भारतीय मज़दूर वर्ग की आय और केंद्रीय बजट 2025-26 से उम्मीदें

केंद्रीय बजट को यह तथ्य ध्यान में रखना चाहिए कि हमारे देश में एक-चौथाई से अधिक श्रमशक्ति की दैनिक आय 100 रुपये से कम है, आधे से अधिक श्रमशक्ति की औसत मजदूरी 300 रुपये प्रतिदिन से कम है और एक चौथाई से भी कम श्रमशक्ति 500 ​​रुपये प्रतिदिन या 15 हजार रुपये प्रति माह से अधिक आय अर्जित कर पाती है.

(प्रतीकात्मक फोटो साभार: सोशल मीडिया)

आगामी बजट 2025-26 को कोविड के बाद के युग में भारत में रोजगार-बेरोजगारी परिदृश्य के संदर्भ समझना जरूरी है. नवीनतम आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) 2023-24 के अनुसार, जो कि भारत में रोजगार पर सबसे बड़ा और सबसे विश्वसनीय सर्वेक्षण है, श्रम बल की अखिल भारतीय बेरोजगारी दर वर्तमान साप्ताहिक स्थिति (सीडब्ल्यूएस) के अनुसार 5% से थोड़ा कम है.

श्रम बल को रोजगार प्राप्त लोगों और वर्तमान में काम की तलाश कर रहे लोगों, अर्थात बेरोजगारों के योग के रूप में परिभाषित किया जाता है. देश की कुल आबादी 145 करोड़ मानते हुए, श्रम शक्ति 61 करोड़ से अधिक है और इसके अनुरूप बेरोजगारों की संख्या लगभग 3 करोड़ है. यहां इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि किसी व्यक्ति को वर्तमान साप्ताहिक स्थिति के तहत तब तक रोजगार माना जाता है, जब तक वह कार्य  के लिए उपलब्ध है (यानी श्रमबल का हिस्सा है) और पिछले 7 दिनों में से किसी भी दिन कम से कम 1 घंटे के लिए कुछ कार्य हासिल कर सकता है. इस संदर्भ में, कार्य जगत के लिए सार्थक निहितार्थों का आकलन करने के लिए उनकी कमाई को समझना आवश्यक है. 

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) योजना के तहत औसत मजदूरी दर लगभग 300 रुपये प्रति दिन (2023-24 में 279 रुपये) या 30 दिनों में 9,000 रुपये है. इसे एक बेंचमार्क के रूप में मानते हुए यह पाया गया है कि भारत में आधे से अधिक (53.5%) श्रमशक्ति ने 2023-24 में मनरेगा मजदूरी से भी कम कमाया.

भारत में कुल श्रमशक्ति का केवल 22% ही 15,000 रुपये प्रति माह या 500 रुपये प्रति दिन से अधिक कमाने में कामयाब हो पाया है.

इसके बावज़ूद भी, अक्सर यह तर्क दिया जाता है कि पीएलएफएस नमूना सर्वेक्षण में आबादी के ऊपरी तबके का प्रतिनिधित्व कम है. इस कम प्रतिनिधित्व को आय वितरण के ऊपरी हिस्से में समायोजित करने के प्रयास में हमने प्रत्यक्ष कर के आंकड़ों पर गौर किया. केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड (सीबीडीटी) के अनुसार, वित्त वर्ष 2023-24 में भारत में प्रत्यक्ष करदाताओं की कुल संख्या 10.4 करोड़ थी, जो कि जनसंख्या के 7% से कम या भारत के श्रम-बल के अनुमानित आकार के 17% से कम है. 

चूंकि आयकर छूट की सीमा 3 लाख रुपये प्रति वर्ष या 25 हजार रुपये प्रति माह है और यदि हम यह भी मान लें कि सभी 17% श्रमशक्ति 25,000 रुपये प्रति माह से अधिक कमा रही है, तो भी 500 रुपये प्रतिदिन से अधिक कमाने वाली श्रमशक्ति का अनुपात 25% से अधिक नहीं होगा.

लिंग और ग्रामीण-शहरी क्षेत्रों के बीच भी महत्वपूर्ण अंतर विद्यमान हैं. वर्ष 2023-24 में, 85% महिला श्रमशक्ति की दैनिक आय 300 रुपये या मासिक आय 9,000 रुपये से कम है, जबकि पुरुष श्रमशक्ति के लिए यह अनुपात केवल 39% है. ग्रामीण-शहरी क्षेत्रों में यह पाया गया कि 60% से अधिक ग्रामीण श्रमशक्ति और एक-तिहाई से अधिक शहरी श्रमशक्ति की आय देश में औसत मनरेगा मजदूरी दर के बराबर या उससे कम है.

ग्रामीण महिलाओं की स्थिति शहरी महिलाओं और पुरुषों के मुकाबले अधिक चिंतापूर्ण बनी हुई है. यदि हम रोज़गार के प्रकार के हिसाब से डेटा को अलग-अलग करें, तो भी स्थिति चौंकाने वाली है – नियमित वेतन पाने वाले कर्मचारियों में से एक-चौथाई (जिसे ज़्यादा सम्मानजनक और अपेक्षाकृत सुरक्षित रोज़गार माना जाता है), 43% से ज़्यादा स्व-रोज़गार वाले लोग और 58.5% आकस्मिक मज़दूर 9000 रुपये प्रति माह से कम या उसके बराबर आय अर्जित करते हैं.

आय में अनिश्चितता के संदर्भ में तथा भारत में कार्यबल की आय की न्यूनतम सीमा निर्धारित करने के लिए यह तर्क दिया जा सकता है कि शहरी क्षेत्रों में भी मनरेगा जैसी योजनाओं के विस्तार की तत्काल आवश्यकता है. गिरती हुई वृद्धि, निवेश और लाभ दरों के मद्देनजर, मांग की कमी की स्थिति में समग्र स्तर पर घरेलू मांग को बढ़ाने के दृष्टिकोण से भी यह आवश्यक है. अधिकांश परिवारों की पोषण संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उचित मूल्य की दुकानों के माध्यम से खाद्यान्न का वितरण भी महत्वपूर्ण है.

इसके अलावा, देश में सभी स्तरों पर सार्वजनिक वित्तपोषित गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य और शिक्षा के प्रावधान कीआवश्यकता बनी हुई है, ताकि इन सेवाओं पर जेब से होने वाले खर्च को कम किया जा सके, विशेषकर उन 75% श्रमिकों के लिए, जिनकी आय प्रतिदिन 500 रुपये से कम है. इसका अर्थ यह है कि सरकार को सामाजिक क्षेत्र के व्यय को पर्याप्त रूप से बढ़ाने की आवश्यकता है. वैसे भी, बार-बार यह तर्क किया जाता रहा है कि दुनिया के इस हिस्से में सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात में स्वास्थ्य और शिक्षा पर सरकारी व्यय का स्तर सबसे कम रहा है.

चूंकि शिक्षा और स्वास्थ्य मुख्य रूप से राज्य के विषय हैं, इसलिए केंद्र से राज्य को संसाधनों का हस्तांतरण देश के मानव विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. हमारे देश में उच्च लिंग वेतन अंतर और अत्यंत कम महिला श्रम बल भागीदारी दर को देखते हुए, अधिक सार्थक लिंग बजट की आवश्यकता है. हम आशा करते हैं और अनुमान लगाते हैं कि वित्त वर्ष 2025-26 का केंद्रीय बजट 2030 तक सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए इन चिंताओं में से कुछ को संबोधित करेगा. 

(सुरजीत दास, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के आर्थिक अध्ययन और योजना केंद्र में सहायक प्रोफेसर हैं और प्रेक्षा मिश्रा, दिल्ली विश्वविद्यालय के रामानुजन कॉलेज के प्रबंधन अध्ययन विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं.)

(मूल रूप से ‘आउटलुक बिज़नेस’ में प्रकाशित इस लेख को लेखकों की अनुमति से पुनर्प्रकाशित किया गया है. जेएनयू की पीएचडी शोधार्थी पूनम पाल द्वारा हिंदी में अनूदित)