल्ली जल्द ही एक ऐसे शहर में तब्दील हो गई, जिसमें अधिकांश मुसलमान भीड़-भाड़ वाली गंदी बस्तियों में रहते हैं. लगभग 3.3 लाख मुसलमान पाकिस्तान चले गए, जबकि पश्चिमी पाकिस्तान से अपने घरों से उजड़े 5 लाख हिंदू और सिख शरणार्थियों ने दिल्ली को अपना नया घर बनाया. जनगणना से पता चला कि 1941 में दिल्ली की आबादी में मुसलमानों की हिस्सेदारी 33.33 प्रतिशत थी. लेकिन 1951 में शहर की आबादी में उनकी हिस्सेदारी नाटकीय रूप से गिरकर केवल 5.33 प्रतिशत रह गई. चांंदनी चौक, खारी बावली और करोल बाग़ जैसी कॉलोनियां, जहां कभी मुसलमानों की संख्या अधिक हुआ करती थी, वहां अब पंजाबी हिंदुओं और सिखों की बहुलता है.
यह कैसे हुआ? हिंदू और सिख शरणार्थी जिन्होंने पाकिस्तान में अपनी मातृभूमि और प्रियजनों को हमेशा के लिए खो दिया और दिल्ली में आकर शरण ली, वे बदले की आग में जल रहे थे और इस क्रोध ने भयंकर रक्तपात को जन्म दिया. अनुमान है कि अगस्त-अक्टूबर 1947 के बीच, चूड़ीवालान, फाटक हबश ख़ान, फ़ैज़ बाज़ार, लाल कुआं और कूचा चेलन जैसे मुसलमान इलाक़ों और पहाड़गंज, करोल बाग़ और सब्ज़ी मंडी जैसी ‘मिश्रित‘ बस्तियों में सांप्रदायिक दंगों में दिल्ली के 20000 मुसलमानों को मार दिया गया था.
इस ख़ून-ख़राबे का नतीजा यह हुआ कि लगभग हर मुसलमान निवासी, ख़ासकर मिश्रित मोहल्लों में रहने वाले, पुराना क़िला, निज़ामुद्दीन और हुमायूं के मक़बरे में बने अस्थायी शिविरों में चले गए. यहां वे पाकिस्तान ले जाने वाली ट्रेनों का इंतज़ार करते रहे.
महात्मा गांधी और मौलाना आज़ाद ने उनसे भारत में ही रहने की ज़ोरदार अपील की. 23 अक्टूबर 1947 को मौलाना आज़ाद ने दिल्ली की जामा मस्जिद की सीढ़ियों से एक बहुत बड़े हुजूम को संबोधित किया. उन्होंने घोषणा की कि दिल्ली को उनके पूर्वजों ने अपने ख़ून से सींचा है, भारतीय मुसलमान उनके ‘योग्य उत्तराधिकारी’ हैं और यह उनका देश है, जहां से उन्हें मजबूर होकर भागना नहीं चाहिए. इसी तरह महात्मा गांधी ने मुसलमानों को आश्वासन दिया कि जल्द ही हिंदुओं और मुसलमानों के बीच नफ़रत ख़त्म हो जाएगी और सद्भाव बहाल होगा. मौलाना आज़ाद की तरह उन्होंने भी घोषणा की ‘यह देश आपका है और आप इस देश के हैं.‘
कई भारतीय मुसलमानों ने उनकी भावुक अपीलों पर ध्यान दिया. लेकिन उनकी अपनी सुरक्षा के लिए, सरकार ने उन्हें धार्मिक रूप से मिश्रित बस्तियों, जहां वो पहले रहते थे, में लौटने की व्यवस्था नहीं की, बल्कि उन्हें पुल बंगश, फाटक हबश ख़ान, सदर बाज़ार और पहाड़ी इमली जैसे मुसलमान बहुल इलाक़ों में बसा दिया गया, जिन्हें सरकारी भाषा में ‘मुसलमान इलाक़ा‘ कहा जाता था. यहां तक कि नेहरू ने भी इस दृष्टिकोण का समर्थन किया क्योंकि उन्हें लगा कि इससे उनकी सुरक्षा और सांप्रदायिक शांति सुनिश्चित होगी. नज़मा परवीन ने लिखा है कि ‘इन इलाक़ों में रहने वाले मुसलमानों के लिए यह कोई पसंद का मामला नहीं था; न ही ये इलाक़े सांस्कृतिक रूप से सम्पन्न इलाक़े थे. बावजूद इसके, मुसलमानों की सुरक्षा के लिए इन क्षेत्रों में रहना उनकी मजबूरी बन गया’. मुसलमान इलाक़ों पर जल्द ही ‘सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील’ और ‘परेशानी वाला इलाक़ा’ होने का दाग़ लग गया. कुछ दशक और बीतने के बाद अब ये अपराध के अड्डे और फिर आतंकवादियों के ठिकाने के रूप में कलंकित होते गए.
आज़ादी के पहले डेढ़ दशक में सांप्रदायिक शांति का दौर था
भारत की आज़ादी के पहले डेढ़ दशक में सांप्रदायिक शांति का दौर था. लेकिन 1961 के जबलपुर दंगों से शुरू होकर, भारत लगातार सांप्रदायिक हिंसा से दहलता रहा है. और हिंसा की हर घटना सुरक्षा की तलाश में मुसलमानों को घेटो में जाने के लिए बाध्य करती है, जिससे उनका जनसांख्यिकीय अलगाव और बढ़ जाता है.
मुसलमानों की स्थिति का पता लगाने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह द्वारा जस्टिस सच्चर की अध्यक्षता में गठित समिति ने 2006 की अपनी रिपोर्ट में पाया कि ‘अपनी सुरक्षा के डर से मुसलमान देश भर में घेटो में रहने का विकल्प चुनते हैं. सांप्रदायिक रूप से संवेदनशील क़स्बों और शहरों में यह साफ़ तौर से दिखाई देता है.‘ जैसा कि सारा अतहर ने बताया, ‘जिसे ‘दंगों’ के रूप में रिपोर्ट किया जाता है, उसके दौरान अल्पसंख्यक मुसलमान आबादी को घेर लिया जाता है और बाद में, बड़ी संख्या में शहर के पुराने और ग़रीब इलाक़ों के मोहल्लों में पलायन करने के लिए मजबूर किया जाता है.‘ वह शहरों में आबादी के पलायन की बात करती हैं, जहां सांप्रदायिक हिंसा की लगातार घटनाओं ने मुसलमानों को मिश्रित बस्तियों से अपने घर, अपनी संपत्ति और व्यवसाय छोड़ने और मुसलमान बस्तियों में जाने के लिए मजबूर किया.
आबादी का एक जगह से उठकर दूसरी जगह जाना ‘स्वैच्छिक’ प्रतीत हो सकता है, लेकिन जैसा कि प्रवासन विद्वान दीप्ति नागौल ने कहा और ठीक ही कहा है, ‘वास्तव में, यह अपने नागरिकों की सुरक्षा करने में राज्य की विफलता के विरुद्ध एक मजबूर प्रतिक्रिया है, जो उन्हें ख़ुद ही सुरक्षा की तलाश करने के लिए मजबूर करती है’. यह प्रियजनों की क्रूरता से हत्या, यौन हिंसा, लूटे गए घरों और व्यवसायों की दर्दनाक यादें हैं जो बचे हुए लोगों को अपने घरों को छोड़ने के लिए मजबूर करती हैं. आम तौर पर, वे भीतरी शहर के पुराने भीड़भाड़ वाले आवासों या ‘शहरों के बाहरी इलाक़ों में जाते हैं, जहां उचित बुनियादी ढाँचे की कमी होती है’ और ‘अपर्याप्त आवास, गंदगी तथा साफ़ पानी की कमी’ जिसकी पहचान होती है, जहां शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं चौपट होती हैं, आजीविका की भी कोई बेहतर व्यवस्था नहीं होती हैं.
हम इसके तीन उदाहरणों पर विचार करेंगे. मुंबई के बाहरी इलाक़े में मुंब्रा कोंकणी मुसलमानों के समुदाय की एक छोटी सी बस्ती थी. 1992-93 के मुंबई दंगों के बाद, मुंबई के उन इलाक़ों से जहां मुसलमान अल्पसंख्यक थे, वे मुंब्रा चले आए. उस समय मुंब्रा की आबादी 40,000 थी जो 2011 की जनगणना के अनुसार बढ़कर नौ लाख से अधिक हो गई.
जैसा कि मेरा अपना अनुभव है, अहमदाबाद सांप्रदायिक आधार पर सबसे अधिक विभाजित शहर है. जुहापुरा एक विशाल मुसलमान बस्ती है, जिसमें लगभग 3 लाख मुसलान रहते हैं. यह अहमदाबाद की कुल मुसलमान आबादी का आधा है. अहमदाबाद में 1969, 1985 और 2002 सहित कई बड़े सांप्रदायिक दंगे हुए हैं. ख़ासकर 1985 से, और 2002 में और भी बड़े पैमाने पर, जुहापुरा (जिसे अक्सर अपमानजनक रूप से ‘मिनी-पाकिस्तान’ कहा जाता है) अपने हिंदू पड़ोसियों के साथ मिश्रित कॉलोनियों में रहने से डरने वाले मुसलमान नागरिकों की भीड़ का गंतव्य बन गया.
मुझे पूर्व संसद सदस्य एहसान जाफ़री की बेटी के साथ हुई एक बातचीत याद है, उन्होंने बताया कि उनके बचपन की पहली याद उनके पिता की है जो 1965 के दंगों के दौरान उन्हें सुरक्षित स्थान पर ले गए थे जब उनका घर नष्ट हो गया था. कई दोस्तों ने उनसे मुसलमान बहुल बस्ती में जाने का आग्रह किया, लेकिन उन्होंने इस बात से इनकार कर दिया और अपनी ज़िद पर अड़े रहे. उन्होंने कहा, ‘मेरी किसी बात का अब कोई मतलब नहीं रह जाएगा अगर मुझे लगने लगे कि मैं अपने हिंदू पड़ोसियों के बीच सुरक्षा और विश्वास के साथ नहीं रह सकता’. कुछ दशक बाद उन्हें अपने इस फ़ैसले की क़ीमत चुकानी पड़ी, 2002 की सांंप्रदायिक हिंसा में जब वे अपने उन पड़ोसियों द्वारा ही निर्मम तरीक़े से मार दिए गए जिनके साथ रहने का विकल्प उन्होंने चुना था.
फ़रवरी 2020 में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में हुई सांप्रदायिक झड़पों के बाद एक बड़ी आबादी एक जगह से उठकर दूसरी जगह जाकर बसी, दंगों के कारण होने वाले विभाजन और अलगाव का एक हालिया उदाहरण है. कारवां-ए-मोहब्बत के मेरे सहकर्मी जो 2020 की हिंसा से पीड़ित लोगों के साथ मिलकर काम करते हैं, वे बताते हैं कि एक मिश्रित कॉलोनी में धार्मिक आधार पर आबादी का व्यापक पुनर्गठन हुआ है. हिंदू और मुसलमान एक-दूसरे के पड़ोसी के रूप में रहते थे, और हिंदू अपनी संपत्ति मुसलमानों को किराए पर देते थे और मुसलमान भी अपनी संपत्ति हिंदुओं को किराए पर देते थे. अब यह पूरी तरह से बदल गया है. लोग अपनी संपत्ति दूसरे धर्म के लोगों को किराए पर देने में हिचकिचाते हैं, और साधारण लोग उन स्थानों पर संपत्ति किराए पर लेना या ख़रीदना पसंद कर रहे हैं जहां उनके धर्म के लोगों की घनी आबादी है.
न्यूज़लॉन्ड्री ने 2023 की शुरुआत में उत्तर-पूर्वी दिल्ली के एक इलाक़े ब्रह्मपुरी की दीवारों पर लगे पोस्टरों का अध्ययन किया, जो फ़रवरी 2020 में सांप्रदायिक दंगों की चपेट में आ गया था. इन पोस्टरों में हिंदुओं से मुसलमानों को अपने घर न बेचने का आग्रह किया गया था. ब्रह्मपुरी मुसलमान बहुल इलाक़े जाफ़राबाद के सामने है. दंगों के बाद, कई मुसलमानों ने अन्य मुसलमानों के क़रीब रहने की सुरक्षा की भावना से वहां घर ख़रीदना शुरू कर दिया. कुछ हिंदू निवासियों ने शिकायत की कि कॉलोनी ‘अधिक मुसलमान‘ होती जा रही है. एक स्थानीय नेता ने दावा किया कि अब मुसलमान ‘आबादी का 40 प्रतिशत हो गए हैं‘ और उन्होंने इसके लिए ‘रोहिंग्या और बांग्लादेशियों‘ को ज़िम्मेदार ठहराया.
कुछ निवासियों ने निजी तौर पर कहा कि मुसलमानों द्वारा संपत्ति ख़रीदना उनके लिए चिंता का विषय है. अन्य लोग ज़ोरदार तरीक़े से यह दावा कर रहे थे कि पड़ोस में 90 प्रतिशत हिंदू हुआ करते थे, लेकिन अब मुसलमानों की आबादी बढ़ गई है और यहां तक कि एक मस्जिद भी बन गई है. एक हिंदू निवासी ने कहा, ‘हर कोई बाहर निकलने का रास्ता तलाश रहा है. शत्रुता के कारण नहीं. हम यहां शांति से रह रहे हैं. मेरे सभी पड़ोसी मुसलमान हैं. लेकिन दंगों ने हमारे दिमाग़ पर असर डाला. हमने सोचा कि कहीं और रहना बेहतर है – आज नहीं तो कल.’
ऐसा नहीं है कि एक ही धर्म को मानने वाले पड़ोसियों में सब कुछ बहुत सामान्य होता है. वर्ग और जाति भारतीय सामाजिक जीवन के मज़बूत आधार हैं, और भले ही नफ़रत, हिंसा तथा भेदभाव से बचने के लिए लोग एक साथ आए हों मगर समुदाय के बीच का आंतरिक विभेद समाप्त नहीं हुआ है. सारा अतहर आधुनिक मुसलमान बस्तियों की एक प्रमुख विशेषता को नोट करती हैं कि इसके भीतर मुसलमान मध्यम वर्ग मौजूद है. ये वे लोग हैं जो उच्च जाति के हिंदू पड़ोसियों के साथ महंगे इलाक़ों में रहने का ख़र्च उठा सकते हैं. वे ऐसा इसलिए नहीं करते क्योंकि उन्हें डर सताता है, या इसलिए नहीं कि – जैसा कि हम देखेंगे- हिंदू मकान मालिक मुसलमानों को अपना घर किराए पर देना या बेचना नहीं चाहते हैं. इसलिए ये बस्तियां आम तौर पर आर्थिक विविधता को जातीय एकरूपता के साथ जोड़ती हैं.
कभी-कभी भविष्य में होने वाली हिंसा का डर लोगों को घेटो में जाने के लिए प्रेरित करता है. इमाद हसन दिल्ली के सरिता विहार में एक पॉश, हिंदू-बहुल गेटेड कॉलोनी में रहते थे, जहां दंगे नहीं हुए थे. लेकिन उन्होंने मुसलमान घेटो अबुल फ़ज़ल एन्क्लेव में जाने का फ़ैसला किया, भले ही वहां पानी और बिजली की अच्छी सुविधा नहीं थी. उन्होंने बताया, ‘मैं अपनी सुरक्षा के लिए गेटेड सोसाइटी से घेटो में चला गया. जब भी हिंदू-मुसलमान झड़पों की ख़बरें आती थीं, तो मेरे पड़ोसी मेरा अभिवादन स्वीकार करना बंद कर देते थे. सिर्फ़ अल्लाह ही जानता है कि अगर मैं वहां रहता तो क्या होता.’
इसी तरह का चुनाव करने वाले एक अन्य मुसलमान व्यक्ति ने बताया,
मैं इस्लामी कपड़े नहीं पहनता, इसलिए मैं किसी तरह काम चला लेता हूं, लेकिन मेरी पत्नी धार्मिक है जो हिजाब पहनती है. हिंदू बहुल इलाक़े में उसके लिए सुरक्षित रहना मुश्किल होगा. नफ़रत की वजह से हर दिन मुसलमानों के ख़िलाफ़ कोई न कोई नया अपराध होता है. हर दिन हमें पता चलता है कि हमारे अपने देश में हमसे कितनी नफ़रत की जाती है.
मुसलमानों को आवास ढूंढ़ने में समस्या
पिछले कई वर्षों से मैंने जिन युवा मुसलमानों के साथ काम किया है उनसे सैकड़ों कहानियां सुनी हैं कि शहरों में मिली-जुली आबादी वाले मोहल्लों में कमरे और अपार्टमेंट किराए पर लेने के लिए उन्हें कितना प्रयास करना पड़ा, अपमान सहना पड़ा और अक्सर वे इसमें असफल रहे. अधिकांश शहरी मुसलमान बस्तियों में रहने वालों की यह एक सच्चाई है क्योंकि समकालीन भारत में उनके लिए ऐसे मकान मालिक, हाउसिंग सोसाइटी और प्रॉपर्टी ब्रोकर ढूंढ़ना बहुत मुश्किल है जो ऐसा मोहल्लों और हाउसिंग सोसाइटी में घर किराए पर देने या बेचने के लिए तैयार हों जहां अधिकांश निवासी हिंदू हैं. इस वास्तविकता की पुष्टि कई शोध अध्ययनों से हुई है.
दो प्रगतिशील प्रकाशन TwoCircles.net और Newslaundry ने एक साथ मिलकर दिल्ली में मुसलमानों के ख़िलाफ़ आवासीय रंगभेद का अध्ययन किया. वे इस नतीजे पर पहुंचे कि ‘राजधानी में यह अपवाद नहीं बल्कि स्थायी भाव बन गया है‘. उन्होंने दिल्ली में पंजीकृत सभी 1960 आवासीय सोसाइटियों के सदस्यता रिकॉर्ड की जांच की. वे यह जानकर चौंक गए कि 1960 पंजीकृत सोसाइटियों में से 1345 में कोई भी मुसलमान सदस्य नहीं है. इसका मतलब है कि दिल्ली की 68 प्रतिशत आवासीय सोसाइटियों में एक भी मुसलमान सदस्य नहीं है. दिल्ली की आबादी में मुसलमानों की संख्या लगभग 13 प्रतिशत है, लेकिन आवासीय सोसाइटियों में उनकी सदस्यता बमुश्किल 3 प्रतिशत से थोड़ा ज़्यादा है. यहां तक कि यह डेटा थोड़ा भ्रामक है, क्योंकि मुसलमानों ने अपनी ख़ुद की आवासीय सोसाइटियां बना ली हैं. दिल्ली में पंजीकृत 1960 आवासीय सोसाइटियों में से 31 ऐसी हैं, जिनके 90-100 प्रतिशत सदस्य मुसलमान हैं, और आवासीय सोसाइटियों में मुसलमानों की संख्या का 59 प्रतिशत हिस्सा इन्हीं सोसाइटियों में है. इसका मतलब यह है कि केवल 1.5 प्रतिशत मुसलमान ही मिश्रित आवासीय सोसायटियों में रहते हैं.
क़ानून के विद्वान मोहसिन आलम भट के नेतृत्व में हाउसिंग डिस्क्रिमिनेशन प्रोजेक्ट नामक एक अध्ययन ने दिल्ली और मुंबई में तीन वर्षों तक 340 विस्तृत साक्षात्कारों के आधार पर आवास भेदभाव का अध्ययन किया. उनके निष्कर्ष स्पष्ट थे, कि ‘भारत के सबसे विविध और कथित रूप से महानगरीय शहरों में, रिहायशी इलाक़ों में मुसलमानों और दलितों को जगह नहीं दिया जाता है. घर के मालिक और सहकारी आवास समितियां उन्हें अपार्टमेंट किराए पर देने से मना कर देती हैं. आवास के मामले में यह भेदभाव इतना आम हो गया है सब कुछ सामने होते हुए भी दिखाई नहीं देता’.
अध्ययन में पाया गया कि अधिकांश संभावित किराएदार ब्रोकर पर भरोसा करते हैं. शोधकर्ताओं ने जिन ब्रोकर का साक्षात्कार लिया, उनमें से ज़्यादातर ने इस बात को साफ़ तौर पर स्वीकार किया कि वे मुसलमान किराएदारों को मना कर देते हैं. कुछ ने अपने पूर्वाग्रहों का ख़ुलासा किया, लेकिन अन्य ने बताया कि मुसलमान किराएदार एक ‘बोझ‘ हो सकते हैं. वर्षों के अनुभव ने उन्हें सिखाया था कि मकान मालिक मुसलमान किराएदारों को मकान देना नहीं चाहते हैं, यही वजह है कि बहुत से ब्रोकर उनको मकान दिलाने से मना कर देते हैं. एक ब्रोकर ने अनुमान लगाया कि 90 प्रतिशत ब्रोकर की यही सच्चाई है. वे ऐसे ग्राहकों पर समय बर्बाद नहीं करना चाहते जो मुसलमान किराएदारों को मकान देने के लिए ‘तैयार‘ नहीं होंगे. कुछ ब्रोकर मुसलमानों को सिर्फ़ यह कहकर मना कर देते हैं कि घर सिर्फ़ ‘शाकाहारी परिवारों‘ के लिए है ‘अन्य लोग देरी करके या जवाब न देकर अपनी हिचकिचाहट दिखाते हैं.‘ ब्रोकरों ने पाया कि धर्म – किराएदार के बजट की तरह — एक बुनियादी बाधा है.
मुंबई में एक ब्रोकर जो मुसलमान किराएदारों के साथ काम करता है, उसने कहा कि वह ‘मुसलमान किराएदार के लिए मुसलमान मकान मालिक, फिर ईसाई और अंत में समझदार हिंदू की तलाश करेगा‘. ‘यहां तक कि कॉस्मोपॉलिटन इलाक़ों में भी‘ – कॉस्मोपॉलिटन इलाक़े का मतलब जहां सभी पहचान के लोग रहते हैं – ‘जहां कोई मुसलमान किराया पर मकान लेने को तैयार है, वहां भी मकान मालिक किराए पर मकान नहीं देता.‘ यहां तक कि उच्च वर्ग के मुसलमान किराएदार जो बाज़ार दर से अधिक भुगतान करने को तैयार हैं, उन्हें भी मना किया जा सकता है क्योंकि ‘पूर्वाग्रह अक्सर वर्ग पर हावी हो जाता है‘.
मुंबई के उत्तर-पूर्व में स्थित उपनगरीय इलाक़े चेंबूर में एक अनुभवी ब्रोकर ने कहा, ‘लोगों को मना करने का सही तरीक़ा यह है कि सवाल को शाकाहारी और मांसाहारी तक सीमित कर दिया जाए.’ वह किराएदारों से बस इतना कहता है कि उसके पास सिर्फ़ ‘शाकाहारी परिवारों’ के लिए घर है. दिल्ली स्थित एक लॉ फ़र्म में इंटर्न आरिफ़ अहमद ने Caravan से कहा कि, ‘हमें मांसाहारी होने के बहाने या बहुत आक्रामक या रूढ़िवादी होने की धारणा के आधार पर जगह देने से मना किया जा रहा है.’
जो लोग मकान मालिकों से सीधे बात करते हैं, वे बताते हैं कि जब वे पहचान पत्र या किसी और काग़ज़ पर उनका मुसलमान नाम देखते हैं तो पीछे हट जाते हैं. ‘यह सामान्य बात है. कोई व्यक्ति घर देखने गया, सीढ़यों से ऊपर जाने के बाद जैसे ही परिचय हुआ और अपना नाम बताया, ब्रोकर ने फ़्लैट दिखाना बंद कर दिया.’ यह सब ‘घर खोजने के सामान्य काम को अंतहीन, थकाऊ और बेहद अपमानजनक बना देता है’. एक युवा मुसलमान महिला ने डॉक्टरेट स्कॉलर रोहित वेमुला द्वारा आत्महत्या से पहले लिखे गए पत्र में कही गई बातों को दोहराते हुए कहा कि ‘ऐसा महसूस हुआ कि मुझे मेरी तात्कालिक पहचान तक सीमित कर दिया गया है…’ हर बार जब वह उस घर का पास से गुज़रती है, जो घर उसे देने से इनकार कर दिया गया था, तो वह सोचती है ‘क्यों?’
शोध का एक निराशाजनक निष्कर्ष यह था कि ‘यह गहरी और व्यापक भावना थी कि तथाकथित मुसलमान इलाक़ों के बाहर मुसलमानों को मकान नहीं मिलता.‘ परिणामस्वरूप,
मुसलमान किराएदारों ने बार-बार कहा कि वे जानते थे कि मकान किराए पर देने में मुसलमानों के साथ भेदभाव किया जाता है इसलिए उन्हें लगा कि कुछ इलाक़ों में घर खोजने की कोशिश करना भी बेकार है.
हिंदुओं का मुसलमानों के साथ रहने से इनकार
हिंदुओं द्वारा मुसलमानों के साथ रहने से इनकार करना अब मकान मालिकों और बिल्डरों द्वारा उन्हें किराए पर मकान या अपार्टमेंट देने या बेचने से विनम्र (या यहां तक कि अनिवार्य) इनकार तक सीमित नहीं है. कई मौक़े पर निवासियों ने सक्रिय रूप से प्रयास किया कि सांंप्रदायिक तनाव का माहौल बने और मुसलमान उनका इलाक़ा छोड़ दें या अगर मुसलमान उनके पड़ोस में रहना चाहते हैं तो वे उसका ज़ोरदार विरोध करते हैं.
2023 की गर्मियों में उत्तराखंड के एक छोटे से हिमालयी शहर पुरोला से क़रीब एक दर्जन मुसलमान परिवार पलायन कर गए. ऐसा उन्होंने तब किया जब विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल की ओर से घरों और दुकानों पर नोटिस चिपका दिए गए, जिसमें उनसे शहर ख़ाली करने की मांग की गई थी, जिसमें दावा किया गया था कि एक मुसलमान व्यक्ति ने एक युवा हिंदू लड़की का अपहरण करने की कोशिश की थी. यह बात अपने आप में बकवास थी क्योंकि बाद में अदालतों ने पाया कि आरोप पूरी तरह से झूठे थे.
इसी तरह, मध्य प्रदेश के बड़वानी ज़िले के बोरले गांव से दो दर्जन से ज़्यादा मुसलमान परिवार पलायन कर गए, जब एक मुसलमान व्यक्ति कथित तौर पर एक हिंदू लड़की के साथ भाग गया. प्रभावशाली हिंदू पाटीदार समुदाय ने कई मुसलमान घरों पर हमला किया और तोड़फोड़ की और नमाज़ तथा अज़ान पर प्रतिबंध लगाने वाला एक बोर्ड लगा दिया. मुसलमानों को लगा कि जिस गांव में उनका जन्म हुआ वहां अब उनका कोई भविष्य नहीं है.
वड़ोदरा के हरनी में एक हाउसिंग सोसाइटी के निवासियों ने स्थानीय प्रशासन द्वारा आधिकारिक मुख्यमंत्री आवास योजना के तहत एक मुसलमान महिला को फ़्लैट आवंटित किए जाने के बाद विरोध जताया. उन्होंने ज़िला कलेक्टर, नगर निगम आयुक्त, महापौर और शहर के पुलिस आयुक्त के समक्ष संयुक्त रूप से याचिका दायर कर मांग की कि घर के आवंटन को ‘अमान्य’ किया जाए. शिकायत में ‘आसन्न क़ानून-व्यवस्था संकट’ का हवाला दिया गया.
निवासियों ने लिखा, ‘हमारा मानना है कि हरनी इलाक़ा हिंदू बहुल शांतिपूर्ण इलाक़ा है और लगभग चार किलोमीटर की परिधि में मुसलमानों की कोई बस्ती नहीं है. यह 461 परिवारों के शांतिपूर्ण जीवन में आग लगाने जैसा है.’
हाल ही में, उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में एक हिंदू बहुल आवासीय कॉलोनी के निवासियों ने एक हिंदू मकान मालिक द्वारा अपना अपार्टमेंट एक मुसलमान डॉक्टर को बेचे जाने के बाद विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया. उन्होंने दावा किया कि इस बिक्री ने ‘सामाजिक सद्भाव का उल्लंघन किया‘, उन्होंने आगे कहा कि ‘हम यहां शांति से रहते हैं और पहले कभी कोई समस्या नहीं थी‘ क्योंकि कॉलोनी के 450 अपार्टमेंट में पहले कोई मुसलमान निवासी नहीं था. उन्होंने ज़िला प्रशासन और स्थानीय पुलिस में शिकायत दर्ज कराई, जिसमें मांग की गई कि बिक्री को रद्द किया जाए. अंत में मुसलमान डॉक्टर दंपति ने इस घर पर अपना दावा छोड़ दिया.
मुसलमानों को अलग-थलग करने के लिए क़ानून का इस्तेमाल
विडंबना यह है कि कई राज्यों में मुसलमानों को अलग-थलग करने के लिए क़ानून का इस्तेमाल किया जा रहा है. 1991 में, गुजरात विधानसभा ने अशांत क्षेत्र अधिनियम, 1991 पारित किया. यह राज्य सरकार को दंगा-ग्रस्त शहरी क्षेत्रों को ‘अशांत‘ घोषित करने का अधिकार देता है. इस क़ानून का परिणाम यह हुआ कि प्रत्येक भूमि बिक्री के लिए ज़िला कलेक्टर की पूर्व स्वीकृति की आवश्यकता होती है. संकट के समय में दबाव में आकर की गई बिक्री को रोकने के लिए यह क़ानून बनाया गया था, 1980 और 1990 के दशक में लगातार होने वाली सांप्रदायिक झड़पों में बड़े पैमाने पर ऐसी ज़मीनें बिकी थीं. इसी क़ानून का इस्तेमाल अब विशेष रूप से मुसलमानों को हिंदू बहुल क्षेत्रों में संपत्ति ख़रीदने से रोकने के लिए किया जा रहा है.
स्थानीय प्रशासन को संपत्ति की अंतर-समुदाय बिक्री को विनियमित करने का अधिक अधिकार देने के लिए 2010 में क़ानून में संशोधन किया गया था. 2019 में ऐसे विनियमन के लिए अधिक सज़ा का प्रावधान किया गया. अब इस क़ानून का उल्लंघन करने पर छह साल तक की क़ैद की सज़ा हो सकती है. इस संशोधन ने ज़िला कलेक्टर को यह पता लगाने के लिए अधिकृत किया कि क्या संपत्ति के हस्तांतरण से किसी अशांत क्षेत्र का जनसांख्यिकीय संतुलन बिगड़ सकता है और ‘क्षेत्र में एक समुदाय से संबंधित लोगों के अनुचित समूहन’ की संभावना बढ़ जाती है. गुजरात उच्च न्यायालय ने 2021 में संशोधनों पर रोक लगा दी और राज्य सरकार को इसके तहत अधिसूचना जारी नहीं करने का आदेश दिया, लेकिन धार्मिक अलगाव सुनिश्चित करने के लिए अशांत क्षेत्र अधिनियम का उपयोग जारी है.
ऑक्सफ़ोर्ड के शोध छात्र फ़ैज़ान अहमद ने पाया कि हिंदुत्व समूह और कट्टरपंथी हिंदू निवासी दोनों ही राज्य सरकार पर इस क़ानून का इस्तेमाल करके अधिक से अधिक शहरी इलाक़ों को ‘अशांत’ घोषित करने का दबाव बना रहे हैं. इसके बाद वे अपने आस पास मांस खाने वालों के कारण असुविधा का दावा करते हैं और क़ानून-व्यवस्था की समस्या का आरोप लगाते हुए हिंदू बहुल इलाक़ों में मुसलमानों द्वारा संपत्ति ख़रीदने का विरोध करते हैं. उनका मुख्य उद्देश्य ‘उच्च जाति के हिंदू इलाक़ों की ‘पवित्रता‘ बनाए रखना’ है. अपने मूल उद्देश्य से अलग जिस तरह से इस क़ानून का इस्तेमाल किया गया है, उसने आलोचकों को इसकी तुलना नस्लीय प्रतिबंधात्मक क़ानूनों और संपत्ति की ख़रीद को विनियमित करने वाले नियमों से करने के लिए प्रेरित किया है, जिनका इस्तेमाल संयुक्त राज्य अमेरिका में नस्लीय अलगाव सुनिश्चित करने के लिए किया गया था.
धार्मिक अलगाव को बढ़ावा देने वाला एक और क़ानून है शत्रु संपत्ति अधिनियम, जो 1968 में लागू हुआ था. इसने राज्य को उन अचल संपत्तियों को विनियमित करने और क़ब्ज़े में लेने का अधिकार दे दिया, जो उन लोगों की हैं, जो भारत छोड़कर चले गए और उन देशों की नागरिकता प्राप्त कर ली, जिनके साथ भारत का युद्ध हुआ है. ये देश हैं पाकिस्तान और चीन. 2017 में क़ानून में संशोधन ने ‘शत्रु विषय‘ और ‘शत्रु फ़र्म‘ शब्द के अर्थ का विस्तार करते हुए ‘शत्रु‘ के क़ानूनी उत्तराधिकारियों और वंशजों को शामिल किया, चाहे वे भारत के नागरिक हों या ऐसे देश के नागरिक हों जो शत्रु नहीं हैं.
यह भी स्पष्ट किया गया है कि एक बार किसी संपत्ति को ‘शत्रु संपत्ति‘ घोषित कर दिया जाए तो वह वैसी ही रहेगी. देश भर में 12,611 शत्रु संपत्तियां हैं, जिनमें से 126 चीनी नागरिकों की हैं. बाक़ी सभी मूल रूप से उन लोगों की संपत्ति है जो पाकिस्तान चले गए और जिससे अलग होकर बाद में बांग्लादेश बन गया. इन संपत्तियों का अधिकार उनके उत्तराधिकारियों को नहीं दिया जा सकता भले ही वे भारतीय नागरिक हों. इसका परिणाम यह हुआ है कि अनेक मुसलमानों को अपनी संपत्तियों से बेदख़ल किया जा रहा है, ऐसी संपत्तियां सबसे अधिक उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में हैं.
जबरन घेटो में रहने के चलते सार्वजनिक सेवाओं तक सीमित पहुंच
जबरन घेटो में रहने के लिए मजबूर किए जाने के कारण सबसे पहले मुसलमान निवासियों की बेहतर सार्वजनिक सेवाओं और सामाजिक मेलजोल तक पहुंच सीमित हो जाती है. सच्चर समिति ने इस पर ध्यान दिया था, जिसने अपनी रिपोर्ट में लिखा था कि ‘मुसलमानों के सघन इलाक़ों में एक साथ रहने (ऐतिहासिक कारणों और असुरक्षा की गहरी भावना दोनों के कारण) के कारण उन्हें नगरपालिका और सरकारी अधिकारियों द्वारा उपेक्षा का आसान लक्ष्य बना दिया गया है. पानी, स्वच्छता, बिजली, स्कूल, सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाएंं, बैंकिंग सुविधाएंं, आंगनवाड़ी, राशन की दुकानें, सड़कें और परिवहन सुविधाएं – इन सभी की इन क्षेत्रों में कमी है’.
अमेरिका में दशकों से जाति-आधारित आवासीय अलगाव का अध्ययन किया जा रहा है. इस अध्ययन से इस बात के पुख़्ता सबूत मिलता है कि समुदायों का अलगाव अलग-थलग समुदायों, ख़ास तौर पर अश्वेत आबादी की सामाजिक-आर्थिक गतिशीलता में एक शक्तिशाली बाधा है. इंडियन एक्सप्रेस में फ़रज़ाना आफ़रीदी ने ठीक ही लिखा है कि ‘अलगाव के कारण न केवल सांप्रदायिक हिंसा के दौरान अल्पसंख्यक समुदायों को आसान लक्ष्य बनाया जाता है, बल्कि सार्वजनिक वस्तुओं और सेवाओं तक पहुंच को भी नकारात्मक रूप से प्रभावित होती है.’
शहरी और ग्रामीण भारत में 700 लोगों की आबादी वाले 15 लाख अत्यधिक स्थानीयकृत बसाहट के एक व्यापक अध्ययन में पाया गया कि
भारतीय मुसलमानों की बस्तियां सार्वजनिक सेवाओं से व्यवस्थित रूप से वंचित हैं. ग़ैर-मुसलमान क्षेत्रों की तुलना में इनमें सार्वजनिक स्कूल, क्लीनिक, सीवरेज, जल आपूर्ति और बंद नालियां होने की संभावना कम है.
सैम अशर (इम्पीरियल कॉलेज, लंदन), कृतार्थ झा (डेवलपमेंट डेटा लैब), अंजलि अदुकिया (शिकागो विश्वविद्यालय), पॉल नोवोसाद (डार्टमाउथ कॉलेज) और ब्रैंडन टैन (अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष) द्वारा ‘भारत में आवासीय अलगाव और स्थानीय सार्वजनिक सेवाओं तक असमान पहुंच’ शीर्षक वाले एक शोधपत्र में इसके बारे में लिखा गया है. अध्ययन में पाया गया कि सार्वजनिक सेवा प्रावधान में असमानता उनकी अपेक्षा से कहीं अधिक व्यवस्थित है.
डार्टमाउथ कॉलेज में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर नोवोसाद ने Article 14 से कहा कि संयुक्त राज्य अमेरिका में लगातार बढ़ती नस्लीय असमानता का सबसे महत्वपूर्ण कारण अलगाव है, जहां ग़ुलामी की समाप्ति के 150 साल बाद भी अश्वेत अमेरिकियों को सार्वजनिक सेवाओं से वंचित रखा गया है. अमेरिका और दक्षिण अफ़्रीका दोनों में, आवासीय अलगाव की ‘ज़हरीली विरासत’ के परिणामस्वरूप आज भी अश्वेत आबादी की सामाजिक-आर्थिक स्थिति बेहतर नहीं है और वे प्रगति नहीं कर पा रहे हैं. ऐसा इसलिए है क्योंकि उनके पास बेहतर आवास सुविधा नहीं है और शिक्षा तथा स्वास्थ्य जैसी सार्वजनिक सेवाओं का ठीक से लाभ नहीं मिल पाता है जिसकी वजह से उन्हें उपयुक्त रोज़गार प्राप्त नहीं कर पाते और इसलिए आर्थिक स्थिति में सुधार कर पाने की उनकी क्षमता भी प्रभावित होती है. उनके अध्ययन से पता चला कि भारत में मुसलमानों और दलितों को एक समान ही वंचित किया जा रहा है. नोवोसाद ने Article 14 को बताया, ‘सभी सामाजिक वर्गों के भारतीय अलगाव और इस विश्वास के साथ बहुत सहज हैं कि सामाजिक समूह अगर ख़ुद को एक दूसरे से अलग रखें तो बेहतर होगा – बहुत सहज.’ सिंगापुर इससे विरोधाभासी उदाहरण प्रस्तुत करता है जिससे सीखना चाहिए है. वहां 80 प्रतिशत आबादी सार्वजनिक आवास में रहती है, राज्य नीति कोटा के माध्यम से तीन जातीय समूहों – चीनी, भारतीय और मलय – का न्यायसंगत मिश्रण सुनिश्चित किया जाता है.
भारत शोध परियोजना ने पाया कि मुसलमान या दलितों की अधिक संख्या वाले इलाक़ों में सरकारी सार्वजनिक सेवाएं मिलने की संभावना कम है. शोधकर्ताओं ने जिन सेवाओं का अध्ययन किया उन सबकी लगभग यही स्थिति थी, जिसमें माध्यमिक विद्यालय, क्लीनिक और अस्पताल, बिजली, पानी और सीवरेज शामिल हैं.
मुसलमान इलाक़ों में ग़ैर-मुसलमान इलाक़ों की तुलना में पानी पहुंचाने की व्यवस्था होने की संभावना 10 प्रतिशत कम थी और माध्यमिक विद्यालय होने की संभावना 50 प्रतिशत कम थी. दलित इलाक़ों में सरकारी स्कूलों और स्वास्थ्य केंद्रों पर जितनी राशि ख़र्च की जाती है उसकी आधी राशि मुसलमान इलाक़ों में ख़र्च होती है. ऐसी संभावना हो सकती है कि मुसलमान इलाक़ों में पले-बढ़े बच्चे को गैर-मुसलमान इलाक़ों में पले-बढ़े बच्चे की तुलना में दो साल कम शिक्षा मिल पाए.
अलगाव सामाजिक सद्भावना और समझ के लिए भी एक बहुत बड़ी बाधा है. जैसा कि अर्थशास्त्र की प्रोफ़ेसर आफ़रीदी कहती हैं, ‘जब अलग-अलग समुदायों के परिवार एक-दूसरे के बग़ल में रहते हैं, तो वे न केवल एक-दूसरे को बर्दाश्त करते हैं मगर क्योंकि उनके बच्चे एक ही स्कूल में जाते हैं और एक ही मैदान में खेलते हैं, वे मज़बूत बंधन बना पाते हैं जो अधिक एकजुट समाज बनाने में मदद करता है‘. TwoCircles.net के प्रधान संपादक काशिफ़-उल-हुदा को चिंता है कि ‘…हिंदू और मुसलमान अपने समुदायों में सिमट कर रह गए हैं. यह बहुलतावादी भारत के भविष्य के लिए एक परेशान करने वाली प्रवृत्ति है.‘ पत्रकार अनुराभ सैकिया कहते हैं, ‘दिल्ली की महानगरीयता (और वह कह सकते हैं कि हमारे सभी महानगरों की) का आवरण उतर रहा है – और यह इतने शांत तरीक़े से हो रहा कि इस तरफ़ हमारा ध्यान ही नहीं जाता. ज़ाहिर है कि इसके अपने ख़तरे हैं.
सारा अतहर ने मुसलमानों के ‘मनोवैज्ञानिक घेटोकरण’ के बारे में बहुत ही प्रभावी ढंग से लिखा है, जिसमें विभिन्न समुदायों के लोगों के बीच बातचीत और दोस्ती के लिए जगहें बहुत कम हो गई हैं. उन्होंने लिखा, ‘मुसलमानों और हिंदुओं की पीढ़ियां अब एक ही शहर में अलग-अलग द्वीपों में एक साथ बड़ी हो रही हैं, जिनका एक-दूसरे से संपर्क केवल सड़क पर अनिश्चित तरीक़े से होता है या राज्य-नियंत्रित मीडिया के ज़रिये होता है जो वास्तविकता को अपने नज़रिये से तोड़-मरोड़कर पेश करती हैं … ताकि असामाजिक और आपराधिक छवि वाले मुसलमानों की रूढ़िवादी छवि को बढ़ावा दिया जा सके’.
मैं मोहसिन आलम भट के मार्मिक वक्तव्य के साथ अपनी बात समाप्त करता हूं. उन्हें दुख है कि हिंदू बहुल इलाक़ों में किराए के घरों से भारतीय मुसलमानों को व्यवस्थित तरीक़े से बाहर निकाले जाने से मुसलमानों को हर दिन यह याद दिलाया जाता है कि ‘कौन यहां का है और कौन नहीं‘.
भारतीय संविधान ने हर धर्म, जाति और पहचान के लोगों के लिए समान अधिकार वाला देश बनाने का संकल्प लिया था. लेकिन जिस तरह से भारतीय अपना जीवन जीते हैं – जिस तरह से बहुसंख्यक धर्म और विशेषाधिकार प्राप्त जातियों के लोग दलितों और मुसलमानों को हमारे पड़ोस, हमारे स्कूलों और हमारे जीवन से बाहर निकालते रहते हैं – भारतीय शहर और भारतीय गांव रंगभेद के शिकार बने हुए हैं, और मानो किसी वृक्ष की डाल से टूटकर दूर जा गिरे हैं.
(इस लेख के लिए ओमैर ख़ान ने शोध में सहायता की है. मैं उनका आभारी हूं.)
(मूल अंग्रेज़ी से ज़फ़र इक़बाल द्वारा अनूदित. ज़फ़र भागलपुर में हैंडलूम बुनकरों की ‘कोलिका’ नामक संस्था से जुड़े हैं.)